Monday, May 29, 2023

हिंदुत्ववादी एजेंडा के ऐन अनुकूल

कल राजधानी दिल्ली में भारतीय संसद की नई इमारत का वैदिक विधि विधान से उद्घाटन किए जाने के अवसर पर धोती-कुर्ता पहने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हवन और पूजा कार्यक्रम में शामिल होने से लेकर संसद भवन में सेंगोल स्थापना के बाद 20 पंडितों से आशीर्वाद लेने तक, हिंदू कर्मकांड और सामंती प्रतीकों का जो इस्तेमाल किया, वह भाजपा के हिंदुत्ववादी एजेंडा के ऐन अनुकूल है. यह बात दीगर है कि इस उपक्रम को देश और दुनिया के सामने कुछ कदर संतुलित रूप से पेश करने के लिए उन्होंने सर्व-धर्म प्रार्थना समारोह का आयोजन भी करवाया, जिसमें किस्म-किस्म के धार्मिक नेताओं ने विभिन्न भाषाओं में प्रार्थना की.

दरअसल धर्म को राजनीति से जोड़ने का नजरिया ही गलत है. और देश में ज्यादातर राजनैतिक पार्टियां इसी को अमल में ला रही हैं. आज मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा हिंदुत्व का राजनैतिक नारा देकर यह सब कर रही है तो कांग्रेस समेत दूसरी अनेक पार्टियां सर्वधर्म सम भाव यानी फर्जी धर्मनिरपेक्षता के दृष्टिकोण का पालन करती आ रही हैं.

सबसे बड़ी कांग्रेस पार्टी तो शुरू से ही कथनी में सर्वधर्म सम भाव का नारा देकर, करनी में मुख्य रूप से बहुसंख्यक समुदाय का और कई राज्यों एवं जगहों पर अलग-अलग धर्मों का इस्तेमाल करती आई है. पिछले 75 साल में देश में ज्यादातर कांग्रेस की सरकारें रहीं (21 साल से अधिक की गैर-कांग्रेस सरकारों की अवधि को छोड़कर) और उन्होंने लोगों को अंधविश्वासी ही बनाए रखा और किसी भी क्षेत्र में लोगों का वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित नहीं होने दिया.

यहां तक कि 1947 में सत्ता हस्तांतरण के मौके की शुरुआत से ही देखें तो जवाहरलाल नेहरू की अगुआई में खुद कांग्रेस के तत्कालीन नेता उसे मुख्य रूप से बहुसंख्यक समुदाय का आयोजन बनाने के लिए दिन-रात एक कर रहे थे. उस समय घटित वाकयात का विवरण अमेरिकी लेखक लैरी कॉलिंस और फ्रांसीसी लेखक डोमिनीक लापिएर ने अपनी अंग्रेजी पुस्तक फ्रीडम ऐट मिडनाइट (हिंदी में आजादी आधी रात को) में किया है. उनके अनुसार, दक्षिण भारत के दो ब्राह्मणों ने नेहरू पर "गंगाजल छिड़का, उनके माथे पर भभूति मली, हाथों में राजदंड रखा और पवित्र वस्त्र ओढ़ा दिए...नेहरू ने सहर्ष और विनम्रतापूर्वक आज्ञापालन किया." पुस्तक में इसी तरह के दृश्य का जिक्र उन्होंने संविधान सभा के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद के आवास के बारे में भी किया है.

लेखक द्वय ने पुस्तक में बताया है कि भारतीय स्वतंत्रता की तिथि और समय को लेकर भी किस तरह बहस छिड़ गई थी. कुछ ज्योतिषियों का मानना था कि आकाश में शनि और राहु की स्थिति के चलते 15 अगस्त की सुबह का मुहूर्त शुभ नहीं है. दक्षिण एशिया में शिकागो डेली के उस समय के संवाददाता फिलिप्स टैलबोट ने भी, जो बाद में राजनयिक बन गए थे, अपने एक अमेरिकी दोस्त को तब इसके बारे में लिखा था: "ज्योतिषियों का कहना है कि सत्ता हस्तांतरण के लिए निर्धारित 15 अगस्त का दिन अशुभ है." सत्ता संभालने के लिए शायद इसीलिए कांग्रेस के नेताओं ने रात के 12 बजते ही संविधान सभा का अधिवेशन बुला लिया था.

कुल मिलाकर, धर्म को राजनीति से जोड़ने के नजरिये ने देश में ऐसी राजनैतिक प्रतियोगिता शुरू कर दी है, जिसमें मुख्य रूप से एक तरफ हिंदुत्व का राजनैतिक नारा और दूसरी तरफ सर्वधर्म सम भाव यानी फर्जी धर्मनिरपेक्षता का राजनैतिक दृष्टिकोण अपने-अपने वोट बैंक बनाने के लिए लोगों को सांप्रदायिक आधार पर बांटता चला जा रहा है. एक वक़्त था जब धर्म समाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया करता था. तब राजा-महाराजा और बड़े सामंत ईश्वर के अवतार माने जाते थे और लोग "सर्वशक्तिमान" में आस्था रखते थे और अंधविश्वासी हुआ करते थे. लेकिन पूंजीवादी युग की शुरुआत के बाद दुनिया जब जनता को शक्ति का स्रोत मानने लगी तो तर्क और युक्ति के साथ धर्म का सामंजस्य नहीं बैठ पाया. यही वजह है कि औद्योगिक रूप से विकसित देशों में धर्म लोगों का निजी मामला बन गया और वह राष्ट्र या समाज का आधार नहीं रहा.

आज कॉर्पोरेट पूंजीवाद के दौर में जब जलवायु परिवर्तन के चरम संकट का मुकाबला करने और इंसाफपसंद बराबरी वाला समाज बनाने के लिए लोगों को संगठित होने की सख्त जरूरत है. ऐसे में भाजपा हो या कांग्रेस, धर्म को राजनीति से जोड़ने का उनका नजरिया लोगों की एकता में बाधक बन रहा है. इसलिए इस नजरिये को समझना और उसका विरोध करना बहुत जरूरी है.



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