रिसर्च से कोई विचारधारा फलती-फूलती है
जरूरी है रिसर्च
हकीकत (रियल्टी / वास्तविकता) जानने में लगे लोगों के लिए जरूरी है कि वे प्रकृति और समाज के बारे में हमेशा नए तथ्यों की खोज में जुटे रहें. वजह यह है कि नए तथ्यों की मदद से ही वे प्रकृति और समाज से जुड़े किसी नए घटनाक्रम का अध्ययन कर सकते हैं और उसे समझ सकते हैं. पल-पल बदलती हकीकत के चलते ही ये अनगिनत घटनाक्रम और उनके अपने-अपने नियम लगातार विकसित होते हैं और खुद को नए बदलावों के अनुसार ढालते रहते हैं. अलग-अलग तरीकों से ही सही, प्रकृति और समाज से जुड़े सभी प्रकार के घटनाक्रम चूंकि अस्तित्व, गति और बदलाव की प्रक्रियाओं में से गुजरते हैं इसलिए नित नए तथ्यों को तलाशना जरूरी हो जाता है.
अगर नेचर-ह्यूमन सेंटरिक पीपुल्स मूवमेंट (एनएचसीपीएम) प्रकृति और उसके एक अंग के रूप में मानव समाज को लेकर बहुत-सी अवधारणाओं के बारे में स्पष्ट रुख अपना पाया है तो उसका अत्यधिक श्रेय उस रिसर्च को जाता है जो कॉमरेड आर.पी. सराफ ने अपने जीवन के अंतिम 28-29 वर्ष के दौरान की. यह सही है कि इस रिसर्च में बहुत-से दूसरे साथियों का भी खासा योगदान रहा, जो कॉमरेड सराफ के साथ सैद्धांतिक विचार-विमर्श, वैचारिक आदान-प्रदान अथवा वाद-विवाद में भाग लेते रहे, सांगठनिक तौर पर उनके कंधे से कंधा मिलाकर काम करते रहे और उन्हें लाइब्रेरी से किताबें दिलाने या उनके लिए किताबें लाने-ले जाने, उन्हें अखबार-पत्रिकाएं मुहैया कराने, अथवा उनकी जरूरत की चीजें उपलब्ध कराने वगैरह में मदद करते रहे.
इस सिलसिले में, 1985 के मध्य और 1986 के शुरू में कॉमरेड सराफ के लिखे तीन दस्तावेजों — ‘‘द्वंद्वात्मक अवधारणा को लेकर हमारी मौजूदा समझ’’; ‘‘वास्तविकता के बारे में हमारी अवधारणा’’; और, ‘‘प्रकृति एवं समाज तथा मनुष्य एवं मनुष्य के बीच संबंध’’ — का हवाला दिया जा सकता है, जिन्होंने उनकी आगे की सोच का आधार तैयार किया. यह काम वे प्रकृति और समाज के बारे में रिसर्च और साथियों के साथ सैद्धांतिक विचार-विमर्श, वैचारिक आदान-प्रदान अथवा वाद-विवाद के बिना पूरा नहीं कर सकते थे. इसी को नींव बनाते हुए उनके अनुसंधान का आगे सफर जारी रहा और 1992 के मध्य में उन्होंने ‘‘प्रकृति एवं मनुष्य — वास्तविकता को समझने का प्रयास’’; 1997 के शुरू में ‘‘ऐतिहासिक वास्तविकता को समझने का प्रयास’’; तथा, 2002 की पहली छमाही में ‘‘मानव समाज में बदलाव और विकास को समझने का प्रयास’’ जैसे लेख कलमबंद किए. आखिरी रचना को एक तरह से भारतीय इतिहास के शोध से 1974 में उपजी उनकी मोटी पुस्तक ‘‘द इंडियन सोसाइटी’’ का ही पोस्ट-स्क्रिप्ट माना जा सकता है.
मार्क्सवाद के पुनर्मूल्यांकन के सवाल पर भी उन्होंने बहुत रिसर्च कर 1988 की पहली छमाही में ‘‘नए और पुराने तथ्य मार्क्सवाद के पुनर्मूल्यांकन का तकाजा करते हैं’’ शीर्षक के अंतर्गत कोई 20,000 शब्दों की एक समीक्षा तैयार की थी, जो सन् 2000 के अंत में उनकी विकसित इस अवधारणा का आधार बनी कि ‘‘मार्क्सवाद आर्थिक कट्टरवाद का सिद्धांत है.’’ इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण को समझ पाने की राह में बाधा बने गांधीवाद, आरएसएस के हिंदुत्व और मंडलवाद जैसे विचारों के विरोध में भी उन्होंने शोधपरक लेख लिखे.
यही नहीं, खासी विविधता वाले उनके अनेक लेख रिसर्च का ही परिणाम रहे हैं. मौजूदा विश्व कॉर्पोरेट व्यवस्था और उसके विकल्प के रूप में नेचर-ह्यूमन सेंटरिक एजेंडा को पेश करती उनकी लगभग सभी रचनाओं में तथ्य कूट-कूटकर भरे हैं, जो खोजी नजर से ही ढूंढ़े जा सकते थे. इसी तरह, मनुष्य की भौतिक या क्षेत्रीय समस्याओं से संबंधित लेखों में अथवा फिलॉसफी, अर्थव्यवस्था, कृषि, विज्ञान और अन्य विधाओं से जुड़े लेखों में हर महत्वपूर्ण तथ्य को उन्होंने दर्ज किया और उनके आधार पर अपनी अवधारणाएं बनाईं. और ये उनकी रिसर्च की ही देन है.
इतनी लंबी पृष्ठभूमि देने का अभिप्राय इस बात को लक्षित करना है कि सिद्धांत एवं विचार को विकसित करने के लिए रिसर्च अथवा शोध की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है. नेचर-ह्यूमन सेंटरिक नजरिये के सभी सूत्र इसी खोज से निकले हैं. बहरहाल, रिसर्च पर जोर देते हुए जन कार्य अथवा जन आंदोलनों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता. उनकी भी बीच-बीच में उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका है. किसी सिद्धांत एवं विचार की परख इन्हीं के दौरान होती है.
रिसर्च की गुंजाइश
वैज्ञानिक-तार्किक सोच सिखाती है कि दुनिया में कोई चीज मुकम्मल नहीं होती. कोई सिद्धांत या विचारधारा भले ही व्यक्ति विशेष से जुड़ी होती है, लेकिन वह किन्हीं हालात और किसी खास दौर की उपज होती है. और चूंकि हालात में लगातार तब्दीलियां होती रहती हैं, इसलिए सिद्धांत या विचारधारा में भी धीरे-धीरे बदलाव आते हैं, जिससे उसके विकास की दरकार होने लगती है. कॉ. सराफ ने अपने शोध और अध्ययन के आधार पर प्रकृति-मानव समाज को लेकर जो नतीजे निकाले हैं, उनमें हालांकि कोई गुणात्मक अंतर नहीं आया है, पर उनमें जो मात्रात्मक बदलाव आ रहे हैं, उनका अध्ययन करने और उन्हें दर्ज करने का काम भी बहुत जरूरी है. और यह काम रिसर्च से ही मुमकिन हो सकता है.
और फिर, नेचर-ह्यूमन सेंटरिक नजरिये में कभी ऐसा दावा नहीं किया गया है कि उसके पास किसी चीज का कोई विशुद्ध और खरा लेखा-जोखा मौजूद है. उसने हर जगह खुद को एक ऐसा मॉडल पेश किया है, जो सोच और अमल में उपयोगी हो सकता है. वैज्ञानिक-तार्किक भाव वाली उसकी सोच में हठधर्मिता की कभी कोई जगह नहीं रही है. उसने हमेशा यह स्टैंड लिया है कि चीजों की परख प्रमाण के आधार पर की जानी चाहिए. उसका दृष्टिकोण सदैव यह रहा है कि किसी घटनाक्रम के नए तथ्य तथा नए प्रमाण सामने आने पर वह उसके बारे में पुनर्विचार करने को तत्पर है. और ऐसे नए तथ्य तथा नए प्रमाण मूलत: तभी जुटाए जा सकते हैं जब कोई रिसर्च का काम करे.
कर सकते हैं रिसर्च
जून 2009 तक तो हमारे पास कॉमरेड सराफ के रूप में प्रकृति-मानव समाज से संबंधित गहन रिसर्च करने वाला मौजूद था, लेकिन अफसोस है कि उनके निधन के बाद एनएचसीपीएम में यह काम करने वाला अभी कोई नजर नहीं आ रहा.
वैसे, रिसर्च आज कोई दो दशक पुराने जमाने सरीखी नहीं रह गई है. उस जमाने में बहुत कम लोग थे, जिन्हें रिसर्च की सुविधाएं मयस्सर हुआ करती थीं. किताबें या सामग्री कम मात्रा में मिलती थी और कम ही लोग थे जो लाइब्रेरी का उपयोग कर पाते थे. यही नहीं, बहुत सारे मामले ऐसे भी मिलते हैं, जहां रिसर्च करने वाला अपने रिसर्च कार्य को प्रकाशित नहीं करवा पाता था. ऐसी उपलब्धि संपन्न व्यक्तियों या किसी संगठन से जुड़े व्यक्तियों को ही हासिल हो पाती थी. लेकिन आज इंटरनेट की दुनिया में रिसर्च मुश्किल काम नहीं रह गया है. सूचना के इस युग ने रिसर्च को भी सहज बना दिया है. कार्पोरेट व्यवस्था चाहकर भी सूचना के आदान-प्रदान को रोक नहीं पा रही. आज जो व्यक्ति भी रिसर्च का मन बना ले और जिसके पास इंटरनेट की सुविधा है, उसे रिसर्च से जोड़ा जा सकता है. ऐसा करके कोई संगठन रिसर्च करने वालों की एक पूरी फौज खड़ी कर सकता है.
ऐसा नहीं है कि हमारे पास रिसर्च करने लायक लोग नहीं हैं. रिसर्च करने वाले कोई ऊपर से नहीं टपकते. दरअसल, इसके लिए पहले हमें अपना मन तैयार करना होगा. हममें से हर कोई रिसर्च करने लायक है, बस जरूरत है तो यह समझने की हमें किन विषयों पर रिसर्च करनी है? कौन साथी, किस विषय पर रिसर्च करने में सक्षम तथा सहज है? और किस साथी के पास रिसर्च करने लायक सुविधाएं उपलब्ध हैं.
रिसर्च सेंटर या रिसर्च इंस्टीट्यूट
अब सवाल यह है कि रिसर्च कार्य को संपन्न कैसे किया जाए? यह काम व्यक्तिगत स्तर पर हो या इसके लिए सामूहिक प्रयास किए जाएं? और सामूहिक स्तर पर इसका रूप कौन-सा हो? पहली बात यह है कि रिसर्च सेंटर हो या रिसर्च इंस्टीट्यूट, अपनी परिभाषा के अनुरूप दोनों ही व्यक्तिगत नहीं बल्कि सामूहिक प्रयास का फल होते हैं. और व्यक्तिगत स्तर पर यह कार्य किया भी जाए तो कम उपयोगी साबित हो सकता है. इसलिए सामूहिक प्रयास ज्यादा सार्थक हो सकते हैं.
तो क्या इसके लिए कोई रिसर्च सेंटर स्थापित किया जाना चाहिए या फिर रिसर्च इंस्टीट्यूट? यह कोई नाम का नहीं बल्कि अवधारणा का सवाल है, जो हमारी ठोस परिस्थितियों के अनुरूप होनी चाहिए. रिसर्च इंस्टीट्यूट की अवधारणा एक ऐसी बड़ी, व्यापक इकाई की है जिसके अंतर्गत ज्ञान / अध्ययन के अनेक विषय आते हैं. उधर, रिसर्च सेंटर परस्पर सहयोग पर आधारित एक ऐसा लघु प्रयास है, जिसमें शोध की किसी विशेष गतिविधि पर ध्यान केंद्रित किया जाता है. रिसर्च इंस्टीट्यूट के दायरे में एक या उससे ज्यादा रिसर्च सेंटर आ सकते हैं.
शुरुआत चूंकि हमें बहुत ही छोटे ढांचे से करनी है, जो धीरे-धीरे एक बड़े इंस्टीट्यूट में विकसित हो सकता है, इसलिए पहले हमें रिसर्च सेंटर ही स्थापित करना चाहिए.
रिसर्च सेंटर के बारे में कुछ सुझाव
नाम: रिसर्च सेंटर का नाम आर.पी. सराफ सेंटर फॉर नेचर ऐंड ह्यूमन स्टडीज (आर.पी. सराफ प्रकृति एवं मानव अध्ययन केंद्र) है.
विज़न: हमारे पृथ्वी ग्रह की फितरत और राष्ट्र-राज्यों की परस्पर निर्भरता की मौजूदा सामाजिक वास्तविकता के चलते आज विश्व ‘एक’ हो गया है, यह अवधारणा रिसर्च सेंटर को विज़न (दृष्टि) प्रदान करती है.
मार्गदर्शक नियम: रिसर्च सेंटर लोकतांत्रिक असूलों, कार्यशैली और ढांचे पर आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था के मार्गदर्शक नियम के तहत गठित है.
संचालन तंत्र: रिसर्च सेंटर के सुचारू कामकाज की खातिर यहां काम कर रहे रिसर्चर हर दो साल बाद एक मुख्य संचालक और संचालक मंडल के चार अन्य संचालकों का चुनाव करते हैं. यह 5 सदस्यीय संचालक मंडल संगठन के मुख्य पदाधिकारी (अथवा उसकी नियुक्त सलाहकार समिति) की सलाह से रिसर्च सेंटर का संचालन करता है. संचालकों की पात्रता व्यापक चर्चा के बाद तय की जा सकती है.
कार्य: रिसर्च सेंटर कॉमरेड सराफ की वैज्ञानिक वास्तविकता की अवधारणा के मार्गदर्शन में मुख्य रूप से प्रकृति और मनुष्य से संबंधित विभिन्न तत्वों को लेकर शोध कार्य करता है.
पद्धति: रिसर्च सेंटर प्राकृतिक घटनाक्रमों का अध्येयन तथा उनकी व्याख्या वैज्ञानिक तथ्यों की रोशनी में और सामाजिक विषयों का अध्यरयन तथा उनकी व्याख्या प्रामाणिक जानकारी और डेटा के आधार पर करने की पद्धति अपनाता है. इसके अनुसार, किसी रिसर्च प्रक्रिया की शुरुआत अवलोकन अथवा अध्ययन से होती है, जिसके बाद उसकी व्याख्या या विवेचना के दौरान अनावश्यक को हटाकर आवश्यक जानकारी का चयन करते हुए उपलब्ध डेटा की पहचान की जाती है. मूल स्तर पर वास्तविकता के बारे में तथ्यह डेटा कहलाते हैं. अवलोकन या अध्ययन के आधार पर भी अवधारणाएं बनती हैं, जो अवलोकित या अध्ययन की जा चुकी वास्तविकता की सही मायनों में सीमा तय करती हैं. डेटा और अवधारणाओं का इस्तेमाल सिद्धांत रचना में होता है. सिद्धांत की परख नए प्रमाण की रोशनी में लगातार होती रहती है और अगर उसकी कोई अवधारणा नए तथ्यों से मेल नहीं खाती है तो उसे दुरुस्त कर लिया जाता है.
कोष: रिसर्च सेंटर के लिए फौरी कोष का प्रबंध कॉमरेड सराफ के परिवार से चर्चा करके किया जा सकता है. इसके साथ ही जन साधारण से भी पैसा जुटाने का कार्यक्रम बनाना जरूरी है.
कार्यस्थल: रिसर्च सेंटर के लिए फौरी कार्यस्थल की व्यवस्था भी कॉमरेड सराफ के परिवार से चर्चा करके की जा सकती है. इसके लिए कुछ उप-कार्यस्थल भी अलग-अलग राज्यों में बनाए जा सकते हैं.
विभाग और विषय: फिलहाल रिसर्च सेंटर में दो विभाग बनाए जा सकते हैं — प्रकृति अध्ययन विभाग और मानव अध्यषयन विभाग. दोनों विभागों के तहत विषयों का चयन कुछ विशेषज्ञों और संगठन के प्रमुख कॉमरेडों के साथ व्यापक चर्चा के बाद तय किया जा सकता है.
posted by om saraf @ 11:07 AM
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