Collected Works of R.P. Saraf (Volume 4)
अब आप अंग्रेजी में आर.पी.सराफ की संकलित रचनाएं (खंड 4) को नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके खोल सकते हैं:
https://drive.google.com/open?id=0B8-BCP4h8lPxNWRHRlR2MV9adGc
श्री आर.पी. सराफ अपने लेखन के रूप में हमारे लिए एक बड़ा वैचारिक खजाना छोड़ गए हैं. इस बेशकीमती विरासत को बचाए रखने के लिए उनकी संकलित रचनाएं प्रकाशित करने के क्रम में यह चौथा खंड है. तीन साल में जिस दौरान श्री सराफ ने ये लेख लिखे, वह दौर था जब वे अंतरराष्ट्रवादी लोकतंत्र के विचारों को संजोने के साथ-साथ प्रकृति और मनुष्य के बारे में वास्तविकता को समझने का प्रयास कर रहे थे.
इस प्रयास में उन्होंने आम सोच-विचार की खातिर कुछ बातें रखीं. पहली यह थी कि मानव समाज के चलने का ढंग वैसा तो नहीं जैसे प्रकृति की अन्य प्रक्रियाओं का है बल्कि उनसे मिलता-जुलता है. यह दो-तरफा अंतरक्रिया का ढंग है जिसमें एक तरफ प्रकृति और मनुष्य के बीच अंतरक्रिया होती है और दूसरी तरफ मानव समाज के अंदर विभिन्न सामाजिक इकाइयों के बीच अंतरक्रिया होती है. इसकी वजह से प्रकृति और मानव समाज की कुछ प्रक्रियाओं में मात्रा और गुण संबंधी लगातार आंशिक बदलाव होते रहते हैं और बाद में एक अहम मुकाम पर पहुंचकर एक किस्म का मानव समाज दूसरी किस्म के मानव समाज में तब्दील हो जाता है.
उन्होंने दूसरी बात यह रखी कि उक्त दो-तरफा अंतरक्रिया में एकता के पहलू के साथ-साथ संघर्ष का पहलू समान रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जिसमें कोई एक पहलू एक समय या दूसरे समय प्राथमिक भूमिका में होता है.
उनका आगे मानना था कि मानव समाज में प्रभुत्व के सामाजिक संबंध अभी तक कायम रहे हैं तो इसकी वजह यह थी कि एक तो आर्थिक और राजनैतिक विकास का स्तर कम था और दूसरे मनुष्य की जंगली और बर्बर संस्कृति धीरे-धीरे तर्कसंगत और दयाशील संस्कृति में विकसित हुई. और आज की हालत में प्रभुत्व की गुंजाइश इसलिए कम होती जा रही है क्योंकि वैज्ञानिक-टेक्नोलॉजिकल ढांचे और मानव समाज के बढ़े स्तर का तकाजा है कि लोग सामाजिक प्रक्रिया में हिस्सा लें.
यही नहीं, तथ्यों से वे इस नतीजे पर पहुंचे कि मनुष्य की फितरत जैव-सामाजिक है और ये दोनों पहलू चूंकि एक ही अखंड इकाई के भाग हैं, इसलिए एक को दूसरे से जुदा नहीं किया जा सकता. और आगे, उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि हरेक घटनाक्रम के परिमाण और गुण के बीच एक रिश्ता होता है -- परिमाण गुण के अंदर और गुण परिमाण के अंदर रहता है. ये प्रमुख बातें बाद में उनके नेचर-ह्यूमन सेंट्रिक नजरिये का आधार बनीं.
उन दिनों दुनिया में अविश्वसनीय घटनाएं हो रही थीं. सोवियत संघ नाम की सुपरपॉवर टूट गई थी. दूसरी बची रह गई अकेली सुपरपॉवर अमेरिका आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक तौर पर अनेक मुश्किलों में फंसी हुई थी. पश्चिम के देश खुद बंटे हुए थे. वैश्विक अर्थव्यवस्था अस्तव्यस्त थी. दुनिया में जातिगत उभार जोरों पर था. धार्मिक कट्टरवाद में इजाफा हो रहा था. लगता था, दुनिया में अव्यवस्था का बोलबाला हो रहा है.
तब वैश्विक वास्तविकता की खोज में जुटे श्री सराफ ने एक बात समझ ली. वह यह कि 1945 के बाद नई वैज्ञानिक-टेक्नोलॉजिकल क्रांति से देशों की अंतरनिर्भरता की जो प्रक्रिया पैदा हुई है, उसका नतीजा मनुष्य की प्रमुख समस्याओं के वैश्विक स्तर पर पहुंच जाने में निकला है. ये प्रमुख समस्याएं हैं: पर्यावरण, विकास, परमाणु हथियारों पर प्रतिबंध, निरस्त्रीकरण, जनसंख्या वृद्धि, गरीबी, अमीर और गरीब देशों के बीच खाई, पूंजी, श्रम, बाजार, अंतरिक्ष एवं समुद्री अनुसंधान वगैरह. लेकिन समस्याअों का समाधान करने का मनुष्य का तंत्र चूंकि राष्ट्रीय स्तर का ही रहा, इसलिए किसी अकेले देश के लिए उन्हें हल करना संभव नहीं था.
इसलिए उन्होंने समझ लिया था कि समस्याओं का वैश्वीकरण हो जाने से नई प्राथमिकताएं तय की जानी चाहिए. जैसे परमाणु हथियारों पर मुकम्मल रोक लगाने की जरूरत है, निरस्त्रीकरण को विकास से जोड़ने की जरूरत है, उत्पादन और जीवनशैली के सतत तरीके बनाने की जरूरत है, संयुक्त राष्ट्र की शक्तियों को मजबूती प्रदान करने की जरूरत है, वगैरह- वगैरह. लेकिन राष्ट्र-राज्य मानने वाले नहीं थे. श्री सराफ को एहसास हो गया था कि वैश्वीकरण की प्रक्रिया में विभिन्न मुद्दों पर साझा प्रयासों और साझा कार्यवाही की जरूरत है, लेकिन 178 राष्ट्र-राज्यों के अलग-अलग ढांचे होने से उनकी कार्यवाही में तालमेल नहीं था. उन्होंने समझ लिया था कि इंसानी जरूरतों और इंसानी कार्यवाही के बीच तालमेल की यही कमी लगातार विभिन्न प्रकार की अव्यवस्था को जन्म दे रही है, जो इंसानी समाज में लगातार हलचल मचाए हुए है.
इस बीच, अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने जून 1992 में जब ब्राजील के रियो द जिनेरो में पृथ्वी शिखर सम्मेलन आयोजित करके पर्यावरण और विकास संबंधी एक नई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की तरफ कदम बढ़ाए तो श्री सराफ ने स्वीकार किया कि इस घटना ने ‘‘पर्यावरण और विकास के मसले को पहली बार फौरी कार्यवाही के लिए विश्व एजेंडा पर रखा और साथ में यह जागृति भी पैदा की कि पर्यावरण को और खराब होने से बचाया जाए. इससे पर्यावरण आंदोलन को नई रफ्तार मिली.’’
लेकिन रियो सम्मेलन की अपनी सीमाएं थीं. उसने एक-धरती-एक-मानव-समाज की अवधारणा को आगे रखते हुए पर्यावरण और विकास संबंधी एक नई रणनीति और साथ ही सतत विकास की बुनियाद पर पर्यावरण हितैषी नई टेक्नोलॉजी लाने का तकाजा तो किया, लेकिन इस विकास को उसने एक ऐसी प्रक्रिया बताया जिसकी चिंताअों का केंद्र मनुष्य है. इस तरह उसने स्थायी तौर पर मनुष्य को प्रमुख और प्रकृति को गौण भूमिका में रख दिया. लेकिन श्री सराफ ने जोर दिया कि प्रकृति और मनुष्य दोनों चूंकि मानव समाज की अटूट और आपस में जुड़ी चिंताएं हैं, इसलिए सतत विकास प्रकृति हितैषी और मनुष्य हितैषी एक ऐसी प्रक्रिया होनी चाहिए जो एक तरफ प्रकृति और मनुष्य को समान स्तर पर रखे और दूसरी तरफ एक सौम्य, न्यायोचित और निष्पक्ष सामाजिक व्यवस्था कायम करे. इस तरह उनकी सोच ने बाद में नेचर-ह्यूमन सेंट्रिक नजरिये के विकास को बल प्रदान किया.
श्री सराफ ने उपरोक्त सभी और इनके अलावा दूसरे कई मुद्दे इंटरनेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक व्यूपॉइंट पत्रिका में रखे. राष्ट्रीय स्तर पर भी उन्होंने भारत में राष्ट्र निर्माण के राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, कूटनीतिक और रक्षा संबंधी पहलुअों की गहराई से छानबीन की. उन्होंने राजनीति के अपराधीकरण, गरीबी, केंद्रीकृत राज्यतंत्र, सांप्रदायिक दृष्टिकोण, जातिवादी नजरिए और दोगलेपन वाली तथा तिकड़मी कार्यप्रणाली को राष्ट्रीय स्तर पर सात ऐसे बड़े लक्षण बताया जो भारत की राष्ट्रीय एकता और आधुनिकता के लिए खतरा हैं. इसी के अनुसार, उन्होंने भारत में प्रणाली संबंधी सुधार के लिए अल्पकालीन और दीर्घकालीन दो बुनियादी कदम उठाने का सुझाव दिया.
अल्पकालीन कदम से अभिप्राय था, लोगों की अधिकतम संभव भागीदारी पक्की करते हुए राजनैतिक प्रक्रिया को धन और बाहुबल के साथ-साथ आपराधिकता से मुक्त कराना. इसके अंतर्गत ये बातें भी शामिल थीं: सभी प्रकार के चुनावों का खर्च सरकार वहन करे; सभी पार्टियों और उम्मीदवारों के चुनावी खर्च पर रोक लगे; जन प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार मिले; किसी कामयाब उम्मीदवार के लिए मतदान के 50 प्रतिशत से अधिक वोट पाना जरूरी बनाया जाए; पार्टियों में हर दो साल में स्वतंत्र चुनाव सुनिश्चित करके, उनके खातों की प्रामाणिक लेखा परीक्षा करके और धर्म, जाति, नस्ल वगैरह के साथ उनकी राजनीति का संबंध विच्छेद करके उन्हें जनता के प्रति जवाबदेह बनाया जाए; सेवा नियमों में संशोधन किया जाए जिसमें ईमानदारों को सुरक्षा एवं प्रोत्साहन दिया जाए और भ्रष्ट एवं अपराधियों के लिए कड़ी सजाएं निर्धारित की जाएं; और सरकारी गोपनीयता अधिनियम, अदालत की अवमानना तथा कानून निर्माताअों के विशेषाधिकारों से संबंधित प्रावधान के तीन अलोकतांत्रिक कानूनों को रद्द किया जाए, जो भ्रष्टाचार, आपराधिकता और व्यवस्था में अक्षमता को पनाह देते हैं.
दूसरी तरफ दीर्घकालीन कदम से अभिप्राय था, नई राष्ट्रीय और वैश्विक वास्तविकताअों के मुताबिक राष्ट्रीय मॉडल को अपडेट करना. इसके मूल तत्वों में ये शामिल हैं: तर्कसंगत मानवतावादी रुख अपनाना; संघीय राज्यतंत्र स्थापित करना, सभी राज्यों को स्वायत्तता और पंजाब को विशेष दर्जा प्रदान करना, ऊपर से नीचे तक सत्ता का विकेंद्रीकरण करना और सभी विवादों का शांतिपूर्ण तरीके से समाधान करना; पर्यावरण के साथ-साथ भौतिक तथा मानवीय संसाधनों के गुणात्मक सुधार पर जोर देने वाले सतत विकास के ढांचे का निर्माण करना और बाजार तंत्र तथा सरकारी योजनाकारी के उचित मेलजोल का इस्तेमाल करना; व्यवहार संबंधी ऐसी नई मू्ल्य प्रणाली को विकसित करना जो तर्कसंगत सोच और लोकतांत्रिक कामकाज पर जोर देती हो; शांतिपूर्ण विदेश एवं रक्षा नीति पर चलते हुए पाकिस्तान के साथ सभी विवादों को बातचीत से निबटाना, जम्मू-कश्मीर समस्या को राज्य पर भारत-पाकिस्तान के साझा नियंत्रण से हल करना, सार्क को साझा बाजार में बदलना और क्षेत्रीय सुरक्षा प्रणाली विकसित करना, वगैरह-वगैरह.


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