पिता को पुत्र की श्रद्धांजलि
आज मेरे पिता श्री आर.पी. सराफ को हमसे बिछड़े एक साल और गुजर गया. सन 2009 में आज के दिन ही उनका देहांत हुआ था.
वे सारी उम्र ऐसे ही काम करते रहे हैं, जिनमें उनका
वस्तुतः विश्वास था कि वे सही हैं. उनकी आस्थाएं कच्ची
नहीं बल्कि बहुत पक्की तरह की थीं. जिस बात को भी वे सही
मानते थे, उस पर अमल करने में कभी पीछे नहीं रहते थे. लेकिन
जो बात उन्हें गलत लगती थी, उसका जी-जान से विरोध करने में भी
उन्होंने कभी परहेज नहीं किया.
आर.पी.
सराफ जन उद्देश्यों के प्रति हमेशा एक समर्पित कार्यकर्ता रहे और अंतिम दम तक
इस काम को पूरा करने में लगे रहे. उनका अंतिम लक्ष्य तो पूरी मानवजाति को नेचर-ह्यूमन सेंट्रिक विचारधारा की ओर मोड़ना था. उनका
मानना था कि आज दुनिया में एक ऐसा कार्पोरेट निजाम कायम
है, जिसकी फितरत पूरी मानवजाति और प्रकृति के खिलाफ है और उसका
काम पर्यावरण तथा समूचे जैव जगत के विरुद्ध जाकर सिर्फ और सिर्फ पूंजी का प्रबंध
करना है. इस निजाम के दोनों मॉडलों को--कार्पोरेट जगत की अगुआई में पूंजीवादी मॉडल
और सरकार की सरपरस्ती में "समाजवादी" मॉडल--को वे पूंजीवादी व्यवस्था
के हितों को ही पूरा करने वाला मानते थे. उक्त दोनों मॉडलों को
उन्होंने आज की दुनिया में अप्रासांगिक
मानते हुए ऐसी व्यवस्था बनाने का नजरिया पेश किया जो पूंजी के प्रबंध की जगह प्रकृति और मानवजाति के प्रबंध को प्राथमिकता
देता हो.
और
तात्कालिक तौर पर आर.पी. सराफ सार्क देशों के अवाम को इस विचारधारा के इर्दगिर्द जुटाने के लिए कार्य कर
रहे थे और चाहते थे कि इसके लिए सार्क देशों के हमख्याल
संगठनों का एक सम्मेलन आयोजित करें. इस दिशा में वे
कामयाब भी हुए और 21-25 जून 2009 को
ऐसा एक सम्मेलन राजस्थान के
श्रीगंगानगर में रखा भी गया था, लेकिन वह दिन आया ही था कि
उनके स्वास्थ्य ने साथ नहीं दिया और वे सम्मलेन में शामिल नहीं हो पाए. उसके तीसरे दिन रात को वे सोये तो सुबह उठ नहीं पाए. और सम्मलेन बीच में ही
समाप्त करना पड़ा.
अपने
15 साल के
पूर्व सार्वजनिक जीवन में (1970-1985) मुझे ज्यादातर अपने पिता के साथ काम करने और
रहने का अवसर मिला और मैंने उनसे इतना कुछ सीखा है कि
चंद लफ्जों में उसे बयान नहीं किया जा सकता. सार्वजनिक
जीवन छोड़ देने के बाद कई मामलों में उनसे सहमत न होने
के बावजूद भी उनके जीवन और कार्यों का मुझ पर इस कदर
गहरा असर है कि मुझे उनकी कमी लगातार महसूस होती है और जैसे-जैसे मेरी उम्र बढ़ रही
है यह कमी और गहरी होती जा रही है.
आर.पी.
सराफ के पीछे उनकी नेचर-ह्यूमन सेंट्रिक विचारधारा को मानने वालों के लिए फिलहाल मैं एक ही बात कहना चाहूंगा.
वह
यह कि कोई विचारधारा किसी व्यक्ति विशेष से जुड़ी हुई होने के बावजूद किन्हीं
परिस्थितियों और किसी दौर की देन होती है. और परिस्थितियों के लगातार बदलते जाने से उसमें भी धीरे-धीरे संख्यात्मक बदलावों के साथ
उसके विकास की जरूरत पड़ती है. इसके अलावा, विचारधारा की परख अलग-अलग परिस्थितियों में होती है, जिसके लिए
बदलते घटनाक्रम का लगातार मूल्यांकन जरूरी हो जाता है.
याद करें कि आर.पी. सराफ के सार्वजनिक जीवन के हर
दौर में विचारधारा विशेष का कोई अखबार या पत्रिका ही उनके साथियों का रैलिंग पॉइंट रही है. इस कड़ी में जम्मू संदेश अखबार या
व्यूपॉइंट नामक विभिन्न पत्रिकाओं के योगदान से कौन
इनकार कर सकता है. लेकिन 24 जून 2009 के बाद सांबा की नदी बसंतर में कितना ही पानी बह गया होगा और कितने ही घटनाक्रम संपूर्ण हो चुके हैं और कितने ही हो
रहे या होने वाले होंगे. इन सभी के मूल्यांकन के लिए नेचर-ह्यूमन
सेंट्रिक विचारधारा पर आधारित किसी पत्रिका की सख्त
जरूरत है जो लगातार निकलती रहे और जिसमें अनुभवी साथी चल रहे घटनाक्रमों का मूल्यांकन करें और उक्त
विचारधारा के विकास में योगदान दें. अगर ऐसा सिलसिला शुरू नहीं किया जाए तो किसी भी विचारधारा का हश्र खड़े पानी जैसा होना तय है.
इस
दिशा में जितनी जल्दी हो, कुछ प्रयास किए जाएं तो बेहतर है और आर.पी.
सराफ के प्रति यही हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
ओम
सराफ
24 जून 2013
