Wednesday, June 7, 2023

भाजपा के राजनैतिक एजेंडा की हित साधना कर रहे इसरो अध्यक्ष

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के अध्यक्ष एस. सोमनाथ अपने कथनों से किसके राजनैतिक एजेंडा का हित साधना चाह रहे हैं? उनका कहना है कि संस्कृत ने भारत में वैदिक काल से ही ज्ञानपूर्ण समाज बनाने में अपनी भूमिका निभाई है? 24 मई को मध्य प्रदेश के उज्जैन में महर्षि पाणिनी संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह को संबोधित करते हुए उन्होंने प्राचीन भारत में विज्ञान की उपलब्धियों का बढ़ा-चढ़ाकर बखान किया. 

उनका कहना था कि हमारे देश में पुराने ज़माने में धातु विज्ञान, ज्योतिष, खगोल विज्ञान, वैमानिकी, भौतिक विज्ञान वगैरह जैसी विज्ञान की विभिन्न शाखाओं में बड़े पैमाने पर तरक्की हुई. उन्होंने दावा किया कि बीजगणित (algebra), वर्गमूल (square root), वास्तुकला (architecture), धातुकर्म (metallurgy) और अंतरिक्ष विज्ञान (space science) के सिद्धांत तक भी वेदों से मिले हैं. ये बाद में अरब देशों से होते हुए यूरोप तक पहुंचे; और फिर, हजारों बरसों बाद यूरोप वाले उसी ज्ञान को आधुनिक विज्ञान की खोजों के रूप में वापस हमारे पास ले आए. उनके अनुसार, करीब 600 ई.पू. से लेकर कोई 900 ई. तक भारतीय उपमहाद्वीप में विज्ञान में सचमुच भारी प्रगति हुई. 

सोमनाथ के इन कथनों ने लोगों के मन में खासा भ्रम पैदा किया है. मामले का सही स्वरूप समझने के लिए आइए पहले हम ज्ञान और विज्ञान के कुछ मूल तत्त्वों पर गौर करते हैं. 

दरअसल, विज्ञान की जिन शाखाओं की बड़े पैमाने पर तरक्की की बात इसरो प्रमुख ने की है, वे उस काल के आसपास या थोड़ा आगे-पीछे दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी विकसित हो रही थीं. इनमें यूनान, मिस्र, मेसोपोटामिया, रोम, चीन वगैरह शामिल थे. सदियों के अनुभव से संचित हुआ भारतीय विज्ञान हालांकि मुख्य रूप से देशज ही रहा, लेकिन दूसरी जगहों के वैज्ञानिकों के साथ उसका पर्याप्त विचार-विनिमय होता रहा है. और यह आदान-प्रदान नियमित रूप से हुआ है. हां, इस ज्ञान को लिखित में संचित और संरक्षित करने में अरब वाले आगे रहे और उनके जरिये वह यूरोप तक पहुंचा. 

हर प्रकार के ज्ञान की उत्पत्ति देशकाल (time and place) की सीमाओं के भीतर होती है (विज्ञान के मामले में भी यह बात सच है). और फिर उसका विकास कई समूहों की अंतरक्रिया के जरिये होता है, जिसके दौरान वे अपने-अपने ज्ञान का आदान-प्रदान करते हैं. ये समूह एक ही संस्कृति से या विभिन्न संस्कृतियों से जुड़े भी हो सकते हैं. हर प्रकार का ज्ञान विभिन्न प्रक्रियाओं में बंटा होता है और उनका विकास कई चरणों में होता है. पहले चरण में किसी प्रक्रिया का पर्यवेक्षण, फिर व्याख्या और अंत में सूत्रीकरण होता है.

वास्तविकता चूंकि सदा बदलती रहती है, इसलिए उसकी अनगिनत प्रक्रियाएं खुद को नए बदलावों के अनुरूप लगातार विकसित करती और सामयिक बनाती  रहती हैं. इस विकास के दौरान सिद्धांत-प्रयोग-फिर सिद्धांत-और-फिर प्रयोग के सिलसिले के चलते सिद्धांतों का परीक्षण होता रहता है. जो सिद्धांत गलत साबित हो जाते हैं, उन्हें छोड़ दिया जाता है. ज्ञान के और विज्ञान के भी विकास का यह सहज सिलसिला है. स्वाभाविक है कि पिछले घटनाक्रमों के मुकाबले बाद के घटनाक्रम ज्यादा उन्नत और समृद्ध होते हैं.

14वीं सदी से लेकर 17वीं सदी तक यूरोप में जो नई जागृति आई, वह दुनिया के इतिहास में एक नया मोड़ था. आधुनिक विज्ञान की शुरुआत 16वीं सदी से होती है और इतालवी खगोलशास्त्री, भौतिक विज्ञानी एवं गणितज्ञ गैलीलियो गैलीली ने घटनाक्रमों के पर्यवेक्षण, उनकी व्याख्या और अंत में उनके सूत्रीकरण की नींव रखी. यह वस्तुनिष्ठ पद्धति प्राचीन सभी पद्धतियों से एकदम भिन्न थी. 

यही वह मजबूत आधार था, जिस पर टिककर आधुनिक विज्ञान के कदम आगे की ओर बढ़ते गए. डार्विन हो या न्यूटन, आइंस्टीन, फैराडे अथवा सी.वी. रमण, जे.सी. बोस, होमी भाभा, विक्रम साराभाई या मेघनाद साहा हों, सभी ने इसके विकास में योगदान दिया है. इस तरह, आज आधुनिक विज्ञान पर आधारित जो ज्ञान है, वह किसी भी संस्कृति के प्राचीन ज्ञान से कहीं अधिक उन्नत और विकसित है. यह बात दीगर है कि पुराने समय के सत्ताधारी वर्गों की तरह आज का कॉर्पोरेट पूंजीवाद भी विज्ञान के सकारात्मक और नकारात्मक पक्षों को अपने लाभ के लिए कमोबेश इस्तेमाल कर लेता है. 

जाहिर है, दुनिया के पास आज जो विज्ञान है वह मनुष्य के संचित ज्ञान की पराकाष्ठा है. लिहाजा प्राचीन काल में यूनानी हों या मिस्र की, भारतीय हों या चीन, अरब वगैरह की दिग्गज प्रतिभाओं ने इसमें जो योगदान दिया उसको मान्यता दी जानी चाहिए और उसका सम्मान किया जाना चाहिए. वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले किसी भी व्यक्ति को संकीर्ण मन का नहीं होना चाहिए. उसे केवल किसी क्षेत्र विशेष या वर्ग विशेष की उपलब्धियों की ही बड़ाई नहीं करनी चाहिए, बल्कि खुले मन से दूसरी प्रतिभाओं की भी कदर करनी चाहिए.

एक सीधा-सा सवाल है कि अगर विज्ञान की अनेक शाखाओं का श्रेष्ठ ज्ञान संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों में ही दिया गया है तो इसरो मात्र उनका उपयोग क्यों नहीं कर रहा? क्या कोई तकनीक या सिद्धांत ऐसा है जिसे उसने वेदों से लिया है और रॉकेट या उपग्रह बनाने में इस्तेमाल किया है? 

यही नहीं, इसरो प्रमुख ने उक्त दीक्षांत समारोह में "सारस्वत अतिथि" के रूप में 13 मिनट का जो अभिभाषण दिया, वह भी मूलतः अंग्रेजी में था. कागज पर लिखी कुछ प्रारंभिक पंक्तियां संस्कृत में पढ़ने के बाद वे अंग्रेजी पर ही लौट आए. इससे लगता है कि उनका अपना ज्ञान भी प्रथमतः "पराई भाषा" से अर्जित किया गया था और वे अपने विचार दूसरों को "पराई भाषा" में ही देने में सक्षम हैं. अर्थात उन्होंने शुद्ध हिंदी की लोकोक्ति - "पर उपदेश कुशल बहुतेरे" - को ही चरितार्थ कर दिखाया है. 

जाहिर है, वैदिक कालीन भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियों का बढ़ा-चढ़ाकर बखान करके सोमनाथ केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी के राजनैतिक एजेंडा की हित साधना ही कर रहे हैं.




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