कॉ. रामप्यारा सराफ (1924-2009)
कॉ. रामप्यारा सराफ
(1924-2009)
राजनैतिक जीवन
कॉमरेड रामप्यारा (आर.पी.) सराफ
नेचर-हयूमन
सेंट्रिक पीपुल्स मूवमेंट (प्रकृति-मानव केंद्रित पीपुल्स जनांदोलन) के प्रमुख विचारक और उसके मुखपत्र नेचर-हयूमन सेंट्रिक व्यूपाइंट
के संपादक थे. देशों के एक-दूसरे पर
निर्भर हो जाने और वैश्वीकरण के एक निरंतर सिलसिला बन जाने की वर्तमान दुनिया की मूल
सचाई को देखते हुए उन्होंने प्रकृति-मानव केंद्रित मॉडल के आधार पर इस दुनिया की
सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था को पुनर्गठित करने की आवश्यकता महसूस की.
उनकी विचारधारा के अनुसार, आज दुनिया में एक ऐसी कार्पोरेट व्यवस्था कायम
है, जिसकी फितरत पूरी मानवजाति और
प्रकृति के खिलाफ है और उसका काम पर्यावरण तथा समूचे जैव जगत के विरुद्ध जाकर
सिर्फ और सिर्फ पूंजी का प्रबंध करना है. और इस व्यवस्था के दोनों मॉडल -- कार्पोरेट जगत की अगुआई में पूंजीवादी मॉडल हो
या सरकार निर्देशित "समाजवादी" मॉडल -- पूंजीवादी व्यवस्था के हितों की ही पूर्ति करते हैं. इसी वज़ह से दोनों मॉडल आज अपनी प्रासांगिकता
खो चुके हैं. खुद
यह विचारधारा एक ऐसे मॉडल का खाका पेश करती है जो पूंजी के प्रबंध की जगह प्रकृति
और मानवजाति के प्रबंध को प्राथमिकता देता है.
कॉ. सराफ ने रेवोल्यूशनरी और
प्रोलेतेरियन व्यूपॉइंट से आगे बढ़कर इंटरनेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक और नेचर-हयूमन सेंट्रिक व्यूपाइंट तक एक लंबी यात्रा तय
की. वे दरअसल एक राजनेता, एक
विचारक और एक पत्रकार का सम्मिश्रण थे. उनमें शुरू से ही ऐसी लगन रही कि जिस विचार
को भी उन्होंने सही मान लिया, उस पर तन, मन, धन
से अमल किया और उस पर अंतिम दम तक कायम रहे. लेकिन ऐसा भी नहीं था कि एक बार कोई विचार अगर उन्हें गलत लगा तो उसे छोड़ने
में उन्होंने कभी कोई देर या कोताही की हो. हर चीज़ या प्रक्रिया का वे गहराई से विश्लेषण करते थे. जन विरोधी ताकतों के वे हमेशा विरोधी रहे. और उम्र के अंतिम पड़ाव में प्रकृति संरक्षण के
नजरिये के भी वे न सिर्फ कायल हो गए थे बल्कि उत्साहपूर्वक उसे आगे बढ़ा रहे थे. सही विचार को जानने, समझने और उसे विकसित करने में वे कभी पीछे नहीं रहे.
उनके राजनैतिक जीवन की
शुरुआत से ही देखें तो इसका बखूबी एहसास होता है. आजादी से पहले पंजाब यूनिवर्सिटी, लाहौर से (अब पाकिस्तान में) इतिहास में एमए करने के बाद वे जम्मू-कश्मीर
की तत्कालीन राष्ट्रवादी पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस में -- जिसके नेता शेख मुहम्मद अब्दुल्ला
थे -- इस समझ के साथ शामिल हुए कि वह उस सामंती राज्य में राष्ट्रवादी तत्वों का
प्रतिनिधित्व करती है. 1924 में साम्बा (जम्मू-कश्मीर) में जन्मे सराफ की उम्र तब
मात्र 22 वर्ष थी. और फिर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के साथ संपर्क हो जाने
के बाद भी वे नेशनल कॉन्फ्रेंस की तरफ से 1952 में राज्य
संविधान सभा के सदस्य बने तो इस समझ के साथ कि कम्युनिस्टों को उस समय नेशनल
कॉन्फ्रेंस में बने रहना चाहिए. घर-बार छोड़कर वे पार्टी ऑफिस में ही रहते थे.
मंत्री पद की आकांक्षा भी उन्होंने कभी की नहीं. राजनीति में आते ही वे मार्क्सवाद
के प्रति आकृष्ट हो गए थे और 1958 तक सत्तरारूढ़ नेशनल कॉन्फ्रेंस के भीतर
कम्युनिस्ट गुट के प्रभारी रहे.
आज से 64 बरस से भी अधिक पहले दबे-कुचले और पिछड़ों के पक्ष में आवाज उठाने वाली
उनकी सामाजिक विचारधारा मात्र एक उदाहरण से ही समझी जा सकती है, जिसका जिक्र उन्होंने खुद अपने एक लेख में किया है. यह प्रकरण विधानसभा
में जम्मू-कश्मीर के प्रथम सदरे रियासत (राज्याध्यक्ष) के चुनाव से जुड़ा है, जिसमें उन्होंने राज्य में सामंती महाराजा के वंशज डॉ. कर्ण सिंह के
मुकाबले सदन के एक अनुसूचित जाति सदस्य महाशा नाहर सिंह का नाम प्रस्तावित किया था, हालांकि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के परामर्श पर नेशनल कॉन्फ्रेंस की ओर से शेख अब्दुल्ला डॉ.
कर्ण सिंह के प्रस्तावक बने थे.
जाहिर है, ऐसी पार्टी में बने रहना उनके लिए असहज था. पांच साल तक नेशनल कांफ्रेंस
का विधायक रहने के दौरान जब उनमें एहसास गहराता गया कि इस पार्टी में नेहरू की
अगुआई वाली केंद्र की कांग्रेस सरकार की गलत नीतियों से जूझने का माद्दा नहीं है
तो उन्होंने 1958 में कोई दो दर्जन विधायकों के साथ वह पार्टी छोड़कर डेमोक्रेटिक
नेशनल कांफ्रेंस गठित कर ली (जो राज्य में भाकपा की इकाई बन गई) और वे उसके
जनरल-सेक्रेटरी बनने के साथ-साथ भाकपा की नेशनल काउंसिल के भी सदस्य बने. वे अच्छे
वक्ता भी थे. उन दिनों वे कई सार्वजनिक सभाएं किया करते थे -- जम्मू शहर में,
साम्बा में, जहां उनका जन्म हुआ, सीमा पर बसे रणवीरसिंहपुरा में और दूरदराज के कई जिलों में. जिस सलीके से
वे नेशनल कॉन्फ्रेंस या कांग्रेस की राज्य सरकार की
धज्जियां उड़ाया करते थे, अथवा जनता को उस समय की इकोनॉमिक्स
को दिल खोलकर समझाया करते थे, उससे उनके विरोधी भी उनकी
वक्तृत्व कला के कायल थे.
अनेक बुजुर्ग, जहां तक कि उनके विरोधी नेता भी इस बात कि पुष्टि करेंगे कि विधायक रहने
के 10 साल के दौरान वे तथ्यों और आंकड़ों से लैस होकर
विधानसभा में पहुंचा करते थे. इस बात की पुष्टि उस ज़माने की विधानसभा की कार्यवाही
से की जा सकती है. उन्हीं दिनों से वे अपने विचारों के प्रसार के लिए अपनी लेखनी
का भरपूर इस्तेमाल करने लगे और उर्दू साप्ताहिक जम्मू संदेश के संपादक बने, जो 1969 तक निकलता रहा. अखबार में वे प्रमुख
वैचारिक-राजनैतिक लेख लिखते रहे. तब उन्हें लगता था कि भाकपा देश में राष्ट्रीय
लोकतांत्रिक क्रांति की अगुआ है और उसके उद्देश्य प्राप्ति में ज्यादा वक़्त नहीं
लगेगा. लेकिन पार्टी उनकी आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतर प़ा रही थी.
इसीलिए भाकपा की नेशनल काउंसिल
के जिन 32 सदस्यों ने पार्टी छोड़कर 1964 के अंतिम दिनों में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) का गठन किया, उनमें वे भी शामिल थे. तब उन्हें लगा था कि देश में जन लोकतांत्रिक क्रांति
की जरूरत है जिसके लिए माकपा सरीखा अलग तरह का क्रांतिकारी संगठन चाहिए, जिसकी केंद्रीय समिति में वे निर्वाचित हुए. अपने इस विचार की वजह से
उन्हें 1966 तक दो साल के लिए भारतीय रक्षा अधिनियम (डीआइआर)
के तहत जम्मू सेंट्रल जेल में बंद रहना पड़ा.
सन् 1967
में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी में ज़मीन को लेकर किसानों के जुझारू
आंदोलन का राज्य में माकपा की अगुआई वाली सरकार दमन करने पर उतर आई तो उनका उस
पार्टी से भी मोह भंग होने लगा. साल के अंत में जम्मू-कश्मीर में कर्मचारियों की
हड़ताल के दौरान वे भूमिगत हो गए. अगले साल उन्होंने नक्सलवादियों के प्रथम अखिल
भारतीय संगठन -- कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की समन्वय समिति -- की स्थापना में
अपना योगदान दिया. बाद में वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) --
भाकपा (मा-ले) -- के संस्थापक सदस्यों में रहे और उसके पोलित ब्यूरो में चुने गए. उन्हें
भाकपा (मा-ले) की नॉर्थ जोन संबंधी समिति का प्रभारी बनाया गया. उस आंदोलन के
दौरान 1971 में वे गिरफ्तार कर लिए गए और दो साल तक जम्मू के
पूछताछ केंद्र में बंद रहे.
सन् 1973 में रिहा होने
के बाद वे फिर भूमिगत हो गए और उन्होंने कई गुटों में बंटे नक्सली क्रांतिकारियों
को एक प्लेटफॉर्म पर लाना चाहा. अन्य सांगठनिक प्रयासों के अलावा इस दिशा में
उन्होंने छह-सात किताबें भी लिखीं, जिनमें
भारत में क्रांति और क्रांतिकारी आंदोलन को लेकर कई गंभीर सवालों पर चर्चा की गई
थी और उसके रास्ते में आ रही बाधाओं से निबटने के सुझाव थे. इनमें 500 से अधिक पृष्ठों का एक वृहद् ग्रंथ द इंडियन सोसायटी भी
शामिल है, जिसमें 1947 के पहले के भारत
के इतिहास का माओवादी नजरिये से विवरण दर्ज है. पर अपने प्रयासों में उन्हें
कामयाबी नहीं मिली.
सन् 1976
में चीन में माओ त्से-तुंग के निधन के बाद हुए व्यापक बदलावों ने
उन्हें झिंझोड़ दिया और वे इस दिशा में सोचने को मजबूर हुए कि क्या मार्क्सवाद आज के युग की सचाई है. 1978
से उन्होंने ए रेवोल्युशनरी व्यूपाइंट नामक विचारशील पत्रिका निकालनी शुरू की जो 1982 के
अंत तक निकलती रही जिसमें उनके कई अनुसंधानात्मक लेख छपे और नित्य प्रयोग की लंबी
प्रक्रिया से गुजरने के बाद 1983 के शुरू में उन्होंने माओ त्से-तुंग
विचारधारा को त्याग दिया. वे मानने लगे थे कि प्रोलेतेरियत (सर्वहारा वर्ग) चूंकि
आधुनिक युग का अगुआ वर्ग है, इसलिए पार्टी का नाम भी उसी
वर्ग के नाम पर होना चाहिए. इसी के साथ उन्होंने प्रोलेतेरियन पार्टी इन इंडिया
नाम की राजनैतिक पार्टी स्थापित की और उसके मुखपत्र प्रोलेतेरियन व्यूपाइंट का
संपादन करने लगे, जो मार्च 1986 तक निकलता
रहा.
बहरहाल, उनका सामाजिक अनुसंधान जारी रहा. इस प्रक्रिया में गहरे पैठकर उन्होंने
मार्क्सवाद-लेनिनवाद से किनारा कर लिया और एक अंतरराष्ट्रीयवादी लोकतांत्रिक
नजरिया अख्तियार किया. इस दौरान मार्क्सवाद-लेनिनवाद के
विभिन्न सूत्रों का खंडन करते हुए उनके कई लेख पार्टी की पत्रिका में प्रकाशित
हुए. लिहाज़ा, जून 1986 में उन्होंने
भूमिगत पार्टी की जगह एक खुली इंटरनेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक पार्टी का गठन किया और
पत्रिका का नाम भी इंटरनेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक व्यूपाइंट रखा गया.
लेकिन सचाई को तलाशने की
प्रक्रिया में उनकी सामाजिक-राजनैतिक सोच आगे बढ़ती गई, जिसकी पराकाष्ठा अंततः नेचर-हयूमन सेंट्रिक विचारधारा के उभरने में
निकली. तदनुसार, वर्ष 2002 के अंत तक
वे नेचर-हयूमन सेंट्रिक पीपुल्स मूवमेंट पर जोर देने लगे और जनवरी 2003
में उनका इंटरनेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक व्यूपाइंट बदलकर नेचर-हयूमन सेंट्रिक व्यूपाइंट हो
गया.
वैश्वीकरण के चलते वे नेचर-हयूमन सेंट्रिक विचारधारा
को मात्र भारत तक ही सीमित नहीं रखना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने सार्क देशों को टार्गेट
किया. वे इन देशों की जनता को इस विचारधारा के इर्दगिर्द जुटाने के लिए कार्य कर
रहे थे और चाहते थे कि इसके लिए वहां के हमख्याल संगठनों का एक सम्मेलन आयोजित करें. इस दिशा में वे कामयाब भी हुए. इस बीच 2007 के
बाद उनका स्वास्थ्य खराब ही चलता रहा, लेकिन
मानसिक तौर पर वे सक्रिय थे.
21-25 जून 2009 को सार्क देशों के हमख्याल संगठनों एक सम्मेलन राजस्थान के श्रीगंगानगर
में रखा गया तो वे उस राज्य के साथियों के
संग लगभग ढाई महीने वहां बड़ी मुस्तैदी से उसकी तैयारियों में लगे रहे. लेकिन शायद
यही अति सक्रियता उनके लिए भारी पड़ गई. सम्मेलन का दिन आते-आते उनकी तबीयत बिगड़
गई जो बाहर से तो बहुत ज्यादा खराब नहीं दिखती थी, पर अंदर
से शायद खुद उन्हें पता चल गया था कि वे नहीं बचेंगे. वे
सम्मलेन में शामिल नहीं हो पाए. उन्होंने अपने साथियों से
कहा कि वे उन्हें अपने जन्म स्थान में ले चलें. 22 जून की
रात रास्ते में रुकने के बाद वे 23 की शाम को साम्बा पहुँच
गए और अगली सुबह 24 जून को तड़के
4 बजे ही उनका देहांत हो गया. सार्क सम्मलेन बीच में ही समाप्त करना पड़ा.
लेखन का जीवन
कॉ. सराफ अपने लेखों के
रूप में हमें ऐसा खजाना दे गए हैं, जो हमारे
लिए अमूल्य धरोहर है. 1958 से लेकर 1967 तक उनके अनेक लेख उर्दू साप्ताहिक जम्मू संदेश में प्रकाशित
होते रहे. 1973 से लेकर 2009 तक
उनके सारे लेखन का रिकॉर्ड मौजूद है. उनके लेखन में खासी विविधता रही. इतिहास के
तो वे छात्र ही थे और 30 साल संसदीय राजनीति तथा 35 साल संसदीय से इतर राजनीति में लगे होने के कारण उनके बहुत सारे लेख
इन्हीं से सम्बंधित हैं. लेकिन फिलासफी, अर्थव्यवस्था,
कृषि, विज्ञान और अन्य विधाओं में भी उन्होंने
लिखने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. उनके अधिकांश लेख खासे विश्लेषणात्मक (analytical)
हैं.
उनके साथियों ने उनकी
संकलित रचनाओं को प्रकाशित करने का बीड़ा उठाया है. इस कड़ी में 624
पृष्ठों का प्रथम खंड 2010 में, 524 पृष्ठ का द्वितीय खंड 2011 में, 656 पृष्ठ का तृतीय खंड 2012 में, 582 पृष्ठ का चतुर्थ
खंड 2013 में और 618 पृष्ठ का पंचम खंड 2015 में अंग्रेजी में प्रकाशित हो चुके
हैं. अभी कई और खंड इस श्रृंखला में आना बाकी हैं. लेकिन अफ़सोस है कि जम्मू संदेश में प्रकाशित उनके लेखों का कोई रिकॉर्ड मौजूद नहीं है. इन लेखों को खोजकर
जुटाना एक बड़ा काम है.
पारिवारिक जीवन
कॉ. सराफ सन् 1924
में साम्बा (जम्मू-कश्मीर) में पैदा हुए. सराफ
समुदाय वह है जो सोने का कारोबार करता है. कभी कॉ. सराफ के
पुरखे यह काम करते रहे होंगे, लेकिन उनके पिता रोहलू राम सोने का तो नहीं, छोटा-मोटा व्यापार जरूर करते थे और मां महंती देवी
सुदृढ़ विचारों वाली तथा परिश्रमी पारिवारिक महिला थीं.
उनके नगर साम्बा और गली-मोहल्ले के अनेक लोग रोजमर्रा के जीवन में
उनसे सलाह लेने आते थे. शायद
इसी का असर कॉ. सराफ
के जीवन पर भी हुआ और वे सार्वजनिक जीवन में उतरे. अपने माता-पिता की वे तीसरी संतान थे. सबसे बड़ी उनकी एक बहन रामरक्खी उर्फ रक्खो थीं.
और उसके बाद एक भाई राधाकृष्ण,
जो बचपन में ही चल बसा था.
1954 में उनके पिता की मृत्यु हो
गई थी. मां, पत्नी बीरो देवी और बड़ी बहन का क्रमश: 1987, 1993 और 2006 में निधन
हो गया. अब उनकी सिर्फ एक छोटी बहन रामप्यारी उर्फ रामो जीवित हैं.
उनका सक्रिय
पारिवारिक जीवन कोई बहुत ज्यादा नहीं रहा. छोटी उम्र में बहनों की
शादी हो गई थी इसलिए लगता है घर
में मदद के लिए मां ने उनकी शादी भी जल्दी ही कर दी. एमए करने से पहले ही उनकी
शादी हो चुकी थी. 1953 में 29 साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते उनके चार बच्चे हो
गए -- दो लड़कियां कृष्णा कुमारी
तथा शारदा देवी और दो लड़के
जगदीश राज तथा ओम प्रकाश.
उसके बाद वे राजनीति में बहुत ज्यादा व्यस्त हो गए, कभी-कभार ही घर आया करते थे.
बच्चों का पालन-पोषण
वस्तुत: उनकी दादी महंती देवी और मां बीरो देवी ने ही किया. लेकिन कठिन आर्थिक
परिस्थितियों के बावजूद कॉ. सराफ ने अपनी मां और पत्नी को कह दिया था कि उनकी
पढ़ाई ठीक से करवाई जाए. सब बच्चों ने हाइस्कूल विशिष्ट दर्जे से पास किया. सबसे बड़े
पुत्र जगदीश ने मुंबई में ट्यूशनें पढ़ाकर एमएससी और डॉक्टरेट की, उसके बाद कृष्णा
भी मेहनत से डॉक्टर बन गई. ओम प्रकाश
और सबसे छोटी पुत्री शारदा ग्रेजुएट हो गए. यही वजह रही कि सभी बच्चे आज अपने
पैरों पर खड़े हैं.
निजी जीवन
राजनीति में आ जाने के कारण कॉ. सराफ ने न कभी नौकरी की और न कोई व्यवसाय. अलबत्ता निजी जरूरतों
के लिए वे हमेशा जनता पर निर्भर रहे, कभी घर से पैसा लिया नहीं. 10 साल विधायक रहने
के दौरान (1952-62) जब 200 रुपये वेतन मिलता था, तब तक ही उन्होंने घर की मदद की.
करीब 35 साल तो उन्होंने विधायकी की अपनी पेंशन भी नहीं ली, यह सोचकर कि
पूंजीवादी सरकार से एक पैसा लेना भी हराम है. जिंदगी के आखिरी 10-12 साल
में जब कई लोगों से विचार-विमर्श के बाद उन्होंने पेंशन लेना शुरू की तो कुछ पैसा
उनके पास आ गया था, जिसे
उन्होंने ज्यादातर संगठन के काम या पुस्तक अथवा पत्रिका प्रकाशन में लगा दिया.
बहरहाल, निजी स्तर पर उनकी कई चीजें प्रभावित करने वाली हैं -- दो चीज़ें तो विशेष
रूप से. समय प्रबंधन और पैसे का प्रबंधन वे बहुत अच्छी तरह करते थे. कई लोगों को याद
होगा कि वे भाषण और लेखन के लिए नोट्स तो बनाते ही थे, उनकी
जेब में दो पर्चियां और पड़ी रहती थीं. एक में उनका टाइम-टेबल सा बना रहता था. हर
पल का हिसाब वे रखते थे. और पलों के साथ ही पैसों का हिसाब भी (चाहे वह संगठन का
हो या अपना निजी) हमेशा साथ-साथ लिखते रहते थे.
भूमिगत जीवन में (1968-1985) जिन लोगों ने उनके
साथ काम किया है, उनका कहना है कि 24 घंटे में वे 15-16 घंटे काम करते थे. 55-60 साल की उम्र में भी रोज सुबह उठकर अमूमन पहले वे कसरत करते थे और फिर
पढ़ने-लिखने बैठते थे. उनका मानना था कि शारीरिक काम और मानसिक काम एक-दूसरे के
पूरक होते हैं. पुराने जमाने के उनके साथियों का कहना है कि भाकपा
(मा-ले) में रहते हुए या उसके बाद क्रांतिवाद के अंडरग्राउंड ज़माने में तो कई बार
वे उन्हें तड़के ही उठा दिया करते और कसरत करने के लिए प्रेरित करते थे.
कॉं. सराफ के हजारों
अनुयायियों की तरह उनके छोटे पुत्र ओम सराफ के लिए उनके पिता आज भी प्रेरणादायी
हैं. जैसे कि वे बताते हैं, ‘‘अपना पिता हर किसी के लिए गुरु और नायक सरीखा होता
है. मेरे पिता भी मेरे गुरु, मार्गदर्शक और नायक
रहे हैं. बचपन में मैंने उनसे कई बातें सीखीं. अपने 15 साल के पूर्व भूमिगत जीवन (1969-1985) में भी,
जब मुझे ज्यादातर अपने पिता के
साथ काम करने और रहने का अवसर मिला, मैंने उनसे इतना
कुछ सीखा कि चंद लफ्जों में उसे बयान नहीं किया जा सकता.’’

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