मौन की बात
न्यूटन ने गति यानी हरकत को लेकर जो तीन नियम प्रतिपादित किए, उनमें तीसरा नियम यह है कि "हर क्रिया की एक समान और विपरीत प्रतिक्रिया होती है." भारत में भी विज्ञान के क्षेत्र में ऐसा कोई नियम तो प्रतिपादित नहीं हुआ है, लेकिन कर्म का सिद्धांत मानने वाले धार्मिक लोग कहते हैं कि कर्म का फल हर किसी को भोगना पड़ता है.
यह फल किसी ने भोगा है या नहीं, कोई नहीं बता पाता. अलबत्ता किसी क्रिया की एक समान और विपरीत प्रतिक्रिया होते बहुत लोगों ने कई बार देखी है. ऐसी ही कुछ विपरीत प्रतिक्रिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ भी होती दिख रही है, जिन्हें उनके अनुयायी "भारत में अभी तक हुआ सबसे मजबूत प्रधानमंत्री" बताते नहीं अघाते.
तो बात कुछ ऐसी है कि मोदी आजकल "मौन मोदी" हो गए हैं. वजह: 2020-21 के दौरान जब देश भर के किसान संसद के पारित तीन कृषि अधिनियमों के खिलाफ दिल्ली में आंदोलन कर रहे थे तो मोदी ने ख़ामोशी ओढ़कर एक मिसाल कायम की थी, और अब वे कई महीनों से कभी अडानी, कभी बृजभूषण सिंह और कभी मणिपुर को लेकर कुछ कहने से कतराते आ रहे हैं. इन मामलों में उन्होंने एकदम मौन धारण कर रखा है.
इस साल के शुरू में जब इक्विटी, क्रेडिट और डेरिवेटिव्स मार्केट के आंकड़ों का विश्लेषण करने वाली अमेरिका की वित्तीय शोध कंपनी हिंडनबर्ग ने अपनी रिपोर्ट में आरोप लगाया गया कि मोदी के मित्र गौतम अदाणी का समूह दशकों से शेयरों के हेरफेर और अकाउंट की धोखाधड़ी में शामिल है, तो तूफ़ान मच गया था, जिसका खामियाजा अदाणी समूह को शेयर बाजार में अपना मूल्य आधा रह जाने के रूप में भुगतना पड़ा था. इस मुद्दे को लेकर संसद में भी हंगामा खड़ा हुआ था. लेकिन इस पर मोदी बिल्कुल कुछ नहीं बोले.
इसी तरह, उन्हीं दिनों भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष बृजभूषण सिंह पर महिला पहलवानों के साथ कथित यौन दुराचार का आरोप लगाने वाले आला दर्जे के अनेक पहलवान जब उक्त भाजपा सांसद के खिलाफ कार्रवाई की मांग को लेकर सड़कों पर उतर आए और लगभग पांच माह तक आंदोलन में डटे रहे तो मोदी ने तब भी इस मामले में कुछ नहीं कहा.
इस बीच, नफरत के ज़हरीले एजेंडा के चलते मणिपुर दो मूल निवासी समुदायों की आग में जल उठा और उसकी लपटें उठते आज तीसरा महीना गुजर रहा है, लेकिन "पचास करोड़ की गर्लफ्रेंड", "सवा सौ साल की बुढ़िया", "मामा के घर से लाए थे क्या" अथवा "कांग्रेस की विधवा" जैसी अनेक अनियंत्रित टिप्पणियां करने वाले मोदी उस राज्य में हो रहे खून-खराबे की निंदा करना तो दूर, प्रधानमंत्री के रूप में लोगों से शांति बनाए रखने की अपील भी नहीं कर पा रहे हैं.
स्मरण हो कि ये वही मोदी हैं, जिन्होंने 2014 के चुनाव प्रचार के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर चुटकी लेते हुए उन्हें "कमजोर" और बेजुबान" प्रधानमंत्री जैसे विशेषणों से नवाजा था. चुनाव सभाओं में वे उपहास उड़ाते हुए उन्हें अक्सर "मौनमोहन" सिंह नाम से संबोधित किया करते थे. उनका सवाल हुआ करता था कि "मौनमोहन" सिंह जी ने महंगाई जैसे मुद्दों पर चुप्पी क्यों साध रखी है.
सो, विपरीत प्रतिक्रिया के नियम अथवा कथित "कर्म सिद्धांत" ने क्या मोदी को भी आ घेरा है? और वे मौन की चादर ओढ़कर "मौन मोदी" बनने को मजबूर हो गए हैं?


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