आज
पांचवां श्राद्ध है. हिदी में इसे वैसे पितृपक्ष कहते हैं. पितृपक्ष
यानी पितरों का पखवाड़ा. और पितर हैं हमारे पुरखे अथवा वे पूर्वज जिनका निधन हो
चुका है. साल के इस पक्ष में यानी आश्विन मास के कृष्ण पक्ष या पखवाड़े
के दौरान उन पितरों को याद किया जाता है.
कहा जाता है कि इस दौरान पितरों
की
तृप्ति के लिए उनकी मृत्यु की तिथि पर श्राद्ध करके पितृ ऋण (हमारे सिर पर पितरों का
कर्ज) उतारा जाता है. श्राद्ध में तर्पण, ब्राह्मण भोजन तथा
दान का विधान भी है. लेकिन सोचने की बात है कि इस लोक में आदमी जिन पदार्थों की आहुति अग्नि में दे देता है, वे हमारे पितरों
को कैसे मिलते होंगे?
कहते हैं कि आदमी जब मरता है तो
स्थूल शरीर छोड़कर वह फिर से सूक्ष्म में विराजमान हो जाता है. उस सूक्ष्म
की न कोई
देह होती है, न इंद्रियां.
ऐसे में स्वाभाविक सवाल उठता है कि क्या हमारी उस सूक्ष्म देह को उस पैसे-लत्ते और चीजों की जरूरत
पड़ती है जो श्राद्ध में अर्पित
की जाती हैं? अगर नहीं तो वह उन
चीजों का क्या करती है, उन्हें कहां रखती है? ब्राह्मणों को खिलाया अथवा गऊओं-चिडि़यों-कौवों
को डाला गया भोजन हमारे पितरों को मिल जाता है?
वैसे, अपने पूर्वजों को याद करना अच्छी बात है और यह परंपरा शायद दुनिया के
हर देश में किसी न किसी रूप में है. लेकिन क्या अच्छा हो कि याद करने के साथ हम
अपने पुरखों के सकारात्मक और नकारात्मक अनुभवों से सीखने का प्रयास करें. उन्हें
याद करना तभी सार्थक हो सकता है.




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