Saturday, April 29, 2017

कैसे हो काम आबोहवा को बचाने का?
इसके लिए जरूरी है कि हर देश में हर स्तर पर गहरा सामाजिक बदलाव हो. सबको पैदावार करने और उसे इस्तेमाल करने के ऐसे तरीकों पर तेजी से चलना होगा जो धरती की मर्यादा के मुताबिक हों और उनका मकसद बेरहम मुनाफा कमाना नहीं बल्कि लोगों की जरूरतों को पूरा करना हो. निरंकुश उपभोक्तावाद को बढ़ावा देने वाले विकास के जिस मॉडल पर दुनिया आज चल रही है, वह प्राकृतिक संसाधनों को चूस लेने वाला है. वह गरीबों के हितों में तो नहीं ही है, खुद अमीरों के लिए भी खतरनाक है. ग्लोबल वॉर्मिंग अगर बढ़ती गई तो वह किसी को बख्शेगी नहीं.
लिहाजा आबोहवा में आए बदलाव को दुरुस्त करना होगा. इसमें जितनी किसी की आबोहवा को बिगाड़ने की जिम्मेदारी है, ग्रीनहाउस गैसों को कम करने में उसकी उतनी ही जिम्मेदारी तय की जाए. यह सब अपने-आप नहीं होगा. इसके लिए दुनिया में हर जगह लोगों को, इंसानी बिरादरी को बड़े पैमाने पर एक होना होगा ताकि ताकतवर सत्ताभोगी गुट, कॉर्पोरेट कंपनियां और सरकारें सामाजिक बदलाव के रास्ते में रोड़े न अटकाएं और अपनी जिम्मेदारी निभाने के साथ अपने वादे भी पूरे करने के लिए राजी हों.
यह दो-तरफा काम होगा — एक तो इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार सत्ताभोगी गुटों, कॉर्पोरेट कंपनियों और सरकारों को उनकी जिम्मेदारी पूरी करने के लिए कहना होगा और दूसरे आम लोगों को खुद ग्रीनहाउस गैसों को कम करने में योगदान देना होगा.
क्या हो सत्ताभोगी गुट, कॉर्पोरेट कंपनियों
 और सरकारों की जिम्मेदारी?
वे सब मानें किः (1) आबोहवा को सुधारने का काम संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद या ऐसे ही किसी दूसरे समूह की जगह संयुक्त राष्ट्र महासभा के हाथ में दिया जाए. इसमें फैसले बहुमत के आधार पर लिए जाते हैं और उस पर बड़ी ताकतों या अमीर देशों के प्रभुत्व की कम गुंजाइश है.
(2) मौजूदा परमाणु शक्तियां ग्लोबल वॉर्मिंग के मद्देनजर अपने सभी परमाणु और दूसरे खतरनाक हथियारों को फौरन नष्ट करें और आगे से ऐसे किसी हथियार को न बनाने का वादा करें.
(3) ये शक्तियां हर साल अपने रक्षा बजट की आधी रकम संयुक्त राष्ट्र महासभा के सुपुर्द करें.
(4) संयुक्त राष्ट्र महासभा दुनिया में देशों के बीच मौजूद आपसी टकरावों को छह माह के अंदर हल करने का काम करे. यह काम पूरा हो जाने के बाद वह बाकी सभी देशों से कहे कि वे अपने सैन्य बजट पर खर्च बंद करें और अपने-अपने रक्षा बजट की आधी रकम संयुक्त राष्ट्र महासभा के सुपुर्द करें.
(5) संयुक्त राष्ट्र महासभा फौरन बड़े पैमाने पर एक ऐसी विकास परिषद बनाए जो एक तरफ ग्लोबल वॉर्मिंग को रोकने के साथ आबोहवा की हिफाजत करने व उसे बढ़ावा देने और दूसरी तरफ दुनिया भर में मानवीय संसाधनों के विकास के लिए एक अथॉरिटी के रूप में काम करे.
क्या हो ग्रीनहाउस गैसें कम करने में
आम लोगों का योगदान?
वे सबः (1) अपनी-अपनी सरकारों पर कोयले, तेल और गैस से बिजली पैदा करना बंद करने को कहें और हो सके तो ऐसी बिजली इस्तेमाल न करें; विकल्प न हो तो परंपरागत बिजली का कम-से-कम इस्तेमाल करें.
(2) सरकारों को बायो-ईंधन वाली गाड़ियां चलाने को कहें और हो सके तो ऐसी गाड़ियां ही इस्तेमाल करें; विकल्प न हो तो परंपरागत ईंधन वाली गाड़ियों का कम-से-कम इस्तेमाल करें.
(3) सरकारों को ज्यादा से ज्यादा पक्के शौचालय बनवाने के लिए कहें और खुले में शौच के लिए न जाएं.
(4) सरकारों पर कूड़े-कचरे का ठीक से निबटारा करने के लिए दबाव डालें और खुद कचरा न फैलाएं.
(5) पानी का इस्तेमाल घटाने की कोशिश करें.
(6) खासकर कुदरती चीजों से उपजे उत्पादों की बर्बादी न करें या विकल्प न हो तो कम-से-कम बर्बादी करें.
(7) ज्यादा से ज्यादा पेड़-पौधे लगाएं.
क्या निष्कर्ष निकलता है इससे?
यही कि हम चुपचाप न बैठें. आबोहवा को बचाने के आंदोलन का हिस्सा बनें और उसमें अपनी भूमिका निभाएं. आज हमारी धरती पर ग्लोबल वॉर्मिंग का मारक असर साफ-साफ दिखने लगा है. लिहाजा अपने आसपास के लोगों के बीच ग्लोबल वॉर्मिंग के बारे में और उससे निबटने को लेकर चर्चा करना आज जरूरी हो गया है. आइए हम सोच और व्यवहार में यह नारा बुलंद करें:
जल, जंगल, जमीन बचाओ — न्यायसंगत समाज बनाओ !

आओ आज विश्व पृथ्वी दिवस के अवसर पर संकल्प लें
कि ग्लोबल वॉर्मिंग को रुकवाकर दुनिया को बचाएं !
2017 का जनवरी माह इतिहास में तीसरा सबसे गरम माह दर्ज किया गया. अब मुमकिन है कि मौजूदा साल शायद लगातार चौथा सबसे गरम साल होने का नया रिकॉर्ड कायम करे. इस साल 18 जनवरी को दुनिया की तीन बड़ी एजेंसियों — ब्रिटेन के मौसम विभाग और अमेरिका के नासा (एनएएसए) तथा नोआ (एनओएए) — ने दावा किया कि 2016 ने 2014 तथा 2015 के अपने-अपने सबसे गरम साल होने के रिकॉर्ड को तोड़कर लगातार तीसरे साल अब तक का सबसे गरम साल होने का रिकॉर्ड बनाया है. तीनों सालों का औसत तापमान 19वीं सदी के औसत से ज्यादा था.
सबसे ज्यादा गरम होने का रिकॉर्ड बनाने वाले 17 में से 16 साल भी 2001 से लेकर हाल तक ही हुए हैं. धरती पिछले 50 साल में उससे दोगुनी तेजी से गरम हुई, जितनी उसके पहले 50 साल में हुई थी. दुनिया में समुद्री सतह के औसत तापमान में भी पिछले साल सबसे ज्यादा तापमान बनाने का रिकॉर्ड रहा. आर्कटिक सागर में बर्फ भी औसत से बहुत नीचे पाई गई. गरमी बढ़ने के इस रुझान में ग्रीनहाउस गैसों के बनने का बड़ा योगदान है.
इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. यह चेतावनी है कि आबोहवा के मामले में हम आपातस्थिति में आ गए हैं. बिगड़ती आबोहवा, जिसे ग्लोबल वॉर्मिंग कहते हैं, इंसानों और जीवों के लिए लगातार खतरनाक बनती जा रही है.
धरती क्यों हो रही है गरम?
जानी-मानी हकीकत है कि 1760 में पूंजीवाद का युग शुरू होने से पहले धरती पर कोई प्रदूषण नहीं था. ग्रीनहाउस गैसें ज्यादातर दुनिया में बड़ी मशीनों के इस्तेमाल के बाद बढ़ना शुरू हुईं. कारखाने बनने के साथ-साथ वनों की कटाई और प्रदूषण ने वातावरण में भाप के कणों, कार्बन-डाइऑक्साइड, मिथेन और नाइट्रस ऑक्साइड के जमाव में जबरदस्त इजाफा किया है. ये सभी ग्रीनहाउस गैसें हैं जो गरमी को धरती की सतह के पास घेरकर रखती हैं जिसका नतीजा है कि आज कॉर्पोरेट पूंजीवाद के युग में ग्लोबल वॉर्मिंग चरम पर पहुंच गई है.
ग्लोबल वॉर्मिंग का क्या हो रहा है खराब असर?
तापमान बढ़ने से ग्लेशियर गल रहे हैं जिससे समुद्र की सतह ऊंची उठकर तटवर्ती इलाकों में रह रहे करोड़ों लोगों के लिए खतरा बन गई है. 2014 में समुद्री सतह 1993 की औसत सतह से 2.6 इंच ऊंची हो गई. वह हर साल एक इंच के करीब आठवें हिस्से की दर से बढ़ रही है.
मौसम में बदलाव करोड़ों लोगों के लिए पानी के स्रोत ग्लेशियरों को ही नहीं गला रहा, नदियों और झीलों जैसे पीने के पानी के पुराने स्रोतों को भी खराब कर रहा है.
ग्लोबल वॉर्मिंग से बार-बार सूखा पड़ने और बाढ़ आने के अलावा उनका दायरा भी बढ़ता जा रहा है जिससे लोगों की जानें चली जाती हैं और घर-बार तथा काम-धंधे तबाह हो जाते हैं. इससे खेती और उस पर निर्भर लोगों के लिए मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं. जून 2013 में उत्तराखंड, सितंबर 2014 में कश्मीर और नवंबर 2015 में दक्षिण भारत में बाढ़ के अलावा 2016 में देश के ज्यादातर हिस्सों में सूखा इसकी खास मिसालें हैं.
इससे इंसान में बीमारियां फैल रही हैं. इसका असर पक्षियों, जंगलों और जंगली जीवों पर भी पड़ रहा है. बढ़ी गरमी पौधों की बढ़त रोकती है. इससे जंगली जीवों के रहने की जगहें भी सिकुड़ रही हैं.
ग्लोबल वॉर्मिंग होती रही तो क्या होगा अंजाम?
आज ग्लोबल वॉर्मिंग जीने-मरने का सवाल बन गई है. साइंसदानों का कहना है कि गरमी 1950 वाले सालों के मुकाबले कोई 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ी है. इस रफ्तार से 2050 तक धरती का औसत तापमान 5 से 7 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने का अनुमान है. ऐसा हुआ तो दुनिया से कुदरती बर्फ गायब हो जाएगी. बारिश लाने वाले जंगल तबाह हो जाएंगे और उनकी जगह रेगिस्तान ले लेंगे. पीने का पानी उपलब्ध नहीं होगा. खेती होने का तो सवाल ही नहीं उठता. समुद्र के पानी का स्तर 19-20 फुट ऊपर उठ जाएगा. ज्यादातर धरती रहने लायक नहीं बचेगी.
हां, दुनिया में रहने लायक दो नए इलाके होंगे — कनाडा और साइबेरिया. वहां भी गरमियों में इतनी गरमी होगी कि समुद्र तट से दूर फसल उगाना मुश्किल होगा. और कहीं परमाणु युद्ध हो गया तो पूरी इंसानी बिरादरी ही समूल नष्ट हो जाएगी.
इसके लिए क्या कर रही है दुनिया?
इसको लेकर दुनिया में 1972 से कई बड़ी बैठकें हो चुकी हैं. पिछले साल भी पेरिस में जलवायु कॉन्फ्रेंस हुई थी. लेकिन वे सभी ग्रीनहाउस गैसों को सीमित रखने या उन्हें कम करने में नाकाम रहीं. दुनिया भर में सत्ताभोगी राजनीतिक और कारोबारी ग्रुप आबोहवा को पैदा हुए खतरे के बारे में न तो लोगों को जगाने और न ही उन्हें जोड़ने को लेकर सीरियस हैं.
इनमें सबसे ज्यादा रुकावट डालने वाला अमेरिका है, जिसने हर बैठक के बुनियादी फैसलों को मानने से इनकार किया और उनकी हेठी की. अमेरिका का नया ट्रंप प्रशासन तो दुनिया के सामने किए अपने वादों से खुलेआम मुकरने की हद तक चला गया है.
नतीजा यह है कि जीने-मरने का सवाल बने आबोहवा संकट के मामले में दुनिया के कॉर्पोरेट शासक राजनीतिकों, विचारकों, विशेषज्ञों, अर्थशास्त्रियों और संस्कृति के ठेकेदारों पर भरोसा नहीं किया जा सकता. वैसे भी, यह संकट मौसम और इंसान दोनों की विरोधी उनकी पुरानी करनी का ही नतीजा है.
(इस पर कल विचार करेंगे कि आबोहवा और दुनिया कैसे बचे)

Wednesday, April 26, 2017

दिल्ली नगर निगम के चुनावों में आम आदमी पार्टी (आप) की हार हाल के चुनावों में पार्टी की लगातार तीसरी बड़ी हार है. लोकतंत्र में पार्टियों की हार-जीत होती रहती है, पर जिस पार्टी को दिल्ली विधानसभा चुनावों में मिली जबर्दस्त कामयाबी के बाद देश की राजनीति में कथित नया प्रयोग माना जा रहा था और दावा किया जाने लगा था कि शोषण और अत्याचार वाली पुरानी राजनैतिक व्यवस्था को बनाए रखने वाले राजनैतिक दलों की भीड़ में आखिर कोई दल है जो लोगों की जिंदगी का कायाकल्प कर सकता है, उसकी करारी हार से कुछ बातें निश्चय ही सीखने की जरूरत है.
आप को दिल्ली नगर निगम की कुल 272 में से 40-45 सीटें ही मिलती दिख रही हैं और उसका मत प्रतिशत भी खासा गिर गया है. इसके मुकाबले फरवरी 2015 में यहां हुए विधानसभा चुनावों में पार्टी को कोई 54 प्रतिशत वोट के साथ 70 में से 67 सीटों का प्रचंड बहुमत मिला था. अभी करीब डेढ़ माह पहले कुछ राज्यों में विधानसभा चुनावों में जोरदार जीत के दावे करने के बावजूद पार्टी का गोवा में सफाया हो गया और पंजाब में भी उसका प्रदर्शन उम्मीदों के ऐन उलट रहा. गोवा में तो उसे करीब 6 प्रतिशत वोट के साथ एक भी सीट नहीं मिली जबकि पंजाब में कोई 23 प्रतिशत वोट और 117 में से मात्र 20 सीटें ही हासिल हुईं.
दिल्ली के चुनाव में कोई 160-165 सीटें जीतकर भाजपा अगर तीनों निगमों पर फिर से काबिज होने जा रही है तो इसलिए नहीं कि उसने पिछले 10 साल सत्ता में रहकर दिल्ली को कचरा मु्क्त, रोग मुक्त या प्रदूषण मुक्त करके स्वच्छ स्थानीय स्वशासन दिया. इसके बजाय पार्टी नगर निगमों के कामकाज में निकम्मेपन की पर्याय बन गई थी. इसके बावजूद लोगों ने उसे वोट दिया है तो यह दरअसल मोदी-शाह की जोड़ी की अोर से हिंदु्त्व के नाम पर चुनावी बाजीगिरी का ही नतीजा है, वरना पार्टी का जीत पाना आसान नहीं था.
चुनावों में आप सरीखी पार्टियों के ऐसे हश्र से सीखने वाली पहली बात यह है कि समाज में हर राजनैतिक पार्टी या सामाजिक संस्था को किसी मूल विचारधारा के आधार पर काम करना चाहिए, जो उसे आगे की राह दिखाती है. आप के पास कोई ऐसी मूल विचारधारा नहीं है. उसकी विचारधारा कट्टरपंथी हिंदुत्व का परचम लहराती भाजपा, नरमपंथी हिंदुत्व का प्रतिनिधित्व करती कांग्रेस और पारंपरिक वामपंथी दलों की वर्ग संघर्ष की विचारधारा का मिश्रण ही है. यह मिश्रित विचारधारा अपनी मूल विचारधाराअों की तरह जनता में जागरूकता बढ़ाने के बजाय नेता के करिश्मे को सामाजिक बदलाव के लिए जरूरी मानती है.
दूसरी बात यह है कि समाज परिवर्तन की बात करने वाली हर राजनैतिक पार्टी या सामाजिक संस्था को सत्ता की राजनीति नहीं करनी चाहिए बल्कि लोकतंत्र के पहरुए की भूमिका निभानी चाहिए. ऐसी पार्टियां सत्ता को पाने के लिए तमाम तरह के जन विरोधी समझौते करती हैं और फिर सत्ता में आ जाने के बाद उसे बनाए रखने के लिए हर किस्म की हेराफेरी, गलत हथकंडों और भ्रष्टाचार का सहारा लेती हैं.
तीसरी बात यह है कि आप सरीखी पार्टियां सामाजिक विकास के कांग्रेसी और भाजपाई मॉडल का ही अनुसरण करती हैं, जो निरंकुश उपभोक्तावाद को बढ़ावा देकर प्रकृति का विनाश करता है. यह मॉडल प्राकृतिक संसाधनों का जमकर दोहन करके लगातार ग्लोबल वार्मिंग में इजाफा कर रहा है, जिससे दुनिया में गरीबों ही नहीं अमीरों के सामने भी अस्तित्व को बनाए रखने का संकट गहरा होता जा रहा है. आज जब समाज को प्रकृति के साथ तालमेल करके जनता पर आधारित न्यायसंगत और सतत विकास की जरूरत है, यह पार्टियां उसके उलट चल रही हैं.

Tuesday, April 4, 2017

NHCC, No. 3, Mar 2017, Hindi