रेलगाड़ियों को आधुनिक बनाने पर अरबों रु. खर्च, पर सुरक्षा के नाम पर ठेंगा
तामझाम तो हमारी रेल-व्यवस्था का बहुत जोरदार है और यह करीब 1.4 अरब की आबादी वाले दुनिया के इस सबसे बड़े देश की जीवनरेखा मानी जाती है, जिसमें रोजाना कोई 2.50 करोड़ यात्री कुल मिलाकर हमारी पृथ्वी के घेरे से भी दोगुने 1,00,000 किमी में फैले रेलमार्गों में से 67,368 किमी पर सफर तय करते हैं. यह बात दीगर है कि उच्च वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग के लिए चलाई गई वंदे भारत एवं राजधानी सरीखी कुछ गिनी-चुनी गाड़ियों और ऊंचे दर्जे के स्लीपर डिब्बों को छोड़कर ज्यादातर गाड़ियों में घटिया ढंग की सीटें/स्लीपर लगे हुए हैं और सेहत के लिए गंदगी भरा अत्यंत खराब माहौल है.
बहरहाल,
शुक्रवार
शाम को ओडिशा के बालासोर में दो यात्री गाड़ियों और एक मालगाड़ी के बीच हुई अति भयानक भिड़ंत इसका
नकारात्मक पक्ष है. इसमें 288 लोगों के मरने और
कोई 1,000 के घायल होने की
सरकारी तौर पर पुष्टि की गई है. इससे पहले 1999 में ऐसा हादसा हुआ
था जिसमें 285 लोग मारे गए थे.
दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राज में ज्यादातर जोर
रेल-व्यवस्था में तड़क-भड़क बढ़ाने और आधुनिकीकरण के नाम पर उच्च वर्ग एवं उच्च मध्यम
वर्ग के लिए सुविधाएं खड़ा करने पर दिया गया है. इसमें 2024 तक सारे रेलमार्गों का विद्युतीकरण भी शामिल है. लेकिन
सुरक्षा में चूक भारत में रेल-व्यवस्था की सबसे बड़ी समस्या है.
पिछले दो दशक से रेलवे में हादसों को रोकने के लिए कई
तकनीकों पर विचार ज़रूर हुआ है, लेकिन आज भी एक
ऐसी तकनीक का इंतज़ार है जो रेलवे की तस्वीर बदल सके. जीपीएस आधारित एंटी कोलिजन
डिवाइस, फिर विजिलेंस कंट्रोल डिवाइस, इसके बाद ट्रेन
प्रोटेक्शन वॉर्निंग सिस्टम और ट्रेन कोलिजन अवाइडेंस सिस्टम पर भी विचार हुआ. ऐसी
तकनीक विदेश से ख़रीदने पर यह बहुत महंगी साबित हो रही थी, लिहाजा रेलवे ने
2011-12 में ममता बनर्जी के रेलमंत्री रहते इसे ख़ुद विकसित करके 'कवच' नाम की देशी
तकनीक को अपना लिया, जिसमें रेलगाड़ियों में ऑटोमेटिक ब्रेक लग जाते
हैं. दावा किया गया था कि इस तकनीक को भारतीय रेल के सभी व्यस्त मार्गों पर लगाया
जाएगा, ताकि रेल हादसों को रोका जा सके. गाड़ियों के इंजन के अलावा
रेलमार्गों पर भी लगाए जाते इस उपकरण से दो गाड़ियों के एक ही मार्ग में एक-दूसरे
के क़रीब आने पर ट्रेन सिग्नल, इंडिकेटर और
अलार्म के ज़रिए गाड़ी के पायलट को इसकी सूचना मिल जाती है.
लेकिन अजीब बात है कि
9 वर्ष के अपने कार्यकाल में मोदी सरकार कुल 67,368 किमी रेलवे
लाइन में से मात्र 1,445 किमी पर यानी रेलमार्गों के मात्र 2 फीसदी हिस्से में ही यह तकनीक लागू कर पाई है. वजह: यह
काम मोदी सरकार की प्राथमिकता
सूची में बहुत नीचे है. हाल के दिनों में सरकार ने अत्यधिक राशि बुनियादी ढांचे और
सुरक्षा उपायों को मजबूत बनाने के लिए तो आवंटित की है, लेकिन उसमें ज्यादा जोर नए आधुनिक स्टेशन बनाने और उच्च गति
वाली वंदे भारत को शुरू करने पर है. दुर्घटना के अगले दिन भी मोदी गोवा और मुंबई
को जोड़ने के लिए ऐसी ही उच्च गति वाली एक नई गाड़ी का उद्घाटन करने वाले थे, जो कोलिजन अवाइडेंस सिस्टम से लैस थी.
पिछले कुछ साल में
रेलगाड़ियों के पटरियों से उतरने के मामले बढ़ गए हैं. विशेषज्ञों ने हर बार रेल
सुरक्षा उपायों पर चिंताएं जाहिर की हैं, फिर भी सरकार का सारा जोर चमक-दमक वाली आधुनिकता परियोजनाओं
पर है. यात्रियों की मांग को पूरा करने के लिए गाड़ियां तो धड़ाधड़ चला दी गई हैं, मगर इसके साथ-साथ रेल कामगारों की संख्या में वृद्धि नहीं
की गई है. कुछ समय पहले बताया गया था कि समूचे देश में विभिन्न स्तर
के रेल सुरक्षा कर्मचारियों के 1.42 लाख पद खाली
पड़े हुए हैं. इससे वर्तमान कर्मचारियों पर
काम का भारी दबाव आ गया है. साथ ही सुरक्षा उपाय लागू करने का काम भी मंद गति से
आगे बढ़ रहा है.
बताते हैं कि रेलवे अधिकारियों को गत छह माह में दो बार
सिग्नल प्रणाली में त्रुटियों और रेलगाड़ियों के पटरियों से उतरने को लेकर चेतावनी
दी गई थी. लेकिन वह शायद नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गई. पिछले साल
दिसंबर में "कैग" ने रेलगाड़ियों के पटरियों से उतरने के 24 कारण गिनाए थे
और पाया था कि रेलमार्गों का अपर्याप्त रखरखाव ऐसी दुर्घटनाओं की मुख्य वजह है.
फिर, इसी साल फरवरी में दक्षिण-पश्चिम रेलवे के मुख्य परिचालन
प्रबंधकों के प्रमुख ने रेलवे अधिकारियों को सिग्नल प्रणाली में त्रुटियों को आगाह
करते हुए लिखा था कि अगर उन्हें ठीक नहीं किया गया तो गंभीर दुर्घटनाएं हो सकती
हैं.
और शुक्रवार को सचमुच ऐसी गंभीर दुर्घटना हो गई.

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