Thursday, June 15, 2023

औद्योगिक फार्मिंग ने की पर्यावरण की दुर्गति

चित्र साभार: https://insideclimatenews.org/


एक जमाना था जब औद्योगिक फार्मिंग तेजी से बढ़ती दुनिया के लिए रामबाण लगती थी. कृत्रिम उर्वरक, रासायनिक कीटनाशक और ऊंची पैदावार वाले हाइब्रिड अनाज भूख और बढ़ती आबादी की समस्या का समाधान और आर्थिक समृद्धि को बढ़ाने वाले दिखते थे. 1960 और 2015 के बीच खेती की पैदावार तिगुनी से अधिक हो गई. नतीजा यह हुआ कि कम लागत वाले भोजन की भरमार हो गई और दुनिया में खाद्यान्न की कमी उतनी नहीं रही.

लेकिन हर बात जैसे सोची थी, वैसी हुई नहीं. कॉर्पोरेट कंपनियों की अगुआई में दशकों चली औद्योगिक फार्मिंग ने पर्यावरण की दुर्गति कर दी है. उसने जलवायु और जैव-विविधता को तबाह कर दिया है और आगे खाद्य उत्पादन के बारे में कुछ गंभीर चिंताएं पैदा की हैं. इसके बावजूद दुनिया भर में इन कंपनियों से चंदे में पैसा पाने वाली राजनैतिक पार्टियों की सरकारें आज वैज्ञानिक सरोकारों के मुकाबले उनके ही एजेंडा को तरजीह दे रही हैं. वे मुंह बाए खड़े अस्तित्व संबंधी संकटों से निबटने के लिए विज्ञान की अनदेखी कर रही हैं.

दरअसल, औद्योगिक फार्मिंग ऐसी आधुनिक फार्मिंग है, जो फसलों के अलावा पशुओं और अंडे या दूध जैसे उनके उत्पादों को बड़े पैमाने पर पैदा करती है, जिसमें फसलों पर अक्सर रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल किया जाता है अथवा पशुओं में उनके बीमार न होने पर भी उन्हें गंदी परिस्थितियों तक में जिंदा रखने के लिए एंटीबायोटिक दवाओं का नियमित रूप से हानिकारक इस्तेमाल किया जाता है.

अंतरराष्ट्रीय शिखर सम्मेलनों तक में इस तथ्य की ओर कम ही ध्यान दिया गया है कि जलवायु संकट में औद्योगिक फार्मिंग की भूमिका है. दुनिया भर में इसने क्या उलटा खेल खेला है, इसे नीचे दिए कुछ तथ्यों से समझा जा सकता है:

कुछ अनुमानों के अनुसार, औद्योगिक फार्मिंग के चलते जितनी ग्रीनहाउस गैस बनती है, हवा-पानी प्रदूषित होता है, और जंगली जीव-जंतुओं की तबाही होती है, उसकी पर्यावरण को हर साल लगभग 30 खरब अमेरिकी डॉलर के बराबर कीमत चुकानी पड़ती है. दूषित पानी को पीने लायक बनाने या नाकाफी आहार लेने से जुड़ी बीमारियों के इलाज पर आने वाले खर्च का तो कोई हिसाब ही नहीं है. मतलब यह कि इसका सारा बोझ बेखबरी में लोगों को ही टैक्सों के रूप में चुकाना पड़ता है.

इससे वायरस के लिए पशुओं से इंसानों में फैलना आसान हो गया है. वैसे, पशु आनुवंशिक विविधता (genetic diversity ) की वजह से कुदरती तौर पर ही रोगों का मुकाबला करने के लायक होते हैं. लेकिन उनकी सघन फार्मिंग से रेवड़ों और झुंडों में आनुवंशिक समानताएं पैदा हो जाती हैं. इस वजह से रोगाणुओं का उन पर ज्यादा असर होता है, और जब उन्हें पास-पास रखा जाता है तो वायरस उनमें आसानी से फैल जाते हैं. सघन फार्मिंग होने से रोगाणुओं के लिए जंगली पशुओं से फार्म के पशुओं में और फिर मनुष्यों तक पहुंचना आसान हो जाता है.

खेती का रकबा बढ़ाने के लिए जंगलों को साफ करने के साथ-साथ जंगली जीवों को मारने और फार्मों को शहरी केंद्रों के नजदीक ले जाने से कुदरती तौर पर बने ऐसे बीच के इलाके भी तबाह हो गए हैं, जो मनुष्यों को जंगली पशुओं के बीच विचरते वायरस से बचाते हैं. यूएनईपी के हाल ही के एक आकलन के अनुसार, पशु प्रोटीन की बढ़ती मांग, खेती की गैर-टिकाऊ बढ़ोतरी और जलवायु परिवर्तन ऐसी चीजें हैं, जिनसे पशुजन्य रोग उभर आए हैं.

कीटाणुनाशक दवाओं की भी इसमें खासी भूमिका रही है. अमूमन ये दवाएं बीमारी की रोकथाम और इलाज के काम आती ही हैं, पशुधन की वृद्धि में तेजी लाने के लिए भी इस्तेमाल की जाती हैं. धीरे-धीरे, कीटाणु इसके आदी हो जाते हैं, जिससे वे दवाएं उतनी कारगर नहीं रह जातीं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, कीटाणुनाशकों का कारगर न रह पाना "आधुनिक चिकित्सा की उपलब्धियों के लिए खतरा है" और इससे ऐसा दौर आ सकता है, "जिसमें मामूली संक्रमण और छोटी-मोटी चोट भी घातक हो सकती है".

औद्योगिक फार्मिंग के अंतर्गत खेती की पैदावार बढ़ाने के लिए बड़ी मात्रा में रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक इस्तेमाल किए जाते हैं और ये जहरीले पदार्थ मनुष्य के भोजन के जरिये उसके पेट में जाते हैं, जिसका नतीजा स्वास्थ्य बिगड़ने में निकलता है. कुछ कीटनाशकों के बारे में साबित हो चुका है कि वे हॉर्मोन प्रणाली में बाधा बनकर प्रजनन कार्यों को प्रभावित करते हैं, स्तन कैंसर को बढ़ावा देते हैं, बच्चों के असामान्य विकास का कारण बनते हैं और प्रतिरक्षक प्रणाली को बदल देते हैं. 

इस फार्मिंग की प्रदूषण फ़ैलाने में बड़ी भूमिका है. इससे बड़ी मात्रा में खाद, रसायन, एंटीबायोटिक दवाएं और संवृद्धिकारक हॉर्मोन जल स्रोतों में मिल जाते हैं जिससे जल-जंतुओं और मनुष्य दोनों के स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा होता है.

इस तरह की खेती मुख्य रूप से माल रूपी फसलों को पैदा करती है, जिनका इस्तेमाल अनेक प्रकार के सस्ते, घनघोर कैलोरीयुक्त और व्यापक रूप से उपलब्ध खाद्य पदार्थों में किया जाता है. नतीजा यह है कि समस्त आहार की 60 प्रतिशत ऊर्जा सिर्फ तीन अनाजों यानी चावल, मक्की और गेहूं से प्राप्त की जाती है. इससे भूख से पीड़ित लोगों का अनुपात हालांकि कम हो गया है, लेकिन कैलोरी आधारित इस दृष्टिकोण से लगभग सभी समुदायों में प्रोसेस्ड, पैकेज्ड और तैयार खाद्य पदार्थों की लोकप्रियता बढ़ी है. इससे बहुत-से लोग हृदय रोग, स्ट्रोक, मधुमेह और कुछ किस्म के कैंसर जैसी रोकथाम करने योग्य उन बीमारियों से पीड़ित हैं, जिनका संबंध अक्सर आहार से है.

सभी फार्मों के मुकाबले छोटे खेत हालांकि 72 प्रतिशत हैं, लेकिन उनके पास खेती की महज 8 प्रतिशत जमीन है. उधर, बड़े फार्म भले ही दुनिया के कुल फार्मों का महज 1 प्रतिशत हैं, लेकिन खेती की 65 प्रतिशत जमीन पर वे ही काबिज हैं. इसके चलते बड़े फार्मों के पास बेहिसाब ताकत है. इसलिए ऐसी तकनीकें विकसित करने के लिए, जो विकासशील देशों समेत संसाधनहीन छोटी जोतों वाले किसानों को फायदा पहुंचा सकें, बहुत कम प्रोत्साहन मिलता है. दूसरी तरफ, गरीबों को उपलब्ध भोजन घनघोर ऊर्जा से भले लैस है, लेकिन उसमें हमेशा पोषक तत्वों की कमी होती है. इससे रोगों से लड़ने की उनकी ताकत क्षीण होती है. गरीब लोग उत्पादक और उपभोक्ता दोनों तरह से घाटे में रहते हैं.

20वीं सदी की शुरुआत में, हैबर और बॉश नामक दो जर्मन वैज्ञानकों ने ऐसी प्रक्रिया अपनाई जिसने आधुनिक खेती को बदल दिया. यह प्रक्रिया बहुत उच्च तापमान और दबाव के इस्तेमाल के जरिये हवा से नाइट्रोजन निकालकर उसे हाइड्रोजन के साथ जोड़ती है, और अमोनिया पैदा कर लेती है. यही अमोनिया अब रासायनिक उर्वरक उद्योग का आधार है. नतीजा यह हुआ कि प्रकृति की अपनी उर्वरीकरण प्रक्रिया (सूर्य, स्वस्थ सूक्ष्म जैविक मिट्टी, फसल चक्र) चलन से बाहर हो गई. आज, अमोनिया उत्पादन की प्रक्रिया दुनिया की कुल ऊर्जा आपूर्ति का 1-2 प्रतिशत खर्च कर लेती है, और दुनिया में बनने वाली कुल कार्बन डाइऑक्साइड में करीब 1.5 प्रतिशत का योगदान देती है.

0 Comments:

Post a Comment

Subscribe to Post Comments [Atom]

<< Home