Monday, June 26, 2023

मणिपुर में हिंसा: नफरत का ज़हरीला एजेंडा, आदिवासी इलाकों पर नजर (किस्त 1)

      चित्र साभार: https://democracynews.in/

मणिपुर जल रहा है. आठ हफ्ते का अरसा बीत गया है और इस दौरान बताया जाता है कि दो मूल निवासी समुदायों के बीच हिंसक लड़ाई में 100 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं, 400 से ज्यादा घायल हैं और 60,000 से ऊपर अपने घरों से विस्थापित होकर कोई 350 शिविरों में शरण ले चुके हैं. भाजपा जिस डबल इंजन सरकार के मॉडल का जोर-शोर से ढोल पीटती आई है, वह मणिपुर में पूरी तरह ध्वस्त हो गया दिख रहा है. ऐसी बेमिसाल अराजकता दसियों साल से देश के किसी कोने में नजर नहीं आई थी.

प्रशासन नाम की कोई चीज काम नहीं कर रही. सड़कों पर एक तरफ सैनिक, अर्द्धसैनिक और पुलिस बलों के कोई 40,000 जवान हिंसा को दबाने के लिए तैनात किए बताए जाते हैं, तो दूसरी तरफ एक-दूसरे के खून की प्यासी "परस्पर विरोधी" मूल निवासी समुदायों की भीड़ शस्त्रागारों से लूटे लंबी दूरी तक सटीक मार करने वाली राइफलों समेत ऑटोमेटिक हथियार लेकर एक-दूसरे पर हमले कर रही बताई गई है. मूल निवासी समुदायों के बीच शुबहे बहुत गहरे हो गए हैं और दोनों ही पक्ष सुरक्षा बलों पर पक्षपात करने का आरोप लगा रहे हैं.

समाचार हैं कि अनेक चर्च और मंदिर तबाह कर दिए गए हैं या उन्हें नुक्सान पहुंचाया गया है. हिंसा शुरू होने के बाद से पुलिस शस्त्रागारों से लूटे 4,000 से अधिक हथियारों में से महज चौथा हिस्सा ही स्वेच्छा से वापस किए गए हैं.1  अनेक मंत्रियों और विधायकों के घर आग के हवाले कर दिए गए हैं. 16 जिलों में से अधिकांश में रात्रि कर्फ्यू है. स्कूल बंद हैं और इंटरनेट सेवाएं स्थगित. सरकार (वस्तुतः केंद्र सरकार) इतने समय बाद भी समस्या का कोई राजनैतिक समाधान प्रस्तुत नहीं कर पा रही. यहां तक कि हर माह "मन की बात" करने वाले प्रधानमंत्री के मन में लगभग इन दो महीनों के दौरान एक बार भी मणिपुर में हो रही हिंसा के खात्मे के लिए कोई सामूहिक अपील करने की बात नहीं आई.

मणिपुर के अपने दौरे में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने मौजूदा टकराव के लिए राज्य हाइकोर्ट के "उतावली" में दिए एक आदेश को जिम्मेदार ठहराया था. आदेश में हाइकोर्ट ने मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्रदान करने का सुझाव दिया था. कुकी समुदाय को यह बात मंजूर नहीं थी और उसने इसे अनुसूचित जनजाति की अपनी सुविधाओं के लिए खतरा माना.2

पिछले कुछ साल में कुकी और मैतेई समुदायों के बीच कई बार तनाव पैदा हुआ है. कुछ विवाद भाजपाई मुख्यमंत्री बीरेन सिंह की नीतियों और बयानों से उठे, तो कुछ को दोनों मूल निवासी समुदायों ने तूल दी. इनमें अफीम की खेती, “अवैध प्रवासन और राज्य के जंगलों में अतिक्रमण से जुड़े विवाद शामिल हैं. इनसे पिछले कुछ महीनों में कई तरह की अशांति पैदा हुई. इस सिलसिले में मुख्यमंत्री की ओर से कुकी लोगों को अफीम की खेती करने वाले और अप्रवासी जैसे विभाजनकारी विशेषणों से नवाजे जाने से दोनों समुदायों में डर और गुस्सा पैदा हुआ है. इससे राज्य के विभिन्न समुदायों के बीच विभाजन रेखा, बिलाशक, गहरी हुई है. इसे दूर करने के बजाय सरकार ने आरक्षित वनों में सर्वेक्षण कर बेदखली अभियान चलाए, जिससे तनाव बढ़ते गए.

हालांकि माना जाता है कि बड़े पैमाने पर हिंसक टकरावों की शुरुआत हाइकोर्ट के उक्त आदेश के विरोध में ऑल ट्राइबल स्टुडेंट्स यूनियन की रैली से हुई, लेकिन मणिपुर में परस्पर विरोधी मूल निवासी समुदायों के बीच विस्फोटक तनाव पुराना है. आज तो बस बरसों से चले आए तनावों में पलीता लगा दिया गया लगता है. दरअसल, मैतेई समुदाय में संपन्न लोग मणिपुर में आर्थिक और राजनैतिक सत्ता पर काबिज हैं, जिसके चलते ज्यादातर मैतेई लोगों के पास नौकरियां भी हैं, तो कुकी लोगों को अपने इलाकों में संवैधानिक प्रावधानों का संरक्षण है. इससे गंभीर रूप से "जमीन का असंतुलन" पैदा हो गया है, जो सारी समस्याओं की जड़ बताई जाती है.3

1960 के मणिपुर भू-राजस्व और भूमि सुधार कानून की धारा 158 में आदिवासियों के लिए विशेष प्रावधान हैं और आदिवासी रीति-रिवाज और जमीन जोतने की उनकी प्रणाली को बनाए रखने के लिए आदिवासियों की जमीन गैर-आदिवासियों को हस्तांतरित न हो सके, इसकी सुरक्षा के उपाय किए गए हैं. इसमें आदिवासी समुदायों के अलावा अन्य मूल निवासी समुदायों के जमीन खरीदने के अधिकारों को खत्म नहीं किया गया है, बल्कि उसका हस्तांतरण रोकने के लिए दोहरी प्रक्रिया निर्धारित की गई है. इसके तहत उपायुक्त की अनुमति और जिला परिषद की सहमति जरूरी है.

राज्य में जमीन को लेकर गहरे दबाव हैं. राज्य की 40 प्रतिशत आबादी होने पर भी आदिवासी भले ही पहाड़ी क्षेत्रों की 90 प्रतिशत जमीन पर रहते हैं, लेकिन इस जमीन में 67 प्रतिशत तो जंगल ही है, जिसके मालिक वे नहीं हैं.4 आदिवासी गांवों में आबादी बढ़ने से, वहां कुकी लोग जंगल के इलाके की ओर बढ़ने लगते हैं, जिसे वे अपना ऐतिहासिक और पुश्तैनी अधिकार समझते हैं. सरकार इसके विरोध में कार्रवाई करती है. इसी तरह, इंफाल की घाटी में मूलतः रह रहे और ज्यादातर पिछड़ा श्रेणी के तहत आते मैतेई समुदाय के लोग पहाड़ी क्षेत्रों में अमूमन जमीन नहीं खरीद सकते और इसे अपने ऊपर हो रही नाइंसाफी बताते हैं. यह बात दीगर है कि कुछ गरीब मैतेई परिवार पहाड़ी क्षेत्रों में रह रहे हैं, जबकि कुछ संपन्न आदिवासी परिवार घाटी में जाकर बस गए हैं.

बहुत-से मैतेई पहाड़ी क्षेत्रों में जमीन से वंचित होने के कारण दुखी हैं और उनके अनुसूचित जनजाति का दर्जा मांगने के पीछे यह एक वजह है. यह मांग बहुत पुरानी है. पहले जब भी यह मांग उठती थी तो गहरी चिंताएं जताई जातीं कि इससे जातीय अलगाव बढ़ेगा, खासकर कुकी और नगा मूल निवासी समुदायों में अलगाव की भावना पैदा होगी. लेकिन नाराज मैतेई लोगों ने अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने के लिए मणिपुर हाइकोर्ट का रुख किया. अदालत ने 27 मार्च 2023 के अपने आदेश में फैसला सुनाया कि उक्त मांग उचित है और राज्य सरकार आगे कार्यवाही के लिए इसे केंद्र सरकार को भेजे. 

उधर, सरकार के पास राज्य के पहाड़ी इलाकों में न तो नए गांवों को मान्यता देने और न ही आरक्षित जंगलों को लेकर कोई स्पष्ट नीति है. इससे हर तरफ लोगों में शुबहे और असंतोष पनप गए हैं. कुकी लोग इसे अपने लिए न सिर्फ कठोर बल्कि खुद को सताए जाने वाली नीति भी मानते हैं. और 26 अप्रैल की घटना ने उनके सब्र का पैमाना तोड़ दिया. उस दिन राज्य सरकार ने 1966 की एक अधिसूचना के आधार पर चुराचांदपुर के कुछ कुकी परिवारों को उनकी जमीन से यह कहकर बेदखल कर दिया कि वह जंगल की जमीन है. यही नहीं, उसने यह भी कहा कि कुकी लोग अफीम उगाते हैं. इससे जोरदार प्रचार चल निकला कि कुकी लोग पहाड़ी क्षेत्रों में सारे जंगल काट रहे हैं और अफीम बो रहे हैं. इसकी गाज साधारण व्यक्तियों पर गिरी, लेकिन सरकार ने बड़े खिलाड़ियों को छुआ तक नहीं.

इन घटनाओं से उठी चिंगारी ने आग लगाने का काम किया. हिंसा 3 मई को शुरू हुई जब हाइकोर्ट  के फैसले के खिलाफ संयुक्त नगा-कुकी प्रदर्शन पर हमला हुआ. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने भले ही मणिपुर हाइकोर्ट को फटकार लगाई, लेकिन नुक्सान हो चुका था.5 हिंसा से निबटने के लिए जो कुशलता दरकार थी, मुख्यमंत्री ने उसका परिचय नहीं दिया. मैतेई समुदाय का होने की वजह से वे कुकी लोगों में भरोसा भी नहीं जगा सके. ऐसे आंदोलनकारियों से निबटने में पुलिस की भूमिका इस कदर पक्षपाती है कि पुलिस प्रमुख को हटाकर त्रिपुरा से नया पुलिस प्रमुख लाकर बैठाना पड़ा.

राजधानी इंफाल के आसपास की पहाड़ियों में मूलतः रह रहा कुकी समुदाय अरसे से कहता आ रहा है कि भाजपा सरकार उन्हें और उनकी जमीन को आरक्षित जंगलों में अतिक्रमण को लेकर सर्वे और अफीम की खेती के खिलाफ अभियान के नाम पर निशाना बना रही है. पहाड़ी क्षेत्रों में आरक्षित जंगलों के सर्वे का मकसद हालांकि अफीम की खेती को कम करने का प्रयास बताया गया, लेकिन उसका नतीजा कुकी समुदाय की गावों से बेदखली में निकला. अरसे से अंदर ही अंदर खौल रहे उनके गुस्से की दूसरी वजहें भी हैं. सीमा पार के म्यांमार में हिंसा और अत्याचार से तंग आकर भारत की ओर भाग आए चिन आदिवासी उनके अपने ही सजातीय हैं, और इन कथित अवैध अप्रवासियों के खिलाफ सरकार के सख्त रुख से कुकी नाराज हैं.

दूसरी तरफ, मैतेई समुदाय का दावा है कि कुकी समुदाय पड़ोसी म्यांमार में 2021 के सैनिक तख्तापलट के बाद वहां से आए उन शरणार्थियों को पनाह दे रहा है जो उनके अपने समुदाय से ही हैं ताकि पहाड़ियों की आबादी में नकली वृद्धि दिखा सके. उनका यह भी आरोप है कि अफीम की खेती करके पहाड़ियों को तबाह करने में नार्को-आतंकवादियों का हाथ है. यह मत मैतेई शिक्षा शास्त्रियों और नागरिक समूहों के अलावा मैतेई समुदाय के उन अधिकारियों में व्यापक रूप से मान्य है, जो सुरक्षा और नागरिक प्रशासन में कार्यरत हैं. कुकी इन आरोपों का जोरदार खंडन करते हैं. उनका कहना है कि पूरे समुदाय पर कालिख पोतना नाइंसाफी है.

इस टकराव में असल फैसला लेना हालांकि उन लोगों के हाथ में है, जो बंदूकों, नशीले पदार्थों और राजनीति पर नियंत्रण रखते हैं, लेकिन दोनों समुदायों में सबसे ज्यादा गाज महिलाओं और बच्चों पर गिरी है. कुछ लोगों ने अपने एजेंडा को सिरे चढ़ाने के लिए मौजूदा टकराव में दोनों मूल निवासी समुदायों की पहचान को हथियार की तरह इस्तेमाल किया.

इससे राजनीति जुड़ी हो या नहीं, लेकिन बहुत-से लोग आरोप लगाते हैं कि मणिपुर में नशीले पदार्थों की समस्या सचमुच है. इसमें कौन-से बड़े खिलाड़ी शामिल हैं, यह तो सरकार ही बता सकती है, लेकिन जानकारों के मुताबिक, यह जगह ऐसी है, जहां से नशीले पदार्थों की स्वर्ण त्रिभुज तक आवाजाही बड़ी आसानी से हो सकती है. थाइलैंड, लाओस और म्यांमार की सीमाओं के संगम पर स्थित स्वर्ण त्रिभुज नाम से कुख्यात चला आया यह क्षेत्र परंपरागत रूप से नशीले पदार्थों के फलते-फूलते कारोबार का केंद्र रहा है. पिछले दो दशक में मणिपुर की नशीली दवाओं की समस्या में एक नया आयाम यह जुड़ा है कि म्यांमार की सीमा से लगे मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों में अफीम के खेतों का फैलाव हुआ है. इसलिए माना जाता है कि पिछले दो दशक में हेरोइन व्यापार का एक बड़ा हिस्सा स्वर्ण त्रिभुज से म्यांमार में आ गया है.6

लेकिन बताते हैं कि कुकी लोगों के संगठनों ने केंद्र सरकार के साथ सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशन समझौता करने वाले कई कुकी उग्रवादी समूहों के अफीम की खेती का समर्थन न करने वाले खुलेआम बयान जारी किए हैं. जनवरी में, 17 सशस्त्र गुटों के साझा संगठन कुकी नेशनल ऑर्गेनाइजेशन ने अफीम की खेती में लगे लोगों को "कड़ी चेतावनी" जारी कर कहा कि इस आदेश का "पालन न करने वालों को गंभीर परिणाम भुगतने होंगे."

मणियों यानी नगों का प्रदेश अर्थ देने वाला मणिपुर चहुं ओर पहाड़ियों से घिरी एक घाटी से मिलकर बना है. राज्य में हिंदुमत, ईसाई धर्म और इस्लाम समेत विभिन्न धर्मों को मानने वाले और कुछ प्राचीन सनमही धार्मिक परंपराओं का पालन करने वाले 39 मूल निवासी समुदाय बसते हैं. मैतेई समुदाय में ज्यादातर हिंदू हैं और वे घाटी में पड़ते इंफाल पूर्व, इंफाल पश्चिम, थौबल, बिष्णुपुर और काकचिंग जिलों में बहुसंख्यक है, जबकि उत्तरी पहाड़ियों पर मुख्यतः नगा जनजातियों और दक्षिणी पर कुकी समुदाय के लोग रहते हैं. 2011 की जनगणना के अनुसार, राज्य की 28 लाख आबादी में लगभग 53 प्रतिशत मैतेई हैं, कुकी कोई 28 प्रतिशत और नगा करीब 21 प्रतिशत हैं.7

1949 में भारत के साथ मणिपुर के विलय का विरोध हुआ तो अलगाववादी आंदोलन के बीज पड़े. इस विरोध को कुचलने के लिए भारत सरकार ने 1958 में सशस्त्र बल (विशेष शक्तियां) अधिनियम लाया. इस कानून के तहत "अशांत क्षेत्रों" में "सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने" के लिए सेना और अर्द्धसैनिक बलों को व्यापक अधिकार दिए गए. ये अधिकार मूलतः पूर्वोत्तर के क्षेत्रों और जम्मू-कश्मीर में लागू किए गए.

उपरोक्त कानून ही भारत सरकार और पूर्वोत्तर के अनेक भागों के बीच विवाद की जड़ है. इस कानून की मानवाधिकार संगठनों ने आलोचना की और इसकी वजह से मणिपुर में राज्य और केंद्र सरकार के बीच गहरा अविश्वास बना रहा. केंद्र का तर्क है कि यह कानून उन इलाकों में व्यवस्था बनाए रखने के लिए जरूरी है, जहां विद्रोह का इतिहास रहा है. इनमें कुछ विद्रोह तो भारत की आजादी के पहले हुए हैं. भारत के अशांत और दूरदराज वाले पूर्वोत्तर क्षेत्र के आठ राज्यों में 400 से अधिक समुदाय रहते हैं, जिनकी कुल मिलाकर आबादी कोई 4.5 करोड़ है. इस समूचे क्षेत्र के विभिन्न गुटों के साथ दर्जन भर से ऊपर शांति वार्ताएं बरसों से लटकती चली आ रही हैं.

मणिपुर में पहले भी हिंसा हुई है, जिसमें 1949 में उसके भारत में विलय के बाद नगा विद्रोह और 1990 के दशक में मैतेई, नगा और कुकी समुदायों के बीच संघर्ष शामिल हैं. लेकिन आज यह इलाका मूल निवासी समुदायों और जातीय समुदायों की अपनी-अपनी मातृभूमि के परस्पर-विरोधी दावों का परिचायक है. मणिपुर में, घाटी में ही चार सशस्त्र गुट हैं और उनके अलावा अनेक नगा गुट और करीब 30 सशस्त्र विद्रोही संगठन हैं.8 सशस्त्र गुटों की भरमार ने — एक समय जिनकी संख्या कोई 60 आंकी गई थी — राज्य में उग्रवाद की भावना को जन्म दिया. बहरहाल, मैतेई और कुकी समुदायों के बीच मौजूदा दंगे लगभग तीन दशकों में हुआ सबसे बड़ा खूनी संघर्ष हैं.

दरअसल, मणिपुर में दशकों से एक के बाद आई दूसरी सरकार ने शांति के बजाय आतंक और भ्रष्टाचार का जो साम्राज्य कायम किया है, उसके नतीजे अब दिख रहे हैं.9  अंग्रेजों से सारे हथकंडे सीखकर इन सरकारों ने पैसे और डंडे के जोर पर पूर्वोत्तर पर शासन चलाने चाहे. राजनैतिक सत्ता से करीबी तौर पर जुड़े लोगों ने उपद्रव वाले हालात का फायदा उठाया, और राज्य बड़े पैमाने पर हथियारों की तस्करी के साथ-साथ नशीले पदार्थों की तस्करी का अनियंत्रित अड्डा बन गया. सभी समुदायों में कुलीन वर्ग के लोगों को बड़े-बड़े ठेके दिए गए ताकि उन्हें भ्रष्ट करके अपना जी-हुजूर बनाए रखा जाए. सरकारें मादक पदार्थों की स्थानीय तस्करी और जबरन वसूली से जान-बूझकर आंखें मूंदे रहीं.10

भारत सरकार ने तो 2006 से विद्रोही गुटों को सरकारी पैसे से चलने वाले उपक्रमों में ही बदल दिया है और शिविरों में रहने के लिए हजारों कुकी विद्रोहियों को हर माह 6,000 रु. का भुगतान करती आ रही है. आत्मसमर्पण कर चुके विद्रोहियों को चुनाव प्रचारकों में बदलने के लिए भुगतान के बकायों का चतुराई से इस्तेमाल किया जाता है.11 विद्रोही गुट राज्य के चुनावों में अक्सर उम्मीदवारों की पीठ पर हाथ रखते हैं. बताया जाता है कि 2022 में कुकी विद्रोही समूहों में से दो ने भाजपा के समर्थन में बयान जारी किए.

बहरहाल, मौजूदा दंगों में उभरी कई बातें गौर करने लायक हैं. 

पहली बात, देश के ज्यादातर हिस्सों में कट्टर हिंदुत्ववादी ताकतें नफरत का जो ज़हरीला एजेंडा चला रही हैं, उसके तहत आदिवासी बहुल क्षेत्रों में वे ईसाइयों को खतरनाक दुश्मन के तौर पर पेश कर रही हैं. इस एजेंडा से लगता है कि ये दंगे आदिवासी बनाम गैर-आदिवासी नहीं, बल्कि सांप्रदायिक हैं.12 यह बात इससे भी सिद्ध होती है कि इन दंगों में पहली बार धार्मिक स्थलों पर हमले किए गए. यही नहीं, बहुत-सी जगहों पर लोगों ने देखा बताते हैं कि नौजवानों के गिरोह चर्चों पर हमला करने के लिए इंफाल से 50-50 किलोमीटर दूर तक मोटरसाइकिलों पर आते थे.13

दूसरी बात, मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्रदान करने के कदम का विरोध करने के लिए हालांकि नगा और कुकी समुदाय एक हो गए थे, लेकिन हमलों का निशाना कुकी ही बनाए गए. इससे लगता है कि नगाओं को उकसाने और इसे नगा-कुकी दंगे में बदलने की कोशिशें तो हुईं, पर वे नाकाम रहीं.14

तीसरी बात, कुकी पक्ष की ओर से कहा जा रहा है कि हाल ही में मणिपुर के पहाड़ी इलाकों में पेट्रोलियम और कोबाल्ट के विशाल भंडार खोजे गए हैं, जिन पर केंद्र की भाजपा सरकार के मित्र पूंजीपतियों की नजर है. उनके अनुसार, इसलिए आदिवासियों को आतंकित कर उनके घर-परिवार से खदेड़ने की जान-बूझकर कोशिशें की जा रही हैं. इसके सबूत के तौर पर वे केंद्र के निकम्मेपन और सत्ताधीशों की मिलीभगत की ओर संकेत करते हैं.15

चौथी बात, तीनों समुदायों के नागरिक संगठन जो बरसों से आपसी बातचीत को सहज बनाने की कोशिशें करते आ रहे थे, उन्हें पिछले कुछ साल से किनारे कर दिया गया है. उनकी जगह हिंसक टोलियों ने ले ली है, जो मूल निवासियों के बीच विभाजन को तीखा करने में बड़ी भूमिका निभाती दिख रही हैं. जाहिर है, अदालत में मामला ले जाने, बेदखलियां करने, दंगे होने और बातचीत टूटने के बीच कोई तो संबंध है.

पांचवीं बात, असहमति को दबाने के साथ-साथ गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) को परेशान किया जा रहा है. यहां तक कि सच्ची एनजीओ भी बचाव का रास्ता अपनाने पर मजबूर हो गई हैं. इस स्थिति में, कोई शांति समिति या इसी तरह की कोई संस्था कुछ नहीं कर पा रही, और सब कुछ ऐसी सरकार के भरोसे चल रहा है जिसका कोई वजूद ही नजर नहीं आ रहा है.

इन घटनाओं से इस नतीजे पर पहुंचना गलत नहीं होगा कि दंगे सांप्रदायिक ताकतों ने सोचे-समझे तरीके से करवाए और बड़ी सफाई से उन्हें अंजाम दिया. ज्यादातर मामलों में सुरक्षा बल मूकदर्शक बने रहे. इस संबंध में चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ का यह कहना गौरतलब है कि दंगों में कुकी विद्रोही शामिल नहीं थे.16

1. https://www.bbc.com/news/world-asia-india-65679616

2. https://theprint.in/india/more-than-6-weeks-on-manipur-is-still-ablaze-its-a-saga-of-failures-from-state-govt-to-centre/1628874/

3. https://thewire.in/government/manipur-crisis-systemic-governance-issues

4. https://www.telegraphindia.com/opinion/a-land-in-trouble-an-overview-of-manipurs-ethnic-conflicts-between-meitei-naga-and-kuki-groups-starting-from-british-rule/cid/1947498

5. वही

6. https://scroll.in/article/1050773/poppy-in-the-hills-why-manipurs-civil-war-is-being-linked-to-narcotics-trade

7. https://theprint.in/india/more-than-6-weeks-on-manipur-is-still-ablaze-its-a-saga-of-failures-from-state-govt-to-centre/1628874/

8. https://www.usip.org/publications/2023/06/understanding-indias-manipur-conflict-and-its-geopolitical-implications

9. https://theprint.in/the-fineprint/in-manipur-govts-have-manufactured-dystopia-for-decades-not-peace-its-showing-now/1631045/

10. वही

11. वही

12. https://thewire.in/government/manipur-crisis-systemic-governance-issues

13. https://www.telegraphindia.com/opinion/a-land-in-trouble-an-overview-of-manipurs-ethnic-conflicts-between-meitei-naga-and-kuki-groups-starting-from-british-rule/cid/1947498

14. वही

15. https://thewire.in/government/manipur-crisis-systemic-governance-issues

16. https://www.hindustantimes.com/india-news/ongoing-ethnic-clash-in-manipur-not-related-to-counter-insurgency-says-cds-situation-challenging-but-hopeful-101685470196436.html

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