पर्यावरण की सुरक्षा के नाम पर विनाश
कल विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री ने खूब लंबी-चौड़ी बघारते हुए कहा कि उनकी सरकार के पास पर्यावरण की सुरक्षा के लिए एक स्पष्ट दिशा है. अन्य बातों के अलावा प्रधानमंत्री ने यह दावा भी किया कि भारत पारिस्थितिक संरक्षण और पर्यावरण की सुरक्षा (ecological conservation and environmental protection) पर पूरा ध्यान दे रहा है.
लेकिन केंद्र सरकार ने अनेक ऐसे पग उठाए हैं जो इस दावे का खंडन करते हैं. विडंबना है कि नरेंद्र मोदी ने ऐसे नपे-तुले उद्गार उस समय प्रकट किए जब सरकारी एजेंसियां और सरकारी विभाग पर्यावरण की रक्षा करने की दिशा में काम कर रहे संगठनों और व्यक्तियों का मुंह बंद करने में लगे हैं.
ऐसे लोगों में पर्यावरण संबंधी मामलों के वकील ऋत्विक दत्ता भी हैं, जो वन एवं पर्यावरण से जुड़े गैर-सरकारी संगठन 'लीगल इनिशिएटिव फॉर फॉरेस्ट ऐंड एन्वायरमेंट' चलाते हैं. केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव के साथ मिलकर 2011 में "सुप्रीम कोर्ट ऑन फॉरेस्ट कंज़र्वेशन" नामक किताब लिख चुके दत्ता पर आरोप है कि उन्हें फॉरेन कॉन्ट्रिब्यूशन रेगुलेशन एक्ट का उल्लंघन कर अमेरिका की एक संस्था से चंदा मिला था.
पर्यावरण की सुरक्षा से संबंधित एक मामला वन संरक्षण संशोधन विधेयक का है. इस साल मार्च में लोकसभा में पेश किया गया यह विधेयक अगर कानून बन गया तो पहले से सिकुड़ते जंगलों के अनेक क्षेत्र मौजूदा वन संरक्षण अधिनियम, 1980 के सुरक्षात्मक दायरे से बाहर हो सकते हैं. इसमें भूमि की कई श्रेणियों को वन संरक्षण अधिनियम के सुरक्षात्मक प्रावधानों से हटा दिया गया है. विशेषज्ञों में चर्चा है कि उक्त विधेयक का उद्देश्य दरअसल कॉर्पोरेट कंपनियों के लिए मार्ग प्रशस्त करते हुए वन भूमि को वाणिज्यिक उपयोग के लिए खोलना है.
पारिस्थितिक संरक्षण से जुड़ा एक मामला ग्रेट निकोबार में अंतरराष्ट्रीय ट्रांसशिपमेंट बंदरगाह का है, जिसका निर्माण केंद्र सरकार आगे बढ़ा रही है. इसके बनने से इस द्वीप के मूल निवासियों और समुद्रतट के साथ-साथ प्रवाल-भित्ति (coral reefs) से लेकर स्थानीय मेगापॉड पक्षी और लेदरबैक कछुए के नीड़ों की उसकी प्राकृतिक संपदा को खतरा पैदा हो जाएगा.
यही नहीं, अंतरराष्ट्रीय सीमा और नियंत्रण रेखा के 100 किमी के भीतर राजमार्गों, पनबिजली परियोजनाओं वगैरह के निर्माण के लिए वन विभाग से किसी मंजूरी की कोई जरूरत नहीं रहेगी. इसका मतलब है कि 15,000 किमी लंबी अंतरराष्ट्रीय सीमा के साथ-साथ पारिस्थितिक रूप से समृद्ध और जैव-विविधता वाले इलाके रणनीतिक परियोजनाओं के नाम पर विनाश के लिए खुले रहेंगे. किस-किस राज्य में इससे कितना पर्यावरण प्रभावित होगा, यह तो बाद में पता चलेगा, लेकिन पांच देशों की सीमाओं से घिरे पूर्वोत्तर के राज्यों में इसका व्यापक प्रभाव होने वाला है.


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