Friday, June 30, 2023

समान नागरिक संहिता: जल्दबाजी से न लें काम

चित्र साभार: https://aapbhijaano.com/uniform-civil-code/

समान नागरिक संहिता को लेकर चर्चा इन दिनों फिर जोरों पर है. हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐसा कानून लाने की पुरजोर वकालत कर चुके हैं. सत्तारूढ़ भाजपा के चुनाव घोषणापत्र का एक अहम हिस्सा होने की वजह से ऐसी चर्चा गाहे-बगाहे उठती ही रहती है.

लेकिन इस बार अपने तरकश में कम ही तीर रह जाने की वजह से मोदी ने चुनाव से पहले हिंदू वोटों को लामबंद करने की खातिर यह सवाल खड़ा कर दिया कि कोई राष्ट्र दो तरह के कानूनों से कैसे चल सकता है. मोदी किस्सा गढ़ने के खेल के बड़े उस्ताद तो हैं ही. इससे उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि अगले आम चुनाव में अन्य बातों के अलावा उनका मुख्य एजेंडा समान नागरिक संहिता होगा.

दरअसल, इस समय भारत में शादी, तलाक़, उत्तराधिकार और गोद लेने के मामलों में विभिन्न समुदायों में उनके धर्म, आस्था और विश्वास के आधार पर अलग-अलग क़ानून हैं. इसके उलट, समान नागरिक संहिता बनाने का मतलब है समूचे देश के लिए एक ऐसा कानून तैयार करना, जो शादी, तलाक़, उत्तराधिकार, वंश-क्रम और गोद लेने सरीखे व्यक्तिगत मामलों में सभी धार्मिक समुदायों पर लागू होगा. अभी भारत में हर धर्म के अलग-अलग नियम हैं. हिंदुओं के शादी, उत्तराधिकार वगैरह को लेकर अपने कानून हैं, जो मुसलमानों, ईसाईयों और पारसियों से भिन्न हैं. अगर समान नागरिक संहिता लाई जाती है तो हिंदू विवाह अधिनियम (1955), हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (1956) और मुस्लिम व्यक्तिगत कानून विनियोग अधिनियम (1937) तकनीकी तौर पर समाप्त हो जाएंगे.

भारत में, व्यक्तिगत कानूनों में सुधार करने और समान नागरिक संहिता लाने को लेकर बहस चलते हुए लगभग 100 साल हो गए हैं. आजादी के बाद संविधान सभा में भी इस पर तीखी बहसें हुई थीं, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकल पाया. आखिर में, संविधान के अनुच्छेद 44 में यह जोड़ा गया: "सरकार समूचे भारत में सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लाने का प्रयास करती रहेगी."

यहां तक ​​कि सुप्रीम कोर्ट भी अपने सामने बार-बार लाए गए इस मामले पर कोई फैसला नहीं कर सकी. आखिर वह इसे "कोई मुद्दा नहीं" कहकर अपनी निराशा ही व्यक्त कर पाई. अदालत ने इस जरूरत पर जोर दिया कि संसद इस बारे में कोई कानून बनाए. लेकिन कई सरकारें आईं और गईं, लेकिन वे इस मामले में कुछ नहीं कर पाईं. अनेक राज्यों में सरकारें चला रही भाजपा भी इस मुद्दे को हल नहीं कर सकी. सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बलबीर सिंह की अध्यक्षता में जो 21वां विधि आयोग बनाया था, वह भी इसका समाधान नहीं कर सका. दो साल से अधिक समय तक व्यापक विचार-विमर्श के बाद अगस्त 2018 में वह इस महत्वपूर्ण निष्कर्ष पर पहुंचा कि समान नागरिक संहिता "न तो जरूरी है और न ही वांछनीय".

वैसे, समान नागरिक संहिता बनाए जाने के सबसे बड़े पैरोकार मोदी और उनकी पार्टी भाजपा ने इसका कोई मसौदा अभी लोगों के सामने नहीं रखा है, जिस पर करीने से कोई देशव्यापी बहस हो सके. लेकिन जानकारों का मानना है कि इससे भानुमती का ऐसा पिटारा खुल जाएगा, जिसके नतीजे देश की हिंदू बहुसंख्या के लिए भी अनचाहे ही होंगे, जिसकी प्रतिनिधि होने का दावा भाजपा करती है.

अहम बात यह है कि संपत्ति और उत्तराधिकार संबंधी अधिकारों को लेकर विभिन्न धार्मिक समुदायों के ही नहीं, विभिन्न राज्यों के भी अलग-अलग कानून हैं. अनुच्छेद 371 (ए) से लेकर 371 (आइ) तक में और छठी अनुसूची के अंतर्गत पारिवारिक कानून को लेकर असम, नगालैंड, मिजोरम, आंध्र प्रदेश और गोवा जैसे राज्यों को कुछ सुरक्षाएं हासिल हैं या कुछ अपवाद प्रदान किए गए हैं. नगालैंड और मिजोरम जैसे पूर्वोत्तर के ईसाई बहुल राज्यों के अपने ही व्यक्तिगत कानून हैं, जो धर्म के नहीं बल्कि उनके रीति-रिवाजों के अनुरूप हैं. गोवा में तो 1867 से ही एक साझा नागरिक कानून है और उसमें कैथोलिक और अन्य समुदायों के लिए भी अलग-अलग नियम हैं. इस कानून के अंतर्गत गोवा में हिंदू दो शादियां कर सकते हैं.

भारतीय संविधान की छठी अनुसूची में अनेक राज्यों को निश्चित सुरक्षा प्रदान की गई है. कुछ आदिवासी कानून, दरअसल, जहां पारिवारिक संस्थाओं की मातृसत्ता वाली व्यवस्था की रक्षा करते हैं, वहीं कुछ में महिलाओं के विपरीत हितों वाले प्रावधानों को भी जगह दी गई है. ऐसे भी प्रावधान हैं जो पारिवारिक कानून के मामलों में पूर्ण स्वायत्तता की अनुमति देते हैं. इनका निर्णय स्थानीय पंचायतें भी कर सकती हैं, जो अपनी कार्यविधियों का पालन करती हैं. विधि आयोग ने कहा भी है: "सांस्कृतिक विविधता का इस हद तक उल्लंघन नहीं किया जा सकता कि एकरूपता के प्रति हमारा आग्रह ही राष्ट्र की क्षेत्रीय अखंडता के लिए खतरा बन जाए."

भाजपा सरकार समान कानून और धर्मांतरण विरोधी कानूनों के बीच भी तालमेल कैसे बैठाएगी - समान कानून जहां विभिन्न धर्मों और समुदायों के आपस में बेरोकटोक विवाह की अनुमति देता है, वहीं धर्मांतरण विरोधी कानून अंतर-धार्मिक विवाहों को रोकने के जोरदार समर्थक हैं. समान नागरिक संहिता आने से हिंदू अविभाजित परिवार (एचयूएफ़) ख़त्म हो जाएगा. हिंदू क़ानून के मुताबिक़, एक परिवार के सदस्य एचयूएफ़ बना सकते हैं. आयकर अधिनियम के तहत एचयूएफ़ को एक अलग इकाई माना जाता है. अब बेटियां भी परिवार की संपत्ति में हिस्सेदार हैं. और इसके तहत उन्हें टैक्स देनदारियों में कुछ छूट मिलती है.

बहरहाल, मोदी ने जो सवाल खड़ा किया है कि कोई राष्ट्र दो तरह के कानूनों से कैसे चल सकता है, इस पर तर्कपूर्ण ढंग से सोचना जरूरी है. मोदी के सवाल से लगता है कि समान नागरिक संहिता लागू करना किसी राष्ट्र को चलाने के लिए मानो सबसे बड़ी चीज है, कोई बड़ी भारी नियामत है. लेकिन अपने आसपास नजर डालें और अपने अंदर झांकें तो ऐसा लगता नहीं है.

मसलन, पाकिस्तान में सभी मुसलमानों पर समान शरिया कानून ही लागू होता था और आज भी है. इसके बावजूद, पचास साल पहले बंगाली मुसलमान और पश्चिमी पाकिस्तान के मुसलमान एक ही राष्ट्र में साथ क्यों नहीं चल सके? और आज क्यों पंजाब, सिंध, बलूच और पठान मुसलमानों के लिए भी एक ही राष्ट्र में चल पाना मुश्किल होता जा रहा है?

यही नहीं, खुद भारत में ही देख लें. यहां की दंड प्रक्रिया संहिता तो सबके लिए समान ही है. और तो और, संपत्ति बेचने, ठेका देने, सामान बेचने, मकान-दुकान-जमीन किराये पर देने, सीमा शुल्क वसूलने वगैरह को लेकर जितने भी कानून हैं, वे सभी समुदायों पर समान रूप से ही तो लागू होते हैं. क्या उनसे राष्ट्र बहुत बढ़िया चल रहा है?

इसके अलावा, मुसलमानों को छोड़कर हिंदुओं, सिखों, बौद्धों और जैनियों के लिए एक ही साझा नागरिक कानून है. तो क्या इसके चलते भारत के इन समुदायों के बीच कोई समस्या नहीं रही और इससे राष्ट्र अच्छे तरीके से चल रहा है?

दरअसल, पाकिस्तान हो या भारत, दोनों में राष्ट्र न तो ठीक तरीके से चल रहा था और न अब चल रहा है. विभिन्न समुदायों के बीच दरार पहले की तुलना में लगातार चौड़ी होती जा रही है. भारत में आज खुद हिंदू ही आपस में ज्यादा लड़ रहे हैं. इसका नंगा रूप अगर देखना हो तो विभिन्न जातियों के बीच या हर जाति के भीतर अदालतों में बढ़ते मामलों को देख लें. राष्ट्र की स्थिति कोई इससे अलग नहीं है. और इसकी वजह है हमारा राष्ट्रीय मॉडल, जो इसी प्रकार के नतीजे की ओर ले जा सकता है. यह मॉडल केंद्रीयकृत राज्य व्यवस्था, अपराध एवं भ्रष्टाचार से सनी राजनीति, और आचरण के घिसे-पिटे मापदंड पर टिका हुआ जो है.

मोदी के सवाल से यह धारणा भी बनती है कि उन समुदायों को, जिन्होंने अपने व्यक्तिगत कानूनों को बनाए रखा है और किसी साझा कानून को नहीं अपनाया है, भारत राष्ट्र का अंग बनने का पूरा अधिकार नहीं है. लेकिन रूस, चीन वगैरह कई देशों के अल्पसंख्यक आज भी अपने-अपने व्यक्तिगत कानूनों से चलते हैं, फिर भी वे दूसरे समूहों की तरह ही अपने-अपने राष्ट्र के महत्वपूर्ण अंग हैं.

प्रधानमंत्री का सवाल यह भाव जगाता है कि महिलाओं को सामाजिक न्याय और मानवाधिकार सिर्फ समान नागरिक संहिता अपनाने से ही मिल सकते हैं. या फिर, यह कि महिलाओं पर अत्याचार सिर्फ समान नागरिक संहिता अपनाकर ही रुक सकते हैं. लेकिन इस चक्कर में यह तथ्य आंखों से ओझल हो जाता है कि मौजूदा सारे ही व्यक्तिगत कानून या दूसरे कानून पुरुषों के पक्ष में हैं. वे कानून चाहे भारत के हों या किसी दूसरे देश के. महज समान नागरिक संहिता पर ही जोर देने का मतलब है, ऐसा साझा नागरिक कानून बनाना जिसमें महिलाओं के प्रति भेदभाव बराबर बना रहे.

इसलिए सबसे पहले जरूरत इस बात की है कि हम अपने मौजूदा व्यक्तिगत कानूनों में महिलाओं के प्रति जो भेदभाव है, उसे खत्म करने के लिए जोर डालें. नहीं तो सरकार हमें ऐसा समान कानून थमा देगी, जिसमें महिलाओं के प्रति घोर भेदभाव होंगे. लेकिन पुरुष मानसिकता से भरपूर राष्ट्र के संस्थान महज समान नागरिक संहिता की ही बात करते हैं, जिसमें किसी महिला को समान वैवाहिक अधिकार के सिवा और कुछ हासिल नहीं होता.

स्त्री-पुरुष समानता की तरफ आगे बढ़ने के लिए नीचे दिए कदम उठाना जरूरी है:

(1) महिलाओं को सामाजिक तौर पर सशक्त बनाने के लिए पितृसत्ता वाली व्यवस्था को खत्म करना और बच्चे के अभिभावक के रूप में माता-पिता दोनों का नाम लिखे जाने की रीति चलाना;

(2) महिलाओं को आर्थिक तौर पर सशक्त बनाने के लिए परिवार की सारी चल-अचल संपत्ति क़ानूनी रूप से पति और पत्नी दोनों के नाम करना;

(3) महिलाओं को राजनैतिक तौर पर सशक्त बनाने के लिए उन्हें निचले स्तर से लेकर ऊपर तक के राजनैतिक संस्थानों में 10 साल तक 50 प्रतिशत आरक्षण देना और उसमें 10 प्रतिशत गरीबी रेखा से नीचे वालों को देना;

(4) महिलाओं को सांस्कृतिक तौर पर सशक्त बनाने के लिए उन्हें उचित शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, आबादी के नियंत्रण और पर्यावरण प्रबंधन में कारगर भूमिका, गरीबी रेखा से नीचे वालों को मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया करवाने के अलावा विवाह की आयु सीमा बढ़ाना; और

(5) महिलाओं को घरेलू तौर पर सशक्त बनाने के लिए घरेलू हिंसा कानून बनाना, जिसमें वैवाहिक बलात्कार की अवधारणा को शामिल करके महिला को वैवाहिक घर का अधिकार मिले, और मौजूदा विवाह कानूनों में पत्नी के यौन शोषण को दंडनीय अपराध बनाना.

समान नागरिक संहिता का स्त्री-पुरुष की समानता से कोई ज्यादा लेना-देना नहीं है. इसका मतलब सिर्फ बहुविवाह पर बंदिश लगाना और तलाक के लेने-देने को आसान बनाना है. महिलाओं को राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और घरेलू तौर पर सशक्त बनाए बिना, अकेला यह अधिकार कोई ज्यादा काम का नहीं है. हिंदू विवाह अधिनियम का करीब 70 साल का अनुभव यही बताता है.

अलबत्ता अब समान नागरिक संहिता को ऐसा उपाय माना जाने लगा है, जिसके जरिये मुस्लिम अल्पसंख्यकों से उनकी धार्मिक पहचान छीनी जा सकती है. जाहिर है, इसे भावनात्मक मुद्दा बना दिया गया है, इसलिए इस पर पूरी तरह राष्ट्रीय बहस किए जाने और इससे सावधानी के साथ निबटने की जरूरत है.

इस संबंध में कोई भी फैसला जबरदस्ती करके नहीं बल्कि समझा-बुझाकर लिया जाना चाहिए. और किसी सार्थक बातचीत के लिए उचित माहौल की जरूरत होती है. कोई भी न्यायसंगत व्यक्ति यह नहीं मान सकता कि मौजूदा स्थिति ऐसी बातचीत के माफिक है. जाहिर है, इस तरह की विस्फोटक स्थिति में, जब अल्पसंख्यकों में अपने निजी जीवन और धार्मिक पहचान को लेकर असुरक्षा की भावना व्याप्त है, किसी भावनात्मक मुद्दे पर चर्चा शुरू करना ठीक नहीं है.

समान नागरिक संहिता की एकमात्र बुनियाद वह स्थिति है, जहां सभी अल्पसंख्यक अपने भविष्य को लेकर सुरक्षित महसूस करें. अल्पसंख्यकों की हर चिंता का समाधान आपसी सहमति से किया जाए. बहुसंख्या का थोपा गया कोई भी फैसला अल्पसंख्यकों में दूरियां ही पैदा करता है. दरअसल, अल्पसंख्यकों में सुधार का कोई भी आंदोलन समुदाय के भीतर से ही शुरू होना चाहिए. किसी भी सरकारी संस्थान को इस मामले में जल्दबाजी से काम नहीं लेना चाहिए.  

 

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