विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर दुनिया को बचाने का लें संकल्प
आज विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर ग्लोबल वॉर्मिंग को रुकवाकर आओ दुनिया को बचाने का संकल्प लें!
दुनिया में 2023 के साल का आगाज़ बेहद गरमी से हुआ. 174 वर्ष के रिकॉर्ड में इस साल का जनवरी माह सातवां सबसे गरम जनवरी माह रहा. मतलब यह कि 2023 ने पिछले सात बरसों के अपने-अपने सबसे गरम साल होने के रिकॉर्ड को तोड़कर लगातार सातवें साल अब तक का सबसे गरम साल होने का रिकॉर्ड बनाया है. सातों बरसों का औसत तापमान 20वीं सदी के औसत से ज्यादा था.
अधिकांश यूरोप और उत्तरी ध्रुव में, अफ्रीका के ज्यादातर हिस्सों और उत्तर अमेरिका के उत्तरी एवं पूर्वी भागों में, दक्षिण अमेरिका के दक्षिणी हिस्सों और उत्तर-पश्चिमी, मध्य एवं दक्षिण-पूर्वी एशिया में, हर जगह तापमान औसत से अधिक रहा. उत्तरी, पश्चिमी एवं दक्षिण-पश्चिमी प्रशांत महासागर और अंध महासागर, हर जगह समुद्री सतह का तापमान भी औसत से ज्यादा था. गरमी बढ़ने के इस रुझान में ग्रीनहाउस गैसों के बनने का बड़ा योगदान है.
इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. यह चेतावनी है कि आबोहवा के मामले में हम आपातस्थिति में आ गए हैं. बिगड़ती आबोहवा, जिसे ग्लोबल वॉर्मिंग कहते हैं, इंसानों और जीवों के लिए लगातार खतरनाक बनती जा रही है.
धरती क्यों हो रही है गरम?
जानी-मानी हकीकत है कि 1760 में पूंजीवाद का युग शुरू होने से पहले धरती पर कोई प्रदूषण नहीं था. ग्रीनहाउस गैसें ज्यादातर दुनिया में बड़ी मशीनों के इस्तेमाल के बाद बढ़ना शुरू हुईं. कारखाने बनने के साथ-साथ वनों की कटाई और प्रदूषण ने वातावरण में भाप के कणों, कार्बन-डाइऑक्साइड, मिथेन और नाइट्रस ऑक्साइड के जमाव में जबरदस्त इजाफा किया है. ये सभी ग्रीनहाउस गैसें हैं जो धरती के सुरक्षा कवच का काम करने वाली ओज़ोन परत को नुक्सान पहुंचाती हैं और गरमी को धरती की सतह के पास घेरकर रखती हैं. इसी का नतीजा है कि आज कॉर्पोरेट पूंजीवाद के युग में ग्लोबल वॉर्मिंग चरम पर पहुंच गई है.
ग्लोबल वॉर्मिंग का क्या हो रहा है खराब असर?
तापमान बढ़ने से ग्लेशियर गल रहे हैं जिससे समुद्र की सतह ऊंची उठकर तटवर्ती इलाकों में रह रहे करोड़ों लोगों के लिए खतरा बन गई है. 2023 में समुद्री सतह 1993 की औसत सतह से 3.9 इंच ऊंची हो गई. वह हर साल एक इंच के करीब आठवें हिस्से की दर से बढ़ रही है.
मौसम में बदलाव करोड़ों लोगों के लिए पानी के स्रोत ग्लेशियरों को ही नहीं गला रहा, नदियों और जलाशयों जैसे पीने के पानी के स्रोतों को भी खराब कर रहा है. पिछले माह ही "साइंस" नामक पत्रिका में प्रकाशित हुए एक अध्ययन में पाया गया है कि मुख्यतः ग्लोबल वार्मिंग के चलते दुनिया की बड़ी झीलों और जलाशयों में से आधी से ज्यादा पिछले 30 साल में सिकुड़ गई हैं.
ग्लोबल वॉर्मिंग ने भारत में बार-बार सूखा पड़ने की घटनाओं में तो वृद्धि की ही है, उसकी लपेट में आने वाले क्षेत्रफल में भी इजाफा किया है. संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण रोकथाम सम्मेलन के अनुसार, 2020-2022 में देश का करीब दो-तिहाई हिस्सा सूखाग्रस्त था. महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य तो इससे बुरी तरह प्रभावित थे और उनकी क्रमशः 62 फीसदी, 44 फीसदी और 76 फीसदी जमीन सूखे की लपेट में आई थी. और उन्हीं में किसानों की आत्महत्याओं की दर ज्यादा थी.
इससे इंसान में बीमारियां फैल रही हैं. इसका असर पक्षियों, जंगलों और जंगली जीवों पर भी पड़ रहा है. बढ़ी गरमी पौधों की बढ़त रोकती है. इससे जंगली जीवों के रहने की जगहें भी सिकुड़ रही हैं. इसके चलते धरती का 75 प्रतिशत पारिस्थितिकी तंत्र (Ecology) नष्ट हो गया है. वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर ज़रूरी क़दम नहीं उठाए गए तो इस सदी में कम से कम 550 प्रजातियां ख़त्म हो सकती हैं.
अभी 22 मई को विश्व मौसम विज्ञान संगठन द्वारा जेनेवा (स्विट्ज़रलैंड) में जारी आंकड़े बताते हैं कि मौसम, आबोहवा और जल स्रोतों में बिगड़ती स्थिति के चलते 1970 और 2021 के बीच दुनिया भर में 11,778 भीषण दुर्घटनाएं हो चुकी हैं. उनकी वजह से 20,87,229 मौतें हुईं और 43 खरब अमेरिकी डॉलर (आज के 3,562 खरब रु.) का नुक्सान हुआ.
मुख्य तौर पर ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते दुनिया में जैसे-जैसे जैव विविधता (Biodiversity) कम होती जा रही है, वैसे-वैसे उसमें भाषायी और सांस्कृतिक विविधता भी घटती जा रही है. विभिन्न प्रकार के पशुओं और पेड़-पौधों के बड़े पैमाने पर विलुप्त होते जाने के साथ-साथ भाषाएं भी चिंताजनक दर से मर रही हैं. कुछ भाषाविद् अनुमान लगा रहे हैं कि दुनिया की 50-90 प्रतिशत भाषाएं इस सदी के अंत तक समाप्त हो जाएंगी.
ग्लोबल वॉर्मिंग होती रही तो क्या होगा अंजाम?
दुनिया भर में मौसम परिवर्तन के अलग-अलग प्रभाव होंगे. संयुक्त राष्ट्र द्वारा मौसम परिवर्तन को लेकर गठित दल, आइपीसीसी के मुताबिक़, अगर दुनिया में तापमान में बढ़ोतरी 1.5 डिग्री सेल्सियस के भीतर नहीं रखी गई तो : समुंदर के पानी की बढ़ती सतह के चलते कोई 25-30 साल बाद एशिया-प्रशांत क्षेत्र में लगभग 1 अरब लोग प्रभावित होंगे; मुंबई, ढाका, बैंकाक, हो ची-मिन्ह सिटी, जकार्ता और शंघाई जैसे शहरों के डूबने का खतरा है; ब्रिटेन और यूरोप अत्यधिक बारिश की वजह से भयानक बाढ़ की चपेट में आ जाएंगे; मध्य-पूर्व के देश अत्यधिक गर्मी की लहरों और व्यापक सूखे का अनुभव करेंगे; प्रशांत क्षेत्र के द्वीप देश समुद्र में डूब सकते हैं; कई अफ़्रीकी देशों को सूखे और भोजन की कमी का सामना करना पड़ सकता है; पश्चिमी अमेरिका में सूखे की स्थिति होने की संभावना है, जबकि अन्य इलाकों में ज़्यादा तीव्र तूफ़ान देखने को मिलेंगे; ऑस्ट्रेलिया में अत्यधिक गरमी और जंगल की आग से मौतें होने की संभावना होंगी.
आज ग्लोबल वॉर्मिंग जीने-मरने का सवाल बन गई है. साइंसदानों का कहना है कि गरमी 1950 वाले सालों के मुकाबले कोई 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ी है. इस रफ्तार से 2050 तक धरती का औसत तापमान 5 से 7 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने का अनुमान है. ऐसा हुआ तो दुनिया से कुदरती बर्फ गायब हो जाएगी. बारिश लाने वाले जंगल तबाह हो जाएंगे और उनकी जगह रेगिस्तान ले लेंगे. पीने का पानी उपलब्ध नहीं होगा. खेती होने का तो सवाल ही नहीं उठता. समुद्र के पानी का स्तर 19-20 फुट ऊपर उठ जाएगा. ज्यादातर धरती रहने लायक नहीं बचेगी. हां, दुनिया में रहने लायक दो नए इलाके होंगे — कनाडा और साइबेरिया. वहां भी गरमियों में इतनी गरमी होगी कि समुद्र तट से दूर फसल उगाना मुश्किल होगा. और कहीं परमाणु युद्ध हो गया तो पूरी इंसानी बिरादरी ही समूल नष्ट हो जाएगी.
इसके लिए क्या कर रही है दुनिया?
इसको लेकर दुनिया में 1972 से कई बड़ी बैठकें हो चुकी हैं. पिछले साल भी मिस्र के शर्म-अल शेख में संयुक्त राष्ट्र जलवायु कॉन्फ्रेंस हुई थी. लेकिन वे सभी ग्रीनहाउस गैसों को सीमित रखने या उन्हें कम करने में नाकाम रहीं. दुनिया भर में सत्ताभोगी राजनीतिक और कारोबारी ग्रुप आबोहवा को पैदा हुए खतरे के बारे में न तो लोगों को जगाने और न ही उन्हें जोड़ने को लेकर सीरियस हैं.
इनमें सबसे ज्यादा रुकावट डालने वाला अमेरिका है, जिसने हर बैठक के बुनियादी फैसलों को मानने से इनकार किया और उनकी हेठी की. नतीजा यह है कि जीने-मरने का सवाल बने आबोहवा संकट के मामले में दुनिया के कॉर्पोरेट शासक राजनीतिकों, विचारकों, विशेषज्ञों, अर्थशास्त्रियों और संस्कृति के ठेकेदारों पर भरोसा नहीं किया जा सकता. वैसे भी, यह संकट मौसम और इंसान दोनों की विरोधी उनकी पुरानी करनी का ही नतीजा है.
कैसे हो काम आबोहवा को बचाने का?
विशेषज्ञ सहमत हैं कि पर्यावरण को अब भी इन ख़तरों से बचाया जा सकता है. इसके लिए जरूरी है कि हर देश में हर स्तर पर गहरा सामाजिक बदलाव हो. सबको पैदावार करने और उसे इस्तेमाल करने के ऐसे तरीकों पर तेजी से चलना होगा जो धरती की मर्यादा के मुताबिक हों और उनका मकसद बेरहम मुनाफा कमाना नहीं बल्कि लोगों की जरूरतों को पूरा करना हो. निरंकुश उपभोक्तावाद को बढ़ावा देने वाले विकास के जिस मॉडल पर दुनिया आज चल रही है, वह प्राकृतिक संसाधनों को चूस लेने वाला है. वह गरीबों के हितों में तो नहीं ही है, खुद अमीरों के लिए भी खतरनाक है. ग्लोबल वॉर्मिंग अगर बढ़ती गई तो वह किसी को बख्शेगी नहीं.
लिहाजा आबोहवा में आए बदलाव को दुरुस्त करना होगा. इसमें जितनी किसी की आबोहवा को बिगाड़ने की जिम्मेदारी है, ग्रीनहाउस गैसों को कम करने में उसकी उतनी ही जिम्मेदारी तय की जाए. यह सब अपने-आप नहीं होगा. इसके लिए दुनिया में हर जगह लोगों को, इंसानी बिरादरी को बड़े पैमाने पर एक होना होगा ताकि ताकतवर सत्ताभोगी गुट, कॉर्पोरेट कंपनियां और सरकारें सामाजिक बदलाव के रास्ते में रोड़े न अटकाएं और अपनी जिम्मेदारी निभाने के साथ अपने वादे भी पूरे करने के लिए राजी हों. यह दो-तरफा काम होगा — एक तो इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार सत्ताभोगी गुटों, कॉर्पोरेट कंपनियों और सरकारों को उनकी जिम्मेदारी पूरी करने के लिए कहना होगा और दूसरे आम लोगों को खुद ग्रीनहाउस गैसों को कम करने में योगदान देना होगा.
क्या हो सत्ताभोगी गुट, कॉर्पोरेट कंपनियों और सरकारों की जिम्मेदारी?
वे सब मानें किः (1) आबोहवा को सुधारने का काम संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद या ऐसे ही किसी दूसरे समूह की जगह संयुक्त राष्ट्र महासभा के हाथ में दिया जाए. इसमें फैसले बहुमत के आधार पर लिए जाते हैं और उस पर बड़ी ताकतों या अमीर देशों के प्रभुत्व की कम गुंजाइश है. (2) मौजूदा परमाणु शक्तियां ग्लोबल वॉर्मिंग के मद्देनजर अपने सभी परमाणु और दूसरे खतरनाक हथियारों को फौरन नष्ट करें और आगे से ऐसे किसी हथियार को न बनाने का वादा करें. (3) ये शक्तियां हर साल अपने रक्षा बजट की आधी रकम संयुक्त राष्ट्र महासभा के सुपुर्द करें. (4) संयुक्त राष्ट्र महासभा दुनिया में देशों के बीच मौजूद आपसी टकरावों को छह माह के अंदर हल करने का काम करे. यह काम पूरा हो जाने के बाद वह बाकी सभी देशों से कहे कि वे अपने सैन्य बजट पर खर्च बंद करें और अपने-अपने रक्षा बजट की आधी रकम संयुक्त राष्ट्र महासभा के सुपुर्द करें. (5) संयुक्त राष्ट्र महासभा फौरन बड़े पैमाने पर एक ऐसी विकास परिषद बनाए जो एक तरफ ग्लोबल वॉर्मिंग को रोकने के साथ आबोहवा की हिफाजत करने व उसे बढ़ावा देने और दूसरी तरफ दुनिया भर में मानवीय संसाधनों के विकास के लिए एक अथॉरिटी के रूप में काम करे.
क्या हो ग्रीनहाउस गैसें कम करने में आम लोगों का योगदान?
वे सबः (1) अपनी-अपनी सरकारों पर कोयले, तेल और गैस से बिजली पैदा करना बंद करने को कहें और हो सके तो ऐसी बिजली इस्तेमाल न करें; विकल्प न हो तो परंपरागत बिजली का कम-से-कम इस्तेमाल करें. (2) सरकारों को बायो-ईंधन वाली गाड़ियां चलाने को कहें और हो सके तो ऐसी गाड़ियां ही इस्तेमाल करें; विकल्प न हो तो परंपरागत ईंधन वाली गाड़ियों का कम-से-कम इस्तेमाल करें. (3) सरकारों को ज्यादा से ज्यादा पक्के शौचालय बनवाने के लिए कहें और खुले में शौच के लिए न जाएं. (4) सरकारों पर कूड़े-कचरे का ठीक से निबटारा करने के लिए दबाव डालें और खुद कचरा न फैलाएं. (5) पानी का इस्तेमाल घटाने की कोशिश करें. (6) खासकर कुदरती चीजों से उपजे उत्पादों की बर्बादी न करें या विकल्प न हो तो कम-से-कम बर्बादी करें. (7) ज्यादा से ज्यादा पेड़-पौधे लगाएं.
क्या निष्कर्ष निकलता है इससे?
यही कि हम चुपचाप न बैठें. आबोहवा को बचाने के आंदोलन का हिस्सा बनें और उसमें अपनी भूमिका निभाएं. आज हमारी धरती पर ग्लोबल वॉर्मिंग का मारक असर साफ-साफ दिखने लगा है. लिहाजा अपने आसपास के लोगों के बीच ग्लोबल वॉर्मिंग के बारे में और उससे निबटने को लेकर चर्चा करना आज जरूरी हो गया है.
आइए हम सोच और व्यवहार में यह नारा बुलंद करें: जल, जंगल, जमीन बचाओ — न्यायसंगत समाज बनाओ !

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