दिल्ली नगर निगम के चुनावों में आम आदमी पार्टी (आप) की हार हाल के चुनावों में पार्टी की लगातार तीसरी बड़ी हार है. लोकतंत्र में पार्टियों की हार-जीत होती रहती है, पर जिस पार्टी को दिल्ली विधानसभा चुनावों में मिली जबर्दस्त कामयाबी के बाद देश की राजनीति में कथित नया प्रयोग माना जा रहा था और दावा किया जाने लगा था कि शोषण और अत्याचार वाली पुरानी राजनैतिक व्यवस्था को बनाए रखने वाले राजनैतिक दलों की भीड़ में आखिर कोई दल है जो लोगों की जिंदगी का कायाकल्प कर सकता है, उसकी करारी हार से कुछ बातें निश्चय ही सीखने की जरूरत है.
आप को दिल्ली नगर निगम की कुल 272 में से 40-45 सीटें ही मिलती दिख रही हैं और उसका मत प्रतिशत भी खासा गिर गया है. इसके मुकाबले फरवरी 2015 में यहां हुए विधानसभा चुनावों में पार्टी को कोई 54 प्रतिशत वोट के साथ 70 में से 67 सीटों का प्रचंड बहुमत मिला था. अभी करीब डेढ़ माह पहले कुछ राज्यों में विधानसभा चुनावों में जोरदार जीत के दावे करने के बावजूद पार्टी का गोवा में सफाया हो गया और पंजाब में भी उसका प्रदर्शन उम्मीदों के ऐन उलट रहा. गोवा में तो उसे करीब 6 प्रतिशत वोट के साथ एक भी सीट नहीं मिली जबकि पंजाब में कोई 23 प्रतिशत वोट और 117 में से मात्र 20 सीटें ही हासिल हुईं.
दिल्ली के चुनाव में कोई 160-165 सीटें जीतकर भाजपा अगर तीनों निगमों पर फिर से काबिज होने जा रही है तो इसलिए नहीं कि उसने पिछले 10 साल सत्ता में रहकर दिल्ली को कचरा मु्क्त, रोग मुक्त या प्रदूषण मुक्त करके स्वच्छ स्थानीय स्वशासन दिया. इसके बजाय पार्टी नगर निगमों के कामकाज में निकम्मेपन की पर्याय बन गई थी. इसके बावजूद लोगों ने उसे वोट दिया है तो यह दरअसल मोदी-शाह की जोड़ी की अोर से हिंदु्त्व के नाम पर चुनावी बाजीगिरी का ही नतीजा है, वरना पार्टी का जीत पाना आसान नहीं था.
चुनावों में आप सरीखी पार्टियों के ऐसे हश्र से सीखने वाली पहली बात यह है कि समाज में हर राजनैतिक पार्टी या सामाजिक संस्था को किसी मूल विचारधारा के आधार पर काम करना चाहिए, जो उसे आगे की राह दिखाती है. आप के पास कोई ऐसी मूल विचारधारा नहीं है. उसकी विचारधारा कट्टरपंथी हिंदुत्व का परचम लहराती भाजपा, नरमपंथी हिंदुत्व का प्रतिनिधित्व करती कांग्रेस और पारंपरिक वामपंथी दलों की वर्ग संघर्ष की विचारधारा का मिश्रण ही है. यह मिश्रित विचारधारा अपनी मूल विचारधाराअों की तरह जनता में जागरूकता बढ़ाने के बजाय नेता के करिश्मे को सामाजिक बदलाव के लिए जरूरी मानती है.
दूसरी बात यह है कि समाज परिवर्तन की बात करने वाली हर राजनैतिक पार्टी या सामाजिक संस्था को सत्ता की राजनीति नहीं करनी चाहिए बल्कि लोकतंत्र के पहरुए की भूमिका निभानी चाहिए. ऐसी पार्टियां सत्ता को पाने के लिए तमाम तरह के जन विरोधी समझौते करती हैं और फिर सत्ता में आ जाने के बाद उसे बनाए रखने के लिए हर किस्म की हेराफेरी, गलत हथकंडों और भ्रष्टाचार का सहारा लेती हैं.
तीसरी बात यह है कि आप सरीखी पार्टियां सामाजिक विकास के कांग्रेसी और भाजपाई मॉडल का ही अनुसरण करती हैं, जो निरंकुश उपभोक्तावाद को बढ़ावा देकर प्रकृति का विनाश करता है. यह मॉडल प्राकृतिक संसाधनों का जमकर दोहन करके लगातार ग्लोबल वार्मिंग में इजाफा कर रहा है, जिससे दुनिया में गरीबों ही नहीं अमीरों के सामने भी अस्तित्व को बनाए रखने का संकट गहरा होता जा रहा है. आज जब समाज को प्रकृति के साथ तालमेल करके जनता पर आधारित न्यायसंगत और सतत विकास की जरूरत है, यह पार्टियां उसके उलट चल रही हैं.


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