देश में लड़कियों और महिलाओं के लापता होने की बढ़ती घटनाएं
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दुनिया के लिए एक और गंभीर चेतावनी आई है. अब ग्लोबल वॉर्मिंग अगली मंजिल की तरफ कदम बढ़ा चुकी है. और यह चेतावनी खुद संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने दी है. उन्होंने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि "ग्लोबल वॉर्मिंग का दौर समाप्त हो गया है और अब हमारी धरती ग्लोबल बॉयलिंग के दौर में दाखिल हो गई है." गुटेरेस का यह बयान वृहस्पतिवार को वैज्ञानिकों की इस घोषणा के बाद आया कि पिछले तीन हफ्ते दुनिया में अभी तक के सबसे गरम हफ्ते रहे हैं और जुलाई का महीना अभी तक का सबसे गरम महीना बनने की राह पर है.
गुटेरेस ने कहा, "मनुष्यजाति बहुत ही मुश्किल स्थिति में है. उत्तरी अमेरिका, एशिया, अफ्रीका और यूरोप के ज्यादातर हिस्से अभी भयंकर गरमी से जूझ रहे हैं. समूची दुनिया के लिए आपदा आ गई है... यह स्थिति भविष्यवाणियों और बार-बार दी गई चेतावनियों के ऐन मुताबिक आई है. अप्रत्याशित बात तो यह है कि बदलाव बहुत तेजी से आया है. जलवायु बदलाव हो गया है. यह खौफनाक बदलाव है. और यह तो महज शुरुआत है. ग्लोबल वॉर्मिंग का दौर समाप्त हो गया है और अब हमारी धरती ग्लोबल बॉयलिंग के दौर में दाखिल हो गई है."
गुटेरेस ने राजनैतिक नेताओं से तुरंत हरकत में आने का अनुरोध किया. उनका कहना था, "हवा सांस लेने लायक नहीं बची है, गरमी असहनीय हो गई है और जीवाश्म ईंधन से मुनाफा कमाना और जलवायु बदलाव को रोकने के लिए कुछ न करना, अस्वीकार्य है. नेताओं को आगे आना चाहिए. अब कोई झिझक या बहाना नहीं चलेगा, न ही यह चलेगा कि पहले दूसरे लोग कुछ करें. इन सबके लिए अब समय नहीं बचा है."
अंत में उन्होंने कहा, "दुनिया में बढ़ते तापमान को (औद्योगिक युग से पहले के तापमान से) 1.5 डिग्री सेल्सियस से ऊपर जाने से रोकना और जलवायु बदलाव के बदतरीन प्रभावों से बच पाना अभी भी संभव है. लेकिन उसके लिए इस दिशा में तेजी से काम करना होगा. इस सिलसिले में कुछ प्रगति भले ही हुई है, लेकिन वह नाकाफी है. तेजी से बढ़ता तापमान, तेजी से कुछ करने का तकाजा करता है."
इस रिपोर्ट से हमें आभास मिलता है कि हमारे देश के ज्यादातर निर्वाचित जन प्रतिनिधियों का किरदार किस तरह का है, हालांकि उनके केवल दो पक्षों का ही इसमें जिक्र है. एक तो यह कि आपराधिक मामलों के लिहाज से उनका क्या रिकॉर्ड है, और दूसरा यह कि धन-संपत्ति के हिसाब से उनकी क्या स्थिति है. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की हाल ही की इस रिपोर्ट में जन प्रतिनिधि के रूप में संदर्भ केवल विधायकों का है, और उसमें दिए गए सारे आंकड़े विधायकों के हालिया चुनाव लड़ने से पहले भारत निर्वाचन आयोग में दाखिल किए गए उनके हलफनामों से लिए गए हैं.
इसमें बताया गया है कि देश की विधानसभाओं में करीब 44 फीसदी प्रतिनिधियों यानी कोई 1,760 विधायकों ने खुद पर बने आपराधिक मामले होने की घोषणा की है. उनमें भी लगभग 28 फीसदी यानी 1,136 विधायकों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले हैं, जिनमें हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण और महिलाओं के खिलाफ अपराध से संबंधित आरोप शामिल हैं.
इसी तरह, विधायकों की संपत्ति के आंकड़े भी संकलित किए गए हैं. राज्य विधानसभाओं में प्रति विधायक औसत संपत्ति 13.63 करोड़ रु. पाई गई. लेकिन खुद पर आपराधिक मामले होने की घोषणा करने वाले विधायकों की औसत संपत्ति जहां 16.36 करोड़ रु. से अधिक है, वहीं ऐसे विधायकों की, जिन पर कोई आपराधिक मामला नहीं है, औसत संपत्ति 11.45 करोड़ रु. है. जिन विधायकों का विश्लेषण किया गया, उनमें से 2 फीसदी यानी 88 विधायक अरबपति पाए गए, जिनके पास 100 करोड़ रु. से अधिक की संपत्ति थी.
उक्त विश्लेषण एडीआर और नेशनल इलेक्शन वॉच (एनईडब्ल्यू) ने 28 राज्य विधानसभाओं और दो केंद्रशासित प्रदेशों के 4,033 विधायकों में से 4,001 विधायकों के हलफनामों के आधार पर किया है. वैसे तो देश के 28 राज्यों और तीन केंद्रशासित प्रदेशों के कुल मिलाकर 4,123 विधायक हैं जिनमें जम्मू-कश्मीर विधानसभा की 90 सीटें फिलहाल खाली हैं.
खुद पर बने आपराधिक मामलों की घोषणा करने वाले विधायकों में सबसे ज्यादा प्रतिशत केरल का है, जहां 135 में से 95 यानी 70 फीसदी विधायक ऐसे पाए गए. इसी तरह, बिहार के 242 में से 161 (यानी 67 फीसदी), दिल्ली के 70 में से 44 (यानी 63 फीसदी), महाराष्ट्र के 284 में से 175 (यानी 62 फीसदी), तेलंगाना के 118 में से 72 (यानी 61 फीसदी), और तमिलनाडु के 224 में से 134 (यानी 60 फीसदी) विधायकों ने अपने-अपने हलफनामे में खुद पर आपराधिक मामले होने की घोषणा की है.
इसके अलावा, रिपोर्ट बताती है कि दिल्ली के 70 में से 37 (यानी 53 फीसदी), बिहार के 242 में से 122 (यानी 50 फीसदी), महाराष्ट्र के 284 में से 114 (यानी 40 फीसदी), झारखंड के 79 में से 31 (यानी 39 फीसदी), तेलंगाना के 118 में से 46 (यानी 39 फीसदी), और उत्तर प्रदेश के 403 में से 155 (यानी 38 फीसदी) विधायकों ने घोषणा की है कि उन पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं.
रिपोर्ट में महिलाओं के खिलाफ अपराधों से संबंधित चिंताजनक आंकड़े भी सामने आए. इसमें बताया गया है कि आश्चर्यजनक रूप से 114 विधायकों ने घोषणा की है कि उन पर महिलाओं के खिलाफ अपराध से संबंधित मामले हैं. इनमें 14 विधायकों ने विशेष रूप से खुद पर बलात्कार (आइपीसी की धारा 376) से संबंधित मामले होने की घोषणा की है.
धन-संपत्ति के मामले में सबसे ज्यादा अमीर कर्नाटक के विधायक हैं, जहां 223 विधायकों में से 32 (यानी 14 फीसदी) अरबपति हैं. इसके बाद क्रम में अरुणाचल प्रदेश है, जिसके 59 में से 4 (यानी 7 फीसदी) और आंध्र प्रदेश के 174 में से 10 (यानी 6 फीसदी) विधायक अरबपति हैं. महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, गुजरात और मध्य प्रदेश में भी 100 करोड़ रु. से अधिक की संपत्ति के मालिक विधायक हैं.
एडीआर की रिपोर्ट में सबसे अधिक और सबसे कम औसत संपत्ति वाले राज्यों की गणना भी की गई है. इसमें कर्नाटक अव्वल स्थिति में है, जिसके 223 विधायकों की औसत संपत्ति 64.39 करोड़ रु. है. इसके बाद आंध्र प्रदेश के 174 विधायकों की 28.24 करोड़ रु. और महाराष्ट्र के 284 विधायकों की 23.51 करोड़ रु. औसत संपत्ति है. इसके बरक्स, सबसे कम औसत संपत्ति त्रिपुरा के 59 विधायकों की 1.54 करोड़ रु., पश्चिम बंगाल के 293 विधायकों की 2.80 करोड़ रु. और केरल के 135 विधायकों की 3.15 करोड़ रु. है.
न्यूटन ने गति यानी हरकत को लेकर जो तीन नियम प्रतिपादित किए, उनमें तीसरा नियम यह है कि "हर क्रिया की एक समान और विपरीत प्रतिक्रिया होती है." भारत में भी विज्ञान के क्षेत्र में ऐसा कोई नियम तो प्रतिपादित नहीं हुआ है, लेकिन कर्म का सिद्धांत मानने वाले धार्मिक लोग कहते हैं कि कर्म का फल हर किसी को भोगना पड़ता है.
यह फल किसी ने भोगा है या नहीं, कोई नहीं बता पाता. अलबत्ता किसी क्रिया की एक समान और विपरीत प्रतिक्रिया होते बहुत लोगों ने कई बार देखी है. ऐसी ही कुछ विपरीत प्रतिक्रिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ भी होती दिख रही है, जिन्हें उनके अनुयायी "भारत में अभी तक हुआ सबसे मजबूत प्रधानमंत्री" बताते नहीं अघाते.
तो बात कुछ ऐसी है कि मोदी आजकल "मौन मोदी" हो गए हैं. वजह: 2020-21 के दौरान जब देश भर के किसान संसद के पारित तीन कृषि अधिनियमों के खिलाफ दिल्ली में आंदोलन कर रहे थे तो मोदी ने ख़ामोशी ओढ़कर एक मिसाल कायम की थी, और अब वे कई महीनों से कभी अडानी, कभी बृजभूषण सिंह और कभी मणिपुर को लेकर कुछ कहने से कतराते आ रहे हैं. इन मामलों में उन्होंने एकदम मौन धारण कर रखा है.
इस साल के शुरू में जब इक्विटी, क्रेडिट और डेरिवेटिव्स मार्केट के आंकड़ों का विश्लेषण करने वाली अमेरिका की वित्तीय शोध कंपनी हिंडनबर्ग ने अपनी रिपोर्ट में आरोप लगाया गया कि मोदी के मित्र गौतम अदाणी का समूह दशकों से शेयरों के हेरफेर और अकाउंट की धोखाधड़ी में शामिल है, तो तूफ़ान मच गया था, जिसका खामियाजा अदाणी समूह को शेयर बाजार में अपना मूल्य आधा रह जाने के रूप में भुगतना पड़ा था. इस मुद्दे को लेकर संसद में भी हंगामा खड़ा हुआ था. लेकिन इस पर मोदी बिल्कुल कुछ नहीं बोले.
इसी तरह, उन्हीं दिनों भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष बृजभूषण सिंह पर महिला पहलवानों के साथ कथित यौन दुराचार का आरोप लगाने वाले आला दर्जे के अनेक पहलवान जब उक्त भाजपा सांसद के खिलाफ कार्रवाई की मांग को लेकर सड़कों पर उतर आए और लगभग पांच माह तक आंदोलन में डटे रहे तो मोदी ने तब भी इस मामले में कुछ नहीं कहा.
इस बीच, नफरत के ज़हरीले एजेंडा के चलते मणिपुर दो मूल निवासी समुदायों की आग में जल उठा और उसकी लपटें उठते आज तीसरा महीना गुजर रहा है, लेकिन "पचास करोड़ की गर्लफ्रेंड", "सवा सौ साल की बुढ़िया", "मामा के घर से लाए थे क्या" अथवा "कांग्रेस की विधवा" जैसी अनेक अनियंत्रित टिप्पणियां करने वाले मोदी उस राज्य में हो रहे खून-खराबे की निंदा करना तो दूर, प्रधानमंत्री के रूप में लोगों से शांति बनाए रखने की अपील भी नहीं कर पा रहे हैं.
स्मरण हो कि ये वही मोदी हैं, जिन्होंने 2014 के चुनाव प्रचार के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर चुटकी लेते हुए उन्हें "कमजोर" और बेजुबान" प्रधानमंत्री जैसे विशेषणों से नवाजा था. चुनाव सभाओं में वे उपहास उड़ाते हुए उन्हें अक्सर "मौनमोहन" सिंह नाम से संबोधित किया करते थे. उनका सवाल हुआ करता था कि "मौनमोहन" सिंह जी ने महंगाई जैसे मुद्दों पर चुप्पी क्यों साध रखी है.
सो, विपरीत प्रतिक्रिया के नियम अथवा कथित "कर्म सिद्धांत" ने क्या मोदी को भी आ घेरा है? और वे मौन की चादर ओढ़कर "मौन मोदी" बनने को मजबूर हो गए हैं?
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"हम बेहद आर्थिक नाबराबरी के दौर से गुजर रहे हैं. 25 साल में पहली बार हद से ज्यादा गरीबी और बेअंदाज दौलत, दोनों ही तेजी से और एक साथ बढ़ी हैं. दुनिया में नाबराबरी 2019 और 2020 के बीच जिस कदर तेजी से बढ़ी, उतनी दूसरे विश्व युद्ध के बाद कभी नहीं बढ़ी थी.
"दुनिया की आबादी में सबसे अमीर 10 फीसदी व्यक्ति आज दुनिया में हो रही आमदनी का 52 फीसदी हिस्सा पा रहे हैं, जबकि सबसे गरीब आधी आबादी इसका 8.5 फीसदी ही कमा पाती है. अरबों लोगों को भोजन की ऊंची और बढ़ती कीमतों के साथ-साथ भूख जैसी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है, जबकि अरबपतियों की संख्या पिछले दस साल में दोगुनी हो गई है."
यह शब्द किसी राजनैतिक पार्टी के घोषणापत्र या बयान से नहीं लिए गए हैं, बल्कि उस खुली चिट्ठी के अंश हैं जो 67 देशों के 236 वरिष्ठ अर्थशास्त्रियों ने संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस और विश्व बैंक के अध्यक्ष अजय बंगा के नाम भेजी है. इस चिट्ठी को नोबल पुरस्कार विजेता एवं कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर जोसेफ स्टिग्लिट्ज़ और यूनिवर्सिटी ऑफ मैसाचुसेट्स एमहर्स्ट में प्रोफेसर जयती घोष ने लिखा है और इसमें अनुरोध किया गया है कि दोनों महानुभाव दुनिया भर में व्याप्त "बेहद नाबराबरी" को कम करने की दिशा में काम करें.
अर्थशास्त्रियों के इस समूह ने कहा है कि बेहद नाबराबरी हमारे सामाजिक और पर्यावरण संबंधी सभी लक्ष्यों को खोखला करेगी. यह हमारी राजनीति को खा जाएगी, हमारे भरोसे को तोड़ देगी, हमारी सामूहिक आर्थिक समृद्धि में बाधा डालेगी और बहुपक्षीय संबंधों को कमजोर करेगी. उन्होंने चेतावनी दी है कि दुनिया में अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई से अगर नहीं निबटा गया तो गरीबी अधिक बढ़ेगी और जलवायु संकट का खतरा अधिक बढ़ जाएगा.
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एक हफ्ते से ऊपर हो गया दुनिया के औसत तापमान को लेकर मेरी एक पोस्ट के बारे में जिक्र करते हुए एक मित्र ने बातचीत में मुझसे पूछा कि मौसमविज्ञानी सारी दुनिया का औसत तापमान कैसे नाप लेते हैं और फिर एक दिन में अगर दुनिया का औसत तापमान 0.17° या 0.05° सेल्सियस बढ़ भी जाता है तो कौन-सी आफत आ जाती है. दोनों सवाल एकदम उपयुक्त थे और किसी भी व्यक्ति के लिए इनके बारे में जानना स्वाभाविक है.
पहला सवाल: दुनिया का औसत तापमान कैसे नापते हैं?
दरअसल, हम जिसे औसत तापमान कहते हैं, भू-विज्ञान की दृष्टि से वह दुनिया में धरातल का औसत तापमान है. इसकी गणना समुद्र की सतह पर तापमान और धरती पर हवा के तापमान का औसत लगाकर की जाती है. धरती के तापमान की पूरी तस्वीर पाने के लिए वैज्ञानिक धरती के ऊपर की हवा और जहाजों, समुद्री यंत्रों और कभी-कभी उपग्रहों से एकत्र किए गए समुद्री सतह के तापमान को जोड़ते हैं.
धरती और महासागर के हर स्टेशन पर तापमान की तुलना रोजाना उस जगह में और उस समय पर रहने वाले 'सामान्य' तापमान से की जाती है और अमूमन 30 साल की अवधि का उनका दीर्घकालिक औसत निकाला जाता है. उसमें अगर अंतर आए तो वैज्ञानिक अंदाजा लगाते हैं कि तापमान समय के साथ किस तरह बदल रहा है या बदल गया है.
अगर अंतर बढ़ जाए तो उसका मतलब है तापमान दीर्घकालिक औसत से ज्यादा गरम है. अगर अंतर कम हो जाए तो उसका मतलब तापमान औसत से ठंडा है. रोजाना जो अंतर आता है, उसे जोड़कर पूरे महीने का औसत निकाला जाता है और फिर उनका इस्तेमाल मौसम-दर-मौसम और साल-दर-साल तापमान संबंधी अंतर निकालने के लिए किया जाता है.
दूसरा सवाल: औसत तापमान में मामूली वृद्धि से क्या आफत आएगी?
इसमें सबसे पहले जरूरी है कि औसत तापमान को किसी जगह का सामान्य तापमान समझने की गलती न करें. किसी जगह के सामान्य तापमान में एक दिन में ही खासा अंतर आ सकता है. लेकिन औसत तापमान में मामूली वृद्धि ही जलवायु में बहुत बड़े बदलाव का कारण बन जाती है.
हम 1880 के दशक से, जबसे मनुष्य ने तापमान का रिकॉर्ड रखना शुरू किया, हर दशक में औसत तापमान में आए बदलाव पर नजर डालें. तब दुनिया का औसत तापमान 13.73° सेल्सियस था. उसमें 1890 वाले दशक तक पहुंचते-पहुंचते 0.02° से. की बढ़ोतरी हो गई. 1970 का दशक आते-आते यानी 90 साल के दौरान यह बढ़ोतरी 0.27° से. तक जा पहुंची थी. 2010 वाले दशक के अंत तक यह वृद्धि 0.97° से. हो चुकी थी और औसत तापमान 14.70° से. था.
दुनिया तब सावधानी की मुद्रा में तो थी ही, लेकिन उसके बाद जलवायु में बदलाव को उसने संकट के रूप में लेना शुरू किया. रिकॉर्ड में 2010 का दशक अभी तक का सबसे गरम दशक रहा है. 2015 से लेकर 2022 तक के आठ साल में तो गरमी शिखर पर पहुंच चुकी है.
एक सदी में तापमान मात्र कोई 1° से. बढ़ने से ही नतीजा यह हुआ कि क्षेत्रवार और मौसमवार तापमान हदें पार करने लगा है, समुद्र ज्यादा गरम होने से उनकी सतह ऊंची उठ गई है और तटवर्ती इलाके पानी में डूब गए है, प्रचंड तूफानों की संख्या बढ़ गई है, कहीं सूखा पड़ने की गति में तेजी आई है तो कहीं भारी बारिशें होने लगी है, पौधों और जानवरों के रिहायशी इलाके कहीं सिकुड़ने तो कहीं बढ़ जाने, और दुनिया भर में इंसानों की बस्तियां तबाह होने से उनकी जातियों-प्रजातियों की संख्या घट गई है, वगैरह-वगैरह.
संयुक्त राष्ट्र द्वारा मौसम परिवर्तन को लेकर गठित दल, आइपीसीसी के मुताबिक़, अगर दुनिया में तापमान में बढ़ोतरी होती गई तो नीचे दिए परिणाम हो सकते हैं:
समुंदर के पानी की बढ़ती सतह के चलते कोई 25-30 साल बाद एशिया-प्रशांत क्षेत्र में लगभग 1 अरब लोग प्रभावित होंगे; मुंबई, ढाका, बैंकाक, हो ची-मिन्ह सिटी, जकार्ता और शंघाई जैसे शहरों के डूबने का खतरा है; ब्रिटेन और यूरोप अत्यधिक बारिश की वजह से भयानक बाढ़ की चपेट में आ जाएंगे; मध्य-पूर्व के देश अत्यधिक गर्मी की लहरों और व्यापक सूखे का अनुभव करेंगे; प्रशांत क्षेत्र के द्वीप देश समुद्र में डूब सकते हैं; कई अफ़्रीकी देशों को सूखे और भोजन की कमी का सामना करना पड़ सकता है; पश्चिमी अमेरिका में सूखे की स्थिति होने की संभावना है, जबकि अन्य इलाकों में ज़्यादा तीव्र तूफ़ान देखने को मिलेंगे; ऑस्ट्रेलिया में अत्यधिक गर्मी और जंगल की आग से मौतें होने की संभावना होंगी.
ऐसे में जाहिर है कि औसत तापमान में मामूली वृद्धि भी होने से बरसों बाद उसका नतीजा आफत आने में ही निकलता है.