आखिर क्या है सेंगोल?
आजकल सेंगोल को लेकर बड़ी चर्चा है. कल 28 मई के दिन नई दिल्ली में नए संसद भवन का उद्घाटन होगा और उस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तमिलनाडु से आए सेंगोल को स्वीकार करेंगे और लोकसभा अध्यक्ष के आसन के पास इसे स्थापित करेंगे.
इससे, जाहिर है, सवाल पैदा होता है: आखिर सेंगोल है क्या?
किसी इतिहासकार ने इसके बारे में शायद ही कहीं लिखा है, लेकिन आज की तारीख में सरकारी नेता और मीडिया यह "राज" खोल रहे हैं कि राजदंड के रूप में यह एक ऐसा प्रतीक है जिसका इतिहास सदियों पुराना है. कहा जा रहा है कि इसका रिश्ता चोल राजवंश (11वीं-12वीं शताब्दी) से रहा है और उस दौरान राजदंड सेंगोल का इस्तेमाल सत्ता हस्तांतरण के समय किया जाता था. तब राजा बदलता था तो पहला राजा अपने उत्तराधिकारी राजा को सेंगोल सौंपता था. यह भी कहा गया है कि यह शब्द तमिल भाषा से लिया गया और इसके नामकरण का आधार संस्कृत शब्द 'संकु' यानी शंख है.
दावा किया जा रहा है कि यह 'राजदंड' भारत की स्वतंत्रता से जुड़ा महत्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रतीक है. यह भी कि 1947 में अंग्रेजों ने जब भारत की आजादी का ऐलान किया था तो लॉर्ड माउंटबेटन ने सत्ता के हस्तांतरण को लेकर नेहरू से पूछा कि यह प्रक्रिया कैसे पूर्ण की जाए. बताते हैं, तब नेहरू ने सी. राजगोपालचारी से राय ली. उन्होंने नेहरू को सेंगोल के बारे में जानकारी दी. फिर, सेंगोल तमिलनाडु से मंगाया गया, जिसे अंग्रेजों ने राज हस्तांतरण के रूप में 14 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि में पंडित जवाहरलाल नेहरू को सौंपा था और वह सत्ता के हस्तांतरण का प्रतीक बना. लेकिन भारत सरकार ने इसका उपयोग 1947 के बाद से नहीं किया. कल मोदी उसे लोकतंत्र के प्रतीक के स्वरूप में स्थापित करने वाले हैं.
इसमें दो बातें समझने वाली हैं. एक तो यह कि सेंगोल एक राजा से दूसरे को सत्ता के हस्तांतरण के लिए ही विख्यात रहा है और नामी पंडित उसका परिष्करण किया करते थे. राजा और ब्राह्मणवाद दोनों ही भारत के इतिहास में सामंतशाही के स्तंभ रहे हैं. इसलिए ऐसे प्रतीक की प्रासंगिकता किसी राजतंत्र में तो होती है, अन्य व्यवस्था में उसकी कोई जगह नहीं हो सकती. दूसरी बात यह है कि इसका ऐतिहासिक महत्व जरूर है, जिसके चलते इसके बारे में अध्ययन किया ही जाना चाहिए और इसे किसी संग्रहालय में भी रखा जाना चाहिए. लेकिन संसद में इसकी कोई जगह नहीं हो सकती.
अगर जवाहरलाल नेहरू ने भी आजादी के समय अंग्रेजों से सत्ता हस्तांतरण के लिए इस प्रतीक को स्वीकार किया था तो इसका सामंतवादी स्वरूप नहीं बदल जाता. वैसे, अपने जमाने में खुद नेहरू सामंतवादी प्रतीकों के अलमबरदार रहे हैं.

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