कहते हैं वक़्त सारे ज़ख्म भर देता है. और जब किसी को भारी जानी
नुक्सान होता है तो हमारी या हर किसी की प्रतिक्रिया कुछ ऐसी ही होती है.
मैं तो कहूंगा कि भले ही वक़्त में सब ज़ख्मों को भरने की ताकत है, लेकिन
कुछ ज़ख्मों को भरने में दूसरों के मुकाबले ज्यादा वक़्त लगता है. और यह
ज़ख्म तीन साल के बाद भी बरक़रार है. कल मेरे पापा श्री रामप्यारा सराफ के
निधन को तीन साल पूरे हो जायेंगे.
तीन साल पहले माह जून के ही तपते मौसम में 24 तारीख की सुबह-सुबह जब मेरी छोटी बहन शारदा और उनके पति दीदार सिंह ने फ़ोन करके हमें बताया कि मेरे पापा के श्वास बंद हो गए हैं तो मुझे सहसा यकीन ही नहीं हुआ था, हालांकि उनकी तबियत अरसे से ख़राब चली आ रही थी. दिसम्बर 2008 और जनवरी-फ़रवरी 2009 के दौरान वसुंधरा (गाज़ियाबाद) और चेन्नै में जब वे मेरे परिवार के साथ रहे तो तबियत कुछ ख़राब तो थी, लेकिन मानसिक तौर पर वे सक्रिय थे. इसके बाद वे सार्क देशों के हमख्याल संगठनों के एक सम्मेलन (21-25 जून 2009) के आयोजन के प्रबंध हेतु राजस्थान के श्रीगंगानगर चले गए और उस राज्य के साथियों के संग लगभग ढाई महीने वहां बड़ी मुस्तैदी से सम्मेलन की तैयारियों में लगे रहे. लेकिन शायद यही अति सक्रियता उनके लिए भारी पड़ गई. सम्मेलन का दिन आते-आते उनकी तबियत बिगड़ गई जो बाहर से तो बहुत ज्यादा खराब नहीं दिखती थी, पर अन्दर से शायद खुद उन्हें पता चल गया था कि वे नहीं बचेंगे. सम्मेलन वे अटेंड नहीं कर पाए और उसके दूसरे ही दिन उन्होंने दीदार सिंह समेत अपने साथियों से कहा कि वे उन्हें जम्मू-कश्मीर स्थित नगर साम्बा, जहाँ उनका जन्म हुआ था, ले चलें. 22 जून की रात रास्ते में रुकने के बाद वे 23 की शाम को साम्बा पहुँच गए और अगली सुबह तड़के 4 बजे ही उनका देहांत हो गया.
मौत हर किसी की दुखदायी और अफसोसनाक होती है, लेकिन पिता की मौत ज्यादा दुखदायी और ज्यादा अफसोसनाक होने के साथ-साथ अपूरणीय क्षति भी होती है. अपना पिता हर किसी के लिए गुरु और नायक सरीखा होता है. और मेरे पापा भी मेरे गुरु, मार्गदर्शक और नायक रहे हैं. बचपन में और जवानी में मैंने उनसे कई बातें सीखीं. और निधन के बाद भी वे अपने लेखों के रूप में हमें ऐसा खजाना दे गए हैं, जो हमारे लिए अमूल्य धरोहर है. इन तीन साल में शायद ही कोई ऐसा दिन गया हो जब मैंने अपने पापा को याद न किया हो. और महसूस न किया हो. लगभग डेढ़ साल तो मैं अपने फ्लैट के उस कमरे में जाता ही डरता था जिसमें वे बमुश्किल दो माह रहे होंगे. जैसे कि हर बेटे के साथ होता है, मेरे पापा के साथ मेरी भी कई यादें जुड़ी हुई हैं.
वे इस पुरानी, परखी हुई मान्यता के बहुत हद तक कायल थे कि जल्दी सोने और जल्दी जगने से इंसान तंदुरुस्त, धनवान और बुद्धिमान बनाता है (early to bed and early to rise, makes a man healthy, wealthy and wise), यह बात दीगर है कि पैसा उनके पास ज्यादातर नहीं रहा, न उन्होंने कभी कमाया ही. हां, जिंदगी के आखिरी 15 -20 साल में जब उन्हें विधायकी की पेंशन मिलने लगी तो कुछ पैसा उनके पास आ गया था, जिसे उन्होंने ज्यादातर संगठन के काम या पुस्तक अथवा पत्रिका प्रकाशन में लगा दिया. 70-72 साल की उम्र में भी रोज सुबह उठकर अमूमन पहले वे कसरत करते थे और फिर पढ़ने-लिखने बैठते थे. उनका मानना था कि शारीरिक काम और मानसिक काम एक-दूसरे के पूरक होते हैं. मुझे याद है सीपीआइएमएल में रहते हुए या उसके बाद क्रांतिवाद के अंडरग्राउंड ज़माने में जब मैं (1969 से 1985 तक) उनके साथ काम करता था तो कई बार वे मुझे तड़के ही उठा दिया करते और कसरत करने के लिए प्रेरित करते थे. तब झुंझलाहट तो खूब होती थी, लेकिन संगठन के तकाजों के अनुसार उठना पड़ता था और कसरत भी करनी पड़ती थी. और वह जो आदत मेरी बनी, आज तक बरक़रार है, जिसने ह्रदय रोग के बावजूद 63 साल की उम्र में भी मुझे शारीरिक रूप से तंदुरुस्त रखा है.
वैसे एक हिसाब से देखें तो वे धनवान (wealthy) भी थे, आइडियाज़ के मामले में. जिस आइडिया को भी उन्होंने सही मान लिया, उस पर तन, मन, धन से अमल किया और उस पर अंतिम दम तक कायम रहे. लेकिन ऐसा भी नहीं था कि एक बार कोई आइडिया अगर उन्हें गलत लगा तो उसे छोड़ने में उन्होंने कभी कोई देर या कोताही की हो. हर चीज़ या प्रक्रिया का वे गहराई से विश्लेषण करते थे. जन विरोधी ताकतों के वे हमेशा विरोधी रहे. और उम्र के अंतिम पड़ाव में प्रकृति संरक्षण के नजरिये के भी वे न सिर्फ कायल हो गए थे बल्कि उत्साहपूर्वक उसे आगे बढ़ा रहे थे. सही विचार को जानने, समझने और उसका विकास करने में वे कभी पीछे नहीं रहे.
उनके राजनैतिक जीवन की शुरूआत से ही देखें तो इसका बखूबी एहसास होता है. आजादी से पहले पंजाब यूनिवर्सिटी, लाहौर से इतिहास में एमए करने के बाद वे जम्मू-कश्मीर की तत्कालीन राष्ट्रवादी पार्टी नेशनल कांफ्रेंस में--जिसके नेता शेख मुहम्मद अब्दुल्ला थे--इस समझ के साथ शामिल हुए कि वह उस सामंती राज्य में राष्ट्रवादी तत्वों की नुमाइंदगी करती है. और फिर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के साथ संपर्क हो जाने के बाद भी वे नेशनल कांफ्रेंस की तरफ से 1952 में राज्य संविधान सभा के सदस्य बने तो इस समझ के साथ कि कम्युनिस्टों को उस समय नेशनल कांफ्रेंस में बने रहना चाहिए.
60 से भी अधिक बरस पहले दबे-कुचले और पिछड़ों की तर्जुमानी करने वाली उनकी सामाजिक विचारधारा मात्र एक उदाहरण से ही समझी जा सकती है, जिसका जिक्र उन्होंने खुद अपने एक लेख में किया है. यह प्रकरण विधानसभा में जम्मू-कश्मीर के प्रथम सदरे रियासत (राज्याध्यक्ष) के चुनाव से जुड़ा है, जिसमें उन्होंने राज्य में सामंती महाराजा के वंशज डॉ. कर्ण सिंह के मुकाबले सदन के एक अनुसूचित जाति सदस्य म्हाशा नाहर सिंह का नाम प्रस्तावित किया था, हालांकि शेख अब्दुल्ला प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के परामर्श पर डॉ. कर्ण सिंह के प्रस्तावक बने थे. जाहिर है, ऐसी पार्टी में बने रहना उनके लिए असहज था.
पांच साल तक नेशनल कांफ्रेंस का विधायक रहने के दौरान जब उनमें एहसास गहराता गया कि इस पार्टी में जवाहरलाल नेहरू की अगुआई वाली केंद्र की कांग्रेस सरकार की गलत नीतियों से जूझने का माद्दा नहीं है तो उन्होंने कोई दो दर्जन विधायकों के साथ वह पार्टी छोड़कर डेमोक्रेटिक नेशनल कांफ्रेंस गठित कर ली (जो राज्य में भाकपा की इकाई बन गई) और वे उसके जनरल-सेक्रेटरी बनने के साथ-साथ भाकपा की नेशनल कौंसिल के भी सदस्य बने. तभी से वे अपने विचारों के प्रसार के लिए अपनी लेखनी का भरपूर इस्तेमाल करने लगे और उर्दू साप्ताहिक जम्मू सन्देश के संपादक बने, जो 1969 तक चलता रहा. तब उन्हें लगता था कि भाकपा देश में राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक क्रांति की अगुआ है और उसके उद्देश्य प्राप्ति में ज्यादा वक़्त नहीं लगेगा. लेकिन पार्टी उनकी आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतर प़ा रही थी.
इसीलिए भाकपा की नेशनल कौंसिल के जिन 32 सदस्यों ने पार्टी छोड़कर 1964 के अंतिम दिनों में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) का गठन किया, उनमें वे भी शामिल थे. तब उन्हें लगा था कि देश में जन लोकतान्त्रिक क्रांति की जरूरत है जिसके लिए माकपा सरीखा अलग तरह का क्रांतिकारी संगठन चाहिए, जिसकी केंद्रीय समिति में वे निर्वाचित हुए. अपने इस विचार की वजह से उन्हें 1966 तक दो साल के लिए भारतीय रक्षा अधिनियम (डीआईआर) के तहत जम्मू सेंट्रल जेल में बंद रहना पड़ा. 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी में ज़मीन को लेकर किसानों के जुझारू आन्दोलन का राज्य में माकपा की अगुआई वाली सरकार दमन करने पर उतर आई तो उनका उस पार्टी से भी मोह भंग होने लगा और उन्होंने नक्सलवादियों के पहले अखिल भारतीय संगठन--कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की समन्वय समिति--की स्थापना में अपना योगदान दिया. बाद में वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी)--भाकपा (मा-ले)--के संस्थापक सदस्यों में रहे और उसके पोलित ब्यूरो में चुने गए. उस आन्दोलन के दौरान वे 1971 में पकड़ लिए गए और दो साल तक जम्मू के पूछताछ केंद्र में बंद रहे.
रिहा होने के बाद उन्होंने कई गुटों में बंटे नक्सली क्रांतिकारियों को एक प्लेटफार्म पर लाना चाहा. अन्य सांगठनिक प्रयासों के अलावा इस दिशा में उन्होंने छह-सात किताबें भी लिखीं, जिनमें भारत में क्रांति और क्रांतिकारी आन्दोलन को लेकर कई गंभीर सवालों पर चर्चा की गई थी और उसके रास्ते में आ रही बाधाओं से निबटने के सुझाव थे. इनमें 500 से अधिक पृष्ठों का एक वृहद् ग्रन्थ द इंडियन सोसायटी भी शामिल है, जिसमें 1947 के पहले के भारत के इतिहास का माओवादी नजरिये से विवरण दर्ज है. लेकिन अपने प्रयासों में उन्हें कामयाबी नहीं मिली. 1976 में चीन में माओ त्से-तुंग के निधन के बाद हुए व्यापक बदलावों ने उन्हें झिंझोड़ दिया और वे इस दिशा में सोचने को मजबूर हुए कि क्या मार्क्सवाद आज के युग की सचाई है. 1978 से उन्होंने ए रेवोल्युशनरी व्यूपाइंट नामक विचारशील पत्रिका निकालनी शुरू की जो 1982 के अंत तक चली जिसमें उनके कई अनुसंधानात्मक लेख छपे और नित्य प्रयोग की लम्बी प्रक्रिया से गुजरने के बाद 1983 के शुरू में उन्होंने माओ त्से-तुंग विचारधारा को त्याग दिया. वे मानने लगे थे कि प्रोलेतेरियत (सर्वहारा वर्ग) चूंकि आधुनिक युग का अगुआ वर्ग है, इसलिए पार्टी का नाम भी उसी वर्ग के नाम पर होना चाहिए. इसी के साथ उन्होंने प्रोलेतेरियन पार्टी इन इंडिया नाम की राजनैतिक पार्टी स्थापित की और उसके मुखपत्र प्रोलेतेरियन व्यूपाइंट का संपादन करने लगे, जो मार्च 1986 तक चला.
बहरहाल, उनका सामाजिक अनुसंधान जारी रहा. इस प्रक्रिया में गहरे पैठकर उन्होंने मार्क्सवाद-लेनिनवाद से किनारा कर लिया और एक अंतरराष्ट्रीयवादी लोकतान्त्रिक नजरिया अख्तियार किया. इस दौरान मार्क्सवाद-लेनिनवाद के विभिन्न सूत्रों का खंडन करते हुए उनके कई लेख पार्टी की पत्रिका में प्रकाशित हुए. लिहाज़ा, जून 1986 में उन्होंने भूमिगत पार्टी की जगह एक खुली इंटरनेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक पार्टी का गठन किया और पत्रिका का नाम भी इंटरनेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक व्यूपाइंट रखा गया.
लेकिन सचाई को तलाशने की प्रक्रिया में उनकी सामाजिक-राजनैतिक सोच आगे बढ़ती गई, जिसकी पराकाष्ठा अंततः प्रकृति-मानव केन्द्रित (नेचर-हयूमन सेंट्रिक) विचारधारा के उभरने में निकली. तदनुसार, वर्ष 2002 के अंत तक वे प्रकृति-मानव केन्द्रित पीपुल्स मूवमेंट (नेचर-हयूमन सेंट्रिक जनांदोलन) पर जोर देने लगे और जनवरी 2003 में उनका इंटरनेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक व्यूपाइंट बदलकर नेचर-हयूमन सेंट्रिक व्यूपाइंट हो गया. इस नजरिये के अनुसार, आज दुनिया में एक ऐसा कार्पोरेट निजाम कायम है, जिसकी फितरत पूरी मानवजाति और प्रकृति के खिलाफ है और उसका काम पर्यावरण तथा समूचे जैव जगत के विरुद्ध जाकर सिर्फ और सिर्फ पूंजी का प्रबंध करना है. और इस निजाम के दोनों मॉडल--कार्पोरेट जगत की अगुआई में पूंजीवादी मॉडल हो या सरकार निर्देशित "समाजवादी" मॉडल--पूंजीवादी व्यवस्था के हितों की ही पूर्ति करते हैं. इसी वज़ह से दोनों मॉडल आज अपनी प्रासांगिकता खो चुके हैं. खुद यह नजरिया एक ऐसे मॉडल का खाका पेश करता है जो पूँजी के प्रबंध की जगह प्रकृति और मानवजाति के प्रबंध को प्राथमिकता देता है.
बहरहाल, मुझ पर अपने पापा का असर दो और चीज़ों से पड़ा है. टाइम मैनेजमेंट और फिनांशियल मैनेजमेंट मैंने बहुत पहले उनसे सीखा था. मुझे याद है कि वे भाषण और लेखन के लिए नोट्स तो बनाते ही थे, उनकी जेब में दो पर्चियां और पड़ी रहती थीं. एक में उनका टाइम-टेबल सा बना रहता था. हर पल का हिसाब वे रखते थे. और पलों के साथ ही पैसों का हिसाब भी हमेशा साथ-साथ लिखते रहते थे. यह दो चीज़ें मुझे विरासत में मिली हैं और मैं ही नहीं मेरा बेटा भी आज तक इस नियम का पालन करता है.
वैसे, मेरे पिता बहुत अच्छे वक्ता और लेखक भी थे. बचपन में मैंने उनकी कई सार्वजनिक सभाएं अटैंड की हैं. जम्मू शहर में, साम्बा में, जहाँ उनका जन्म हुआ, और सीमा पर बसे रणवीरसिंहपुरा में. जिस सलीके से वे नेशनल कांफ्रेंस या कांग्रेस की राज्य सरकार की धज्जियाँ उड़ाया करते थे, अथवा जनता को उस समय की इकोनोमिक्स को दिल खोलकर समझाया करते थे, उससे उनके विरोधी भी उनकी वक्तृत्व कला के कायल थे. अनेक बुजुर्ग, जहाँ तक कि उनके विरोधी नेता भी इस बात कि तस्दीक करेंगे कि विधायक रहने के 10 साल के दौरान वे तथ्यों और आंकड़ों से लैस होकर विधानसभा में पहुंचा करते थे. इस बात कि पुष्टि उस ज़माने की विधानसभा की कार्यवाही से की जा सकती है. सदन में दिए गए भाषणों के अलावा 1958 से लेकर 1967 तक उनके अनेक लेख उर्दू साप्ताहिक जम्मू सन्देश में प्रकाशित होते रहे, लेकिन अफ़सोस है कि उसका कोई रिकार्ड आज हमारे पास मौजूद नहीं है. इन भाषणों और लेखों को खोजकर जुटाना एक बड़ा काम है.
हां, संतोष इस बात का है कि 1973 से लेकर 2009 तक उनके सारे लेखन का रिकॉर्ड हमारे पास है. उनके लेखन में खासी विविधता रही है. इतिहास के तो वे छात्र ही थे और 30 साल संसदीय राजनीति तथा 35 साल संसदीय से इतर राजनीति में लगे होने के कारण उनके बहुत सारे लेख इन्हीं से सम्बंधित हैं. लेकिन फिलासफी, अर्थव्यवस्था, कृषि, विज्ञान और अन्य विधाओं में भी उन्होंने लिखने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. उनके अधिकांश लेख खासे विश्लेषणात्मक (analytical) हैं. उनके साथियों ने उनकी संकलित रचनाओं को प्रकाशित करने का बीड़ा उठाया है. इस कड़ी में 624 और 524 पृष्ठों के पहले दो खंड क्रमशः 2010 और 2011 में प्रकाशित हो चुके हैं तथा 656 पृष्ठों का तीसरा खंड कुछ ही रोज पहले छपा है, जिसे कल रिलीज़ किया जा रहा है. चौथा खंड भी तैयार पड़ा है, जिसमें 582 पृष्ठ हैं. लगभग इतने ही बड़े-बड़े तीन अन्य खण्डों की भी तैयारी चल रही है. मेरा सौभाग्य है कि मुझे इन रचनाओं को संपादित करने का मौका मिला है और मेरी तरफ से यह अपने पिता को विनम्र श्रद्धांजलि है.
आज में यही कह सकता हूँ कि पापा मैं आपको बहुत मिस करता हूँ.
ओम सराफ

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