देशद्रोह कानून को बरकरार रखने की विधि आयोग की सिफारिश
लॉ कमीशन यानी विधि आयोग ने देशद्रोह कानून को लेकर चार दिन पहले केंद्र सरकार को सौंपी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि यह कानून बरकरार रखा जाए. इसे निरस्त करने से "देश की अखंडता और सुरक्षा पर असर" पड़ने की आशंका के चलते उसने इस कानून का दुरुपयोग रोकने के लिए कुछ उपाय सुझाए हैं.
आयोग ने सबसे बड़ी सिफारिश यह की है कि इस कानून के तहत मौजूदा सजा उम्र कैद अथवा तीन साल तक की कैद के प्रावधान को बढ़ाकर उम्र कैद अथवा सात साल तक की कैद कर दिया जाए. दूसरे, उसने प्रस्ताव दिया है कि इस कानून में अभियुक्त के लिए "हिंसा भड़काने या लोगों में अव्यवस्था फैलाने की मंशा से" जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाए. आयोग के अनुसार, इसमें "मंशा" शब्द से आशय सचमुच हिंसा अथवा हिंसा की आसन्न आशंका का सबूत नहीं, बल्कि महज हिंसा भड़काने या लोगों में अव्यवस्था फैलाने की प्रवृत्ति को दंडित करवाने से है.आयोग ने कहा है कि देशद्रोह कानून के दुरुपयोग को रोकने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 के तहत सीधे एफआइआर दर्ज न की जाए बल्कि इंस्पेक्टर या उसके ऊपर के स्तर का अधिकारी मामले की जांच करे और अगर उसे लगता है कि एफआइआर दर्ज करनी है तो राज्य सरकार या केंद्र सरकार की इजाजत मिलने पर ही उसे दर्ज करे.
दरअसल, पिछले साल मई में सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए यानी देशद्रोह कानून पर मामले की सुनवाई करते हुए इसके इस्तेमाल को लेकर चिंता जताई थी. तब केंद्र सरकार ने अदालत से इस धारा के प्रावधानों पर पुनर्विचार की इजाजत मांगी थी, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकारों से कहा था कि केंद्र द्वारा इस कानून पर पुनर्विचार होने तक इस धारा के तहत न तो कोई नया केस दर्ज किया जाएगा और न ही कोई जांच होगी. अदालत ने केंद्र से कहा था कि वह राज्यों के लिए ऐसे दिशानिर्देश तैयार कर सकता है, जिससे पुनर्विचार होने तक इस धारा के तहत गिरफ्तार लोगों के अधिकारों की रक्षा हो सके. इस तरह, 153 वर्षों में पहली बार देशद्रोह कानून के प्रावधानों को स्थगित रखा गया.
सन 1870 में अंग्रेजों के बनाए देशद्रोह कानून के अनुसार, "जो कोई भी बोलकर, या लिखकर या किसी संकेत से या दृष्टिगोचर प्रतीकों के जरिये या किसी दूसरे तरीके से भारत में कानूनी तौर पर स्थापित सरकार के प्रति नफरत या अवमानना पैदा करेगा या पैदा करने की कोशिश करेगा अथवा ऐसी सरकार के प्रति असंतोष भड़काएगा या भड़काने की कोशिश करेगा, उसे उम्र कैद की सजा दी जाएगी, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा, अथवा उसे तीन साल तक की कैद की सजा दी जाएगी, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा, अथवा जुर्माने से दंडित किया जाएगा."
देशद्रोह गैर जमानती अपराध की श्रेणी में है और इस कानून के तहत दोषी पाया गया व्यक्ति न तो सरकारी नौकरी का पात्र होता है और न ही उसे पासपोर्ट मिल सकता है; जरूरत पड़ने पर उसे अदालत में हाजिर भी होना पड़ता है. विडंबना है कि भारत में देशद्रोह कानून बनाने वाले अंग्रेज खुद 2009 में ब्रिटेन में इस कानून को खत्म कर चुके हैं. अभी भारत के अलावा ईरान, अमेरिका, सऊदी अरब, ऑस्ट्रेलिया, मलेशिया जैसे दुनिया के कई देशों में यह कानून लागू है.
अंग्रेजों के ज़माने में इस कानून के अंतर्गत आजादी की लड़ाई लड़ने वालों को निशाना बनाया जाता था. लेकिन उसके बाद कॉर्पोरेट पूंजीवाद और उनके पैसे के बूते चलने वाली एक या दूसरी राजनैतिक पार्टियों की सरकारें इसे मुख्य रूप से जन आंदोलनकारियों और अपने विरोधियों के खिलाफ लगातार इस्तेमाल करती आ रही हैं. समाचार एजेंसी पीटीआइ के 10 मई 2022 के एक प्रकाशन के अनुसार, 2014 और 2019 के बीच भाजपा सरकार ने देश में देशद्रोह के 326 मामले दर्ज किए गए. इन छह वर्षों में 559 लोगों को देशद्रोह के मामले में गिरफ्तार किया गया. 141 मामलों में ही चार्जशीट दाखिल की गई और मात्र 6 मामले सजा के लायक पाए गए. सबसे ज्यादा 54 मामले असम के थे. अकेले 2019 में ही देशद्रोह के 93 मामले दायर किए गए.
इससे पहले की कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार भी मुख्य रूप से जन आंदोलनों पर देशद्रोह कानून का इस्तेमाल कर चुकी है. 2011 में उसने एक साल में ही 130 ऐसे मामले दर्ज किए, जिनमें 21 मामले तमिलनाडु के कुंडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र का विरोध करने वाले लोगों पर थे. यहां तक कि 2010 और 2022 के बीच देशद्रोह कानून के तहत जिन 13,000 लोगों को गिरफ्तार किया गया, उनमें 8,956 तो इसी ऊर्जा संयंत्र का विरोध करने वाले आंदोलनकारी थे. इन 13 बरसों में देशद्रोह के सबसे ज्यादा 65 प्रतिशत मामले अकेले 5 राज्यों - उत्तर प्रदेश (115), बिहार (168), झारखंड (62), तमिलनाडु (139) और कर्नाटक (50) - में दर्ज किए गए.
कांग्रेस समर्थक वरिष्ठ एडवोकेट अभिषेक मनु सिंघवी ने देशद्रोह कानून को लेकर विधि आयोग की सिफारिशों को ठीक ही अधिक "कठोर" करार दिया और कहा कि वे "उपनिवेशी मानसिकता" से प्रेरित हैं. उन्होंने यह भी कहा कि इन सिफारिशों ने गत वर्ष मई और अक्तूबर में हुई सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही की भावना को नजरंदाज किया है, जिसने देश में समस्त देशद्रोह कानून को निष्क्रिय कर दिया था और बाद में उसे निरस्त करने की मंशा रखता था.
उनका मानना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार आने से लेकर 2020 तक देशद्रोह के मामलों में करीब 30 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. महामारी के दौर में ऑक्सीजन और अन्य समस्याओं के विरोध के 12 मामले दर्ज हुए. 21 मामले पत्रकारों पर बनाए गए. 27 मामलों का संबंध नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के मुद्दों से है.
वैसे, सही मायनों में देखें तो बोलने की आजादी पर अंकुश लगाने वाले उपनिवेशी काल के इस घिसे-पिटे कानून की आधुनिक लोकतंत्र में कोई जगह नहीं होनी चाहिए. इसीलिए जन संगठन इसका पुरजोर विरोध करते आए हैं. यही नहीं, बुद्धिजीवियों की विभिन्न श्रेणियां भी कभी इसके समर्थन में नहीं रहीं. संपादकों की संस्था, एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने 18 जनवरी 2021 और 04 जून 2021 के अपने बयानों में इसे आधुनिक उदार लोकतंत्र में अनुपयुक्त "निर्दयी कानून" करार देते हुए इसे निरस्त करने की मांग की थी. इंडियन वीमेन प्रेस कोर ने भी 04 जून 2021 के अपने एक बयान में भारत में केंद्र और राज्य सरकारों दोनों द्वारा पत्रकारों पर देशद्रोह के आरोप लगाने के बढ़ते रुझान को लेकर चिंता जताई थी. प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया ने राज्य सरकारों द्वारा किसान आंदोलन को कवर करने गए वरिष्ठ पत्रकारों पर देशद्रोह कानून के इस्तेमाल की निंदा की थी.
इस सारे मामले पर बहस के बाद कुछ सवाल उठ रहे हैं कि भाजपा सरकार के दौरान देशद्रोह के मामले क्यों बढ़े हैं? क्या सरकार अपनी आलोचना को दबाने के लिए इस कानून को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रही है? क्या यह अगले आम चुनाव से पहले असहमति की आवाज को अधिक सख्ती से रोकने की दिशा में प्रारंभिक कदम है? देशद्रोह के मुकदमे सिर्फ विपक्षी नेताओं पर ही क्यों दर्ज किए गए हैं? क्या भारत सरकार द्वारा मामले को विधि आयोग को सौंपना सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियों की सच्ची भावना के साथ विश्वासघात था?
सही मायने में लोकतांत्रिक नजरिये में विश्वास रखने वाले लोगों का मानना है कि एक तो सरकार के साथ असहमति जताने के किसी मामले को देशद्रोह करार नहीं दिया जाना चाहिए. दूसरे, देश में सरकारी तंत्र और उसके किसी अंग की घोर आलोचना को देशद्रोह की संज्ञा देना कतई ठीक नहीं है. तीसरे, आज के दौर में अगर किसी सरकार के अंदर सकारात्मक आलोचना सुन सकने का माद्दा नहीं है तो वह आजादी की नहीं, गुलामी की अलमबरदार है. चौथे, राष्ट्रीय अखंडता की आड़ में बोलने की आजादी को कुचलना सरासर अलोकतांत्रिक कदम है.
जाहिर है, असहमति और आलोचना किसी जीवंत लोकतंत्र में नीतिगत मुद्दों पर जोरदार खुली बहस का हिस्सा होते हैं. लिहाजा, बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाना लोकतंत्र की मूल आत्मा के विरुद्ध है.

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