Tuesday, August 23, 2016

(विचार-विमर्श के लिए)

व्यवहार में भी वैज्ञानिक वास्तविकता
का नजरिया अपना

n        म सराफ

कॉमरेड आर.पी. सराफ ने अपने नेचर-ह्यूमन सेंट्रिक दृष्टिकोण में न सिर्फ वास्तविकता बल्कि वै‍ज्ञानिक वास्तविकता की अवधारणा को अपनाया है. वास्तविकता का नजरिया चीजों और प्रक्रियाओं को बिना किसी व्याख्या के वैसे ही स्वीकार करता है जैसे वे हकीकत में हैं. दूसरी तरफ, वै‍ज्ञानिक वास्तविकता का नजरिया प्रक्रियाओं को उनकी असली फितरत में जानने, उसके निष्कर्षों की प्रमाणिकता को विज्ञान (प्राकृतिक और सामाजिक दोनों) के नियमों की कसौटी पर परखने तथा चीजों से उनके असली अस्तित्व के अनुरूप व्यवहार करने का पक्षधर है.
आज वै‍ज्ञानिक वास्तविकता के इस नजरिए को दोहराने और उसकी तस्दीक करने की जरूरत इसलिए आ पड़ी है क्योंकि जून 2009 में कॉ. सराफ के निधन के बाद से कुछ नेकनीयत दोस्त बार-बार दावा करते आ रहे हैं कि कॉ. सराफ ने मंथन करके ऐसा समग्र सिद्धांत दे दिया है जो हर लिहाज से मुकम्मल है. वे जोर देते आ रहे हैं कि कॉ. सराफ ने दुनिया-जहान के कमोवेश हर विषय पर लिख रखा है और अब उनके दिए सिद्धांत में कुछ नया जोड़ने की कोई गुंजाइश नहीं है. इससे भी आगे बढ़कर, वे यह मानते आ रहे हैं कि संगठन में कॉ. सराफ की प्रतिभा का कोई सानी नहीं है और इसलिए नेचर-ह्यूमन सेंट्रिक दृष्टिकोण को विकसित करने और उसे सामयिक बनाने के लिए आगे कोई रिसर्च नहीं की जा सकती.
यह सही है कि नेचर-ह्यूमन सेंट्रिक दृष्टिकोण की रचना करने के दौरान एक विलक्षण प्रतिभा के रूप में कॉ. सराफ वैचारिक रूप से किसी प्रॉसेसिंग प्लांट की तरह काम करते रहे जबकि उनकी टीम वैचारिक रूप से असंसाधित सामग्री मुहैया करा रही थी. और फिर, अपनी रिसर्च, अध्‍ययन और अनुभव की बुनियाद पर उन्होंने प्रकृति और मानव समाज को लेकर जो निष्कर्ष निकाले हैं, वे आज भी वैध हैं और उनमें अभी कोई बड़ा गुणात्मक बदलाव नजर नहीं आ रहा है. उन्होंने अपने दृष्टिकोण को दूसरे दृष्टिकोणों से अलग दिखाते हुए निम्नलिखित पांच नई बातें स्पष्ट की हैं.
पहली बात यह है कि मानव समाज में बदलाव और विकास प्रकृति और मनुष्य समुदाय के दो कारकों की वजह से होता है. दूसरी बात, सामा‍जिक बदलाव और विकास एक तरफ प्रकृति तथा मानव समाज के बीच अंतरक्रिया और दूसरी तरफ समाज की विभिन्न मानवीय इकाइयों के बीच अंतरक्रिया से होता है; यह अंतरक्रिया एकता और संघर्ष की दोतरफा गति के रूप में होती है; एकता का नतीजा किसी घटनाक्रम के जुड़ने और संघर्ष का उसके टूटने में निकलता है; गति के दोनों रूप एक समग्र इकाई के दो अंग हैं, जिनमें से एक वक्त में एक प्राथमिक और दूसरा गौण भूमिका में होता है जबकि दूसरे वक्त में उनकी भूमिकाएं पलट जाती हैं. तीसरी बात यह है कि मनुष्यजाति या मनुष्य समुदाय की फितरत जैव-सामाजिक है जबकि प्रचलित सभी दृष्टिकोण मानवीय फितरत को या तो जैविक मानते हैं या सामाजिक. चौथी बात यह है कि प्रकृति की क्रमिक विकास प्रक्रिया से पैदा होने के कारण मानवजाति इस संसार में सर्वोच्च घटनाक्रम नहीं है; धरती पर दूसरे गैर मानवीय घटनाक्रमों के विकास के अपने नियम हैं; मानवजाति केवल दूसरी गैर मानवीय चीजों के साथ अंतरक्रिया करती है जिसमें वह कभी प्राथमिक और कभी गौण भूमिका में होती है. पांचवीं बात यह है कि संसार में कोई चीज परिपूर्ण नहीं होती; हर चीज लगातार बदलाव से गुजर रही है; वह देश-काल (स्थान-समय) विशेष में ही प्रासंगिक है.
लेकिन प्रकृति और मानवजाति के विभिन्न घटनाक्रम चूंकि लगातार बदलावों से गुजर रहे हैं, हालांकि वे अमूमन परिमाणात्मक हैं, इसलिए उनका गहराई से अध्‍ययन करना और उन्हें दर्ज करना बहुत जरूरी है.
आइए हम अपने नेकनीयत दोस्तों के दावे को बदलाव और विकास की अपनी मान्य अवधारणा यानी वै‍ज्ञानिक वास्तविकता के नजरिए की कसौटी पर परखें.
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वै‍ज्ञानिक वास्तविकता का नजरिया मौजूदा या पुराने घटनाक्रमों की समीक्षा या अध्ययन उनकी यथार्थ स्थिति के आधार पर करता है. इसके लिए वह प्राकृतिक विज्ञान के उपलब्ध कराए प्रकृति संबंधी तथ्यों और मनुष्य के ऐतिहासिक और सामाजिक अनुभव से प्राप्त समाज संबंधी तथ्यों को उपयोग में लाता है.
इस हकीकत से अवगत होने की वजह से कि मौजूदा और पुराने घटनाक्रमों की जांच और विश्लेषण उनकी वास्तविक स्थिति के आधार पर किया जा सकता है, हम यथार्थता के प्रति अपनी आखें-कान खुले रखने को प्रतिबद्ध हैं. यह समझना भी जरूरी है कि यह अध्ययन प्रकृति और समाज संबंधी तथ्यों पर आधारित है जो गति और बदलाव की प्रक्रिया में से गुजर रहे अन्य घटनाक्रमों की तरह बदलते और विकसित होते रहते हैं. नए तथ्यों का अध्ययन करने और उन्हें दर्ज करने के लिए इन घटनाक्रमों की खोज करते रहना जरूरी है.
इसलिए यह मान लेना गलत है कि किसी व्यक्ति का, वह चाहे कितना ही प्रकांड विद्वान क्यों न हो, प्रस्तुत किया दृष्टिकोण अपने आप में मुकम्मल होता है. यही बात नेचर-ह्यूमन सेंट्रिक दृष्टिकोण पर लागू होती है, जो समय बीतने के साथ-साथ नए तथ्यों के आधार पर ही विकसित हो सकता है.
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फिर, वै‍ज्ञानिक वास्तविकता के नजरिए की मान्यता है कि संसार में प्रकृति और मानव से जुड़े हर तरह के घटनाक्रम अंतरसंबंधित हैं और अंतरक्रिया करते हैं. उसका यह भी मानना है कि ये घटनाक्रम विभिन्न रूपों में अस्तित्व, गति और बदलाव के एक जैसे असूलों का पालन करते हैं. इस नजरिए के अनुसार, प्रकृति एक ऐसी सामान्य प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत मानवीय प्रजातियों समेत कई तरह की अंतहीन विशेष प्रक्रियाएं चलती रहती हैं. ये सभी प्रक्रियाएं विभिन्न रूपों में विद्यमान होती हैं. यह नजरिया चूंकि मानव समाज को एक ऐसी प्रक्रिया समझता है जिसके अस्तित्व का स्वरूप जैविक है लेकिन रहन-सहन और कामकाज का स्वरूप सामाजिक है, इसलिए वह मनुष्य की फितरत को जैव-सामाजिक मानता है.
दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि संसार में विभिन्न चीजें या प्रक्रियाएं लगातार गतिशील हैं. इस तरह संसार न कभी थकता है और न ‘छुट्टी’ मनाता है. चीजों या प्रक्रियाओं में गति दरअसल उनके अस्तित्व की प्रतीक है. अस्तित्व होने का मतलब गतिशील होना है. ये प्रक्रियाएं अपने-अपने तरीके से चलती हैं और दो या उससे अधिक चीजों के बीच दोतरफा अंतरक्रिया (अंदरूनी और बाहरी दोनों) पर आधारित होती हैं. यह अंतरक्रिया कभी एकता और कभी संघर्ष के जरिए गतिशील होती है.
मसलन, हमारी आंखों को गतिहीन लगते अरबों तारे भयानक तेज रफ्तार के साथ गतिशील हैं. हर तारा एक ऐसा सूर्य है जिसके ग्रहों का अपना चक्र है और जो अपने भीतर और बाहर अन्य तारों के साथ अंतरक्रिया में लगा हुआ है. ये सभी तारे और उनके इर्दगिर्द परिक्रमा कर रहे ग्रह अपनी धुरी के इर्दगिर्द भी घूम रहे हैं और समूची आकाशगंगा को उसकी धुरी के इर्दगिर्द घुमाने में हिस्सा ले रहे हैं. हमारी आकाशगंगा दूसरी आकाशगंगाओं के साथ कभी एकता करके और कभी संघर्ष करके गतिशील है. और सांसारिक परिक्रमा के इस सिलसिले का कोई अंत नहीं है. इस तरह समस्त संसार जुड़ रहा है और टूट रहा है. वह कभी परम संपूर्णता प्राप्त नहीं कर पाता.
और समय के साथ यह अंतरक्रिया जिसमें या तो संगति या असंगति प्रबल होती है, उक्त प्रक्रियाओं के परिमाण और गुण में लगातार आंशिक बदलाव लाती है. नतीजतन, एक ऐसा निर्णायक क्षण आता है जब हरेक पुरानी प्रक्रिया, जिसकी अपनी विशेषताएं होती हैं, एक ऐसी नई प्रक्रिया में बदल जाती है जिसके अपने खास गुण होते हैं. इस मुकाम पर पहुंचकर दोनों प्रक्रियाओं की फितरत अलग-अलग हो जाती है. बदलाव और विकास की हमेशा चलते रहने वाली यह प्रक्रिया मानव समाज समेत हरेक घटनाक्रम में क्रियाशील है.
प्रकृति की एक इकाई होने के कारण मानव प्रजातियां भी अस्तित्व, गति और बदलाव के उन्हीं असूलों का पालन करती हैं. यही बात मानव विचार प्रक्रिया पर लागू होती है, जो अपने अस्तित्व के दौरान गति और बदलाव में से गुजरती है. मानव विचार प्रक्रिया भी लगातार गतिशील चली आई है. यह नए विचारों को आत्मसात करके पुरानों को त्याग देती है या प्रमाणित विचारों को सोखकर अप्रमाणितों को छोड़ देती है और इस तरह नई बुलंदियों पर पहुंचती है.
यहां तक कि नेचर-ह्यूमन सेंट्रिक दृष्टिकोण भी ऐसे समय में विकसित हुआ जब यह स्पष्ट होता गया  कि मार्क्सवाद एकतरफा दृष्टिकोण है और वास्तविकता तथा उसकी विभिन्न प्रक्रियाओं को लेकर प्रस्तुत की जा रही उसकी व्याख्या न तो ‘वैज्ञानिक सचाई’ है, जैसा कि उसके अनुयायी दावा करते हैं, और न ही ‘मिथ्या’ है, जैसा कि उसके विरोधी दलील देते हैं. हमें यह स्वीकार करना पड़ा कि मार्क्सवाद अप्रासंगिक हो गया है. लेकिन वास्तविकता को मान लेने के सिवा कोई चारा नहीं था. आखिर उसका हमेशा यह तकाजा जो रहता है कि हठधर्मिता को नामंजूर किया जाए, चीजों के बारे में राय सबूतों के आधार पर बनाई जाए और ऐसी सभी अवधारणाओं की समीक्षा की जाए जो नए तथ्यों और अनुभवों के साथ टकराने लगती हैं.
यही बात नेचर-ह्यूमन सेंट्रिक दृष्टिकोण पर लागू होती है. इसे हठधर्मी नजरिया नहीं माना जाना चाहिए. अगर आगे कभी रिसर्च या मानवीय सामाजिक व्यवहार में इसकी कुछ अवधारणाएं नए तथ्यों और अनुभवों के साथ टकराने लगें तो हमें सबूतों के आधार पर उन्हें परखने और उनकी समीक्षा करने से डरना नहीं चाहिए.
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आगे, वै‍ज्ञानिक वास्तविकता के नजरिए का कहना है कि संसार में हरेक चीज का अस्तित्व स्थान-समय की सीमाओं के भीतर होता है. इसका मतलब है कि हर चीज का अस्तित्व और विकास किन्हीं परिस्थितियों में प्रासंगिक होता है. 
स्थान-समय की अवधारणा ऐसे समझी जा सकती है: संसार में सभी चीजें एक-दूसरे के मुकाबले अलग-अलग जगहों पर अवस्थित होती हैं और एक या दूसरे घटनाक्रम का हिस्सा होती हैं. स्थान सह-अस्तित्व में रह रही चीजों की व्यवस्था का एक रूप है जहां वे एक-दूसरे के साथ-साथ, बगल में, नीचे, ऊपर, भीतर, पीछे या सामने वगैरह अवस्थित होती हैं और उनके बीच संबंध सांमजस्यपूर्ण होता है या टकराव वाला. हर चीज की या घटनाक्रम की अपनी अवधि होती है, जो उसकी गति और उसके विकास की अवस्थाओं का अनुक्रम बताती है. समय को कुछ मानकों (सेकंड, मिनट, घंटे, दिन, साल, सदी वगैरह) की मदद से ही नापा जा सकता है. समय की अनुभूति घटनाओं के अनुक्रम और अवधि का आकलन करने में सहायक होती है.
ऐसे में हम कह सकते हैं कि हरेक घटनाक्रम और उससे जुड़े नियम किसी खास स्थान और समय में प्रासंगिक होते हैं. इस तरह उनमें से हरेक घटनाक्रम के भीतर और उन घटनाक्रमों में जिनके साथ वह अंतरक्रिया करता है, क्रमिक विकास से बदलाव आते हैं और फिर किसी दूसरे समय और स्थान पर वह घटनाक्रम अप्रासंगिक हो जाता है. दूसरे शब्दों में संसार में हरेक चीज की सापेक्ष ‍फितरत होती है.
इसी तरह हरेक सिद्धांत और विचारधारा किसी व्यक्ति विशेषसे, वह चाहे कितना ही ज़हीन क्यों न हो, जुड़ी होने के बावजूद किन्हीं खास परिस्थितियों और किसी खास दौर की उपज होती है. और परिस्थितियों में बदलाव चूंकि लगातार होते रहते हैं, इसलिए किसी सिद्धांत या विचारधारा में भी धीरे-धीरे बदलाव आते रहते हैं, जिससे उसे विकसित करने की जरूरत पड़ती है. यह बात नेचर-ह्यूमन सेंट्रिक दृष्टिकोण पर भी लागू होती है क्योंकि उसकी ‍फितरत भी सापेक्ष है.
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और आगे, वै‍ज्ञानिक वास्तविकता का नजरिया बताता है कि वास्तविकता चूंकि सदा बदलती रहती है, इसलिए उसके अनगिनत घटनाक्रम और उनके अपने-अपने नियम खुद को नए बदलावों के अनुरूप लगातार विकसित करते और सामयिक बनाते रहते हैं.
जाहिर है, वास्तविकता कभी स्थायी नहीं होती. उसमें हमेशा बदलाव की प्रवृत्ति रहती है. प्रकृति की हर चीज में, हर प्रक्रिया में हर समय कुछ न कुछ बदलाव चलता रहता है. इसी तरह सामाजिक प्रक्रियाओं में भी यही कुछ चलता है. मनुष्य के भीतर और बाहर भी हमेशा बदलाव हो रहा होता है. ऐसे में कोई विचारधारा उन बदलावों से मुक्त कैसे रह सकती है?
नेचर-ह्यूमन सेंट्रिक दृष्टिकोण कहीं आसमान से नहीं टपका है. वह भी इसी मानवीय समाज से उपजा है. जाहिर है, उसने अगर खुद को नए बदलावों के अनुरूप नहीं ढाला तो वह न तो विकसित हो सकता है और न सामयिक बन सकता है.
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इसके और आगे, वै‍ज्ञानिक वास्तविकता का नजरिया उन सभी निरंकुशतावादी, नियतिवादी और कट्टरवादी सिद्धांतों से किनारा करता है, जो प्राकृतिक विज्ञान या समाज विज्ञान अथवा किसी अन्य विद्या की विभिन्न शाखाओं की र से पेश किए गए थे. लेकिन इन सिद्धांतों ने अपने-अपने दौर में जो भी सकारात्मक तत्व आगे लाए, यह नजरिया उन सभी का उपयोग करता है.
उक्त सिद्धांतों से किनारा करने की बात महज इसलिए की गई है कि वे एकतरफा सिद्धांत हैं और किसी घटनाक्रम के मात्र एक ही पक्ष को देखते हैं. इसी तरह, यह दावा कि कॉ. सराफ ने ऐसा समग्र सिद्धांत दे दिया है जो हर लिहाज से मुकम्मल है, इसलिए मानने योग्य नहीं है क्योंकि वह भी एकतरफा है. यह दावा सिद्धांत और व्यवहार को वस्तुत: अलग-अलग खांचों में रखता है, हालांकि मानवीय विचार के रूप में दोनों एक ही घटनाक्रम के दो पक्ष हैं. इनमें से एक पक्ष एक समय में प्राथमिक भूमिका में होता है और दूसरा गौण, जबकि दूसरे समय में उनकी भूमिकाएं पलट जाती हैं.
यही नहीं, यह मानते हुए कि संगठन में किसी व्यक्ति में भी नेचर-ह्यूमन सेंट्रिक दृष्टिकोण को विकसित करने और उसे सामयिक बनाने के लिए आगे रिसर्च करने लायक प्रतिभा नहीं है, यह दावा संगठन की भूमिका को, वह भी कॉ. सराफ की गैरहाजिरी में, महज व्यवहार तक सीमित कर देता है. वह अपने अनुभवों का निष्कर्ष निकालकर बदले में सिद्धांत को समृद्ध बनाने तक नहीं ले जाता.
किसी संगठन में जागरूक व्यक्ति वेदवाक्यों का प्रचार करने वाले धार्मिक प्रचारकों की तरह नहीं होते. वे वैज्ञानिकों की तरह होते हैं जो अपने क्षेत्र में रिसर्च करते हैं, तथ्य जुटाते हैं, उनका विश्लेषण करते हैं, अपनी सोच को अवधारणाओं में बदलते हैं, उनका सूत्रीकरण करते हैं और अंदर तथा बाहर के अपने समकालीनों के साथ अंतरक्रिया करते हुए विभिन्न प्रयासों और गतिविधियों के जरिए सिद्धांत को व्यवहार में ढालते हैं.
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अंत में, इतना ही कहना है कि कॉ. सराफ ने भी कभी दावा नहीं किया है कि नेचर-ह्यूमन सेंट्रिक दृष्टिकोण हर घटनाक्रम का कोई विशुद्ध और खरा लेखा-जोखा प्रस्तुत करता है. उन्होंने हर जगह उसे एक ऐसा मॉडल पेश किया है, जो सोच और अमल में उपयोगी हो सकता है. उनकी वैज्ञानिक-तार्किक भाव वाली सोच में हठधर्मिता की कोई जगह नहीं थी. उन्होंने हमेशा यह स्टैंड लिया कि चीजों की परख प्रमाण के आधार पर की जानी चाहिए. उनका दृष्टिकोण सदैव यह रहा है कि किसी घटनाक्रम के नए तथ्य तथा नए प्रमाण सामने आने पर वे उसके बारे में पुनर्विचार करने को तत्पर हैं. उन्होंने आखिरी दम तक इसी का पालन किया.
लिहाजा अपने नेकनीयत दोस्तों से अनुरोध है कि वे अपने दावों पर पुनर्विचार करें और इस तरह व्यवहार में भी वैज्ञानिक वास्तविकता का नजरिया अपनाएं.

19.08.2016

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