Tuesday, August 1, 2023

देश में लड़कियों और महिलाओं के लापता होने की बढ़ती घटनाएं


                                                        चित्र साभार: https://india.postsen.com/

भारत में केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की ओर से महिला सुरक्षा को लेकर कई भारी-भरकम दावे किए जाते रहे हैं. लेकिन देश में महिलाओं के लापता होने की घटनाओं के जो आंकड़े केंद्रीय गृह मंत्रालय ने पिछले हफ्ते संसद में रखे हैं, उनसे यह सवाल खड़ा हो गया है कि: क्या देश में लड़कियां और महिलाएं सुरक्षित हैं? 

मणिपुर, पश्चिम बंगाल, राजस्थान और बिहार में महिलाओं के उत्पीड़न को लेकर देश में अभी चर्चा चल ही रही थी कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के संकलित आंकड़ों को संसद में पेश किया गया. इसमें बताया गया है कि 2019 से 2021 के बीच तीन साल की अवधि के दौरान देश भर में 13.13 लाख से अधिक लड़कियां और महिलाएं लापता हुई हैं. इनमें 18 साल से अधिक उम्र की 10,61,648 महिलाएं और उससे कम उम्र की 2,51,430 लड़कियां थीं.

हैरानगी है कि ताजा आंकड़ों में लापता लड़कियों और महिलाओं की संख्या में इससे पहले के तीन साल यानी 2016 से 2018 के बीच की ऐसी ही संख्या के मुकाबले 224 प्रतिशत यानी करीब सवा दो गुना बढ़ोतरी हुई है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की 2016 से 2018 के बीच लापता महिलाओं संबंधी रिपोर्ट के अनुसार, उस दौरान लापता महिलाओं की संख्या 5.86 लाख से अधिक थी. 

ये लड़कियां और महिलाएं कहां चली गईं? वे जमीन में समा गईं या आसमान में उड़ गईं? यह सवाल पूरे समाज के सामने मुंह बाए खड़ा है. आभास तो शायद सबको है, लेकिन किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंग रही. क्या हमारी ये बहू-बेटियां देश-विदेश में फैले गिरोहों के नर्क में गुम हो गईं अथवा रईसों की कोठियों या फार्महाउसों में खो गईं? ऐसे अपराधों को रोकने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर क्यों कोई पहल नहीं की जाती? 

जाहिर है, बालिकाओं को लेकर मोदी सरकार की ओर से चलाए जा रहे बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, सुकन्या समृद्धि योजना, बालिका समृद्धि योजना, सीबीएसई उड़ान योजना, धनलक्ष्मी योजना सरीखे अनेक प्रोजेक्टों और विभिन्न दलों की राज्य सरकारों की भांति-भांति की योजनाओं के जोरदार दावों के बावजूद वे सभी लड़कियों और महिलाओं को सुरक्षा मुहैया करवा पाने में नाकाम रही हैं. 

संसद को उपलब्ध कराए गए ताजा आंकड़ों के मुताबिक, लापता होने के सबसे अधिक मामले लाडली लक्ष्मी योजना चलाने वाले भाजपा शासित मध्य प्रदेश से मिले हैं, जहां उक्त तीन साल की अवधि में 1,60,180 महिलाएं और 38,234 लड़कियां लापता हो गईं. इसके बाद कन्याश्री प्रकल्प योजना की कर्णधार तृणमूल कांग्रेस शासित पश्चिम बंगाल का नंबर आता है जहां 1,56,905 महिलाएं और 36,606 लड़कियां गायब हुईं. फिर, माज़ी कन्या भाग्यश्री योजना लांच करने वाला महाराष्ट्र है, जहां इस अवधि के दौरान 1,78,400 महिलाएं और 13,033 लड़कियां लापता हुईं. 

इसके बाद, ओडिशा में उक्त तीन साल की अवधि में 70,222 महिलाएं और 16,649 लड़कियां, तथा छत्तीसगढ़ में 49,116 महिलाएं और 10,187 लड़कियां लापता हुईं. केंद्रशासित प्रदेशों में दिल्ली शीर्ष पर रही, जहां 61,054 महिलाएं और 22,919 लड़कियां लापता हुई, जबकि जम्मू-कश्मीर में इस अवधि के दौरान यह आंकड़ा क्रमशः 8,617 और 1,148 रहा. 

स्मरण रहे कि महिलाओं के खिलाफ अपराध का यह सिर्फ एक पहलू है. उसके दूसरे पहलुओं में बलात्कार, दहेज हत्या, पारिवारिक उत्पीड़न, आत्महत्या के लिए उकसाना, गर्भपात कराना, तेजाब से हमला करना सरीखे अनेक संगीन अपराध भी आते हैं. भारत में महिलाओं के प्रति अपराधों की अनेक वजहें हो सकती हैं, लेकिन उसमें प्रमुख वैचारिक और राजनैतिक हैं. 

वैचारिक तौर पर देखें तो समूची कॉर्पोरेट पूंजीवादी व्यवस्था मूलतः पितृसत्ता वाली मानसिकता पर आधारित है, जिसमें धनी और सत्ता से जुड़े कुछ परिवारों की कोई 10 प्रतिशत महिलाओं को छोड़कर बाकी सभी महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले दोयम दर्जे पर रखा जाता है और उन्हें पुरुषों के बराबर अधिकार हासिल नहीं हैं. इनमें शहरी मध्यम और गरीब वर्गों के अलावा गावों के किसान परिवारों की महिलाएं शामिल हैं. 

तर्कसंगत और न्यायोचित लिंग समानता का माहौल बनाने के बजाय कॉर्पोरेट पूंजीवादी व्यवस्था ने खेल, फिल्म प्रदर्शन, सौंदर्य प्रतियोगिताओं वगैरह जैसी सभी प्रकार की गतिविधियों का व्यवसायीकरण कर दिया है, जबकि स्त्री-पुरुष असमानता को दूर करने और महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार देने को लेकर उसने जबानी जमा-खर्च करने का रवैया अपना रखा है. 

दूसरी प्रमुख वजह यह है कि इस व्यवस्था का राजनैतिक प्रबंध करने वाले राजनैतिक दलों में बहुत-से नेताओं पर खुद महिलाओं का उत्पीड़न करने के आरोप दर्ज हैं, इसलिए वे महिलाओं से संबंधित अपराधों की रोकथाम के प्रति गंभीर नहीं हैं. राजनैतिक दलों की यह स्थिति विधायकों पर आपराधिक मामलों को लेकर एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की हाल ही की रिपोर्ट से झलकती है. 

इस रिपोर्ट के अनुसार, देश की विधानसभाओं में करीब 44 फीसदी प्रतिनिधियों यानी कोई 1,760 विधायकों ने खुद पर बने आपराधिक मामले होने की घोषणा की है. आश्चर्यजनक रूप से इनमें 114 विधायक ऐसे हैं जिन पर महिलाओं के खिलाफ अपराध से संबंधित मामले हैं. इनमें 14 विधायकों ने विशेष रूप से खुद पर बलात्कार (आइपीसी की धारा 376) से संबंधित मामले होने की घोषणा की है. एडीआर की ही दिसंबर 2019 की रिपोर्ट में बताया गया था कि 18 सांसदों पर महिलाओं के खिलाफ अपराध से संबंधित मामले हैं. 

महिलाओं के खिलाफ अपराधों को रोकने और स्त्री-पुरुष समानता की तरफ आगे बढ़ने के लिए जरूरी है कि उन्हें सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और घरेलू तौर पर सशक्त बनाने के लिए पहल की जाए. और यह काम नीचे दिए कदम उठाकर ही पूरा किया जा सकता है:

(1) महिलाओं को सामाजिक तौर पर सशक्त बनाने के लिए पितृसत्ता वाली व्यवस्था का खात्मा किया जाए और बच्चे के अभिभावक के रूप में माता-पिता दोनों का नाम लिखे जाने की रीति चलाई जाए;

(2) उन्हें आर्थिक तौर पर सशक्त बनाने के लिए परिवार की सारी चल-अचल संपत्ति क़ानूनी रूप से पति और पत्नी दोनों के नाम करवाई जाए;

(3) उन्हें राजनैतिक तौर पर सशक्त बनाने के लिए निचले स्तर से लेकर ऊपर तक के राजनैतिक संस्थानों में 10 साल तक 50 प्रतिशत आरक्षण दिया जाए, जिसमें 10 प्रतिशत गरीबी रेखा से नीचे वालों के लिए हो;

(4) उन्हें सांस्कृतिक तौर पर सशक्त बनाने के लिए उचित शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, आबादी के नियंत्रण और पर्यावरण प्रबंधन में कारगर भूमिका, गरीबी रेखा से नीचे वालों को मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया करवाने के अलावा विवाह की आयु सीमा बढ़ाई जाए; और

(5) उन्हें घरेलू तौर पर सशक्त बनाने के लिए घरेलू हिंसा कानून बनाया जाए, जिसमें वैवाहिक बलात्कार की अवधारणा को शामिल करके महिला को वैवाहिक घर का अधिकार मिले, और मौजूदा विवाह कानूनों में पत्नी के यौन शोषण को दंडनीय अपराध बनाया जाए.

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