31 अक्तूबर -- सिख विरोधी दंगे
गत शुक्रवार को ‘‘31 अक्तूबर’’ से 10 दिन पहले ही इसी नाम की रिलीज हुई फिल्म मैंने देखी तो नहीं, लेकिन विभिन्न अखबारों में इसकी समीक्षाएं देखकर ही, पढ़कर नहीं, 32 साल पहले का सारा खौफनाक मंजर मेरी आंखों के सामने घूम गया. पंजाब में खालिस्तान आंदोलन और अमृतसर में सिखों के तीर्थस्थल हरमंदर साहब में ऑपरेशन ब्लूस्टार नामक सैनिक कार्रवाई की परिणति भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के दो अंगरक्षकों के हाथों उनकी हत्या में हुई थी.
स्वर्ण मंदिर पर सैनिक कार्रवाई यदि निंदनीय थी तो इंदिरा गांधी की हत्या भी निंदनीय थी. लेकिन उसके बाद जो हुआ वह नाकाबिले माफी है. सिख विरोधी दंगों का सबसे बड़ा नुक्सान यह हुआ कि आम लोग अंदर तक हिल गए. एक राष्ट्र अपने ही नागरिकों को बचाने में नाकाम रहा. हत्या वाले दिन दिल्ली में छिटपुट वारदातें हुईं, लेकिन अमानुषिकता का यह महज ट्रेलर था. हत्याअों, आगजनी और लूट-पाट का असली दौर तो राजधानी और कई कांग्रेस शासित राज्यों में अगले दिन शुरू होकर तीन दिन तक चला.
उन दिनों मैं दिल्ली में राजनैतिक कार्यकर्ता हुआ करता था और दिल्ली यूनिवर्सिटी में कार्यरत, हिमाचल के अपने युवा तथा अति सौम्य कॉ. सुरजीत सिंह और हरियाणा के अक्खड़, बुजुर्ग राजनैतिक कार्यकर्ता जयनारायण वत्स (अब दिवंगत), जिन्हें प्यार से सब पंडित जी के नाम से बुलाते थे, के साथ यमुनापार के भजनपुरा में रहता था. माअो विचारधारा को त्यागकर हमें प्रॉलेतेरियत पार्टी बनाए कोई पौने दो साल हो चुके थे और आगे इंटनेशनिलस्ट डेमोक्रेटिक पार्टी बनाने में सोच-विचार और बहस-मुबाहिसे की प्रक्रिया में थे. दिल्ली यूनिवर्सिटी में अक्सर जाना होता था, जहां तब हमारे कॉ. नीलांबर पांडे (अब दिवंगत) विश्वविद्यालय की सशक्त कर्मचारी यूनियन के जनरल सेक्रेटरी हुआ करते थे.
31 अक्तूबर को पूरा दिन हम यूनिवर्सिटी में अफवाहों के बीच रहे और शाम को घर चले आए. मन में यह आशंका लिए कि अगले दिन कुछ अशुभ हो सकता है. बस्ती में भी लोग डरे-डरे-से थे. 1 नवंबर को सुबह उठते ही हमारी आशंकाएं सच में बदलने लगीं. करीब 8.30-8.45 बजे शोर मच गया कि साथ लगते गामड़ी और उसके आगे घोंडा, मौजपुर वगैरह में सिखों के घरों पर हमले हो रहे हैं. आगे जो होने जा रहा था, उसे नरसंहार की संज्ञा ही दी जा सकती है.
किसी ने कल्पना नहीं की होगी कि दिल्ली में तथाकथित सभ्य लोगों के बीच भी ऐसा हो सकता है. दोपहर बीतते-बीतते साथ सटी मध्यमवर्गीय कॉलोनी यमुना बिहार के अलावा दूरदराज की बस्तियों मसलन नंदनगरी, शाहदरा वगैरह से भी इसी तरह की वारदातें सुनने को मिलीं. गले में जलते टायर डाले आदमी को अपनी आंखों के सामने भीड़ की अोर से जिंदा जलाए जाते देखने और सुनने का एहसास कैसा होता है, पहली बार उस दिन ही जाना.
अब इसके अधिकांश परिस्थितिजन्य सबूतों और गवाहियों से साफ हो चुका है कि कांग्रेस ने सिखों को सबक सिखाने के लिए इसकी बड़े पैमाने पर जो तैयारी 31 अक्तूबर की रात को की थी, उसे अंजाम उसने दूसरे दिन सुबह से देना शुरू कर दिया. यह हिंदू-सिख दंगा नहीं था बल्कि सुनियोजित सिख विरोधी दंगा था, जिसमें कांग्रेसी नेताअों ने बड़े पैमाने पर अपने समर्थकों और लंपट वर्ग को पूरी तरह इस्तेमाल किया. इससे वे यह दिखाना चाहते थे कि उनकी दिवंगत नेता की कितनी जबरदस्त धाक है.
सरकारी और गैर सरकारी मीडिया ने भी इस दंगे के आयोजन का रास्ता सुगम किया. रेडियो-टीवी में सबसे पहले खबर दी गई कि प्रधानमंत्री की हत्या सिख अंगरक्षकों ने की. यही नहीं, शाम को टीवी ने तीनमूर्ति भवन में इंदिरा गांधी की अर्थी के गिर्द जुटी भीड़ को ‘खून का बदला खून से लेंगे’ नारे लगाते दिखाया. इसके लिए अफवाहों का अलग योगदान रहा. कहा गया कि सिखों ने प्रधानमंत्री की हत्या पर मिठाइयां बांटी हैं, पंजाब से हिंदुअों की लाशें भरकर कई ट्रेनें आई हैं, सिखों ने दिल्ली में जलापूर्ति प्रणाली में जहर मिला दिया है, वगैरह. किसी ने इन अफवाहों का खंडन नहीं किया.
कर्फ्यू लगाने और 2 नवंबर को सेना की तैनाती के बावजूद दंगे रुके नहीं. जाहिर है, उस दिन सेना भी कारगर नहीं रही. अगले दिन 3 नवंबर को जाकर जब इंदिरा गांधी का अंतिम संस्कार संपन्न हो गया तो दंगों पर काबू पाया जा सका. कांग्रेस समेत दंगाइयों के अलावा दो और उल्लेखनीय वर्ग थे. एक तथाकथित विरोधी दल थे जो उस दौरान एकदम कन्फयूज हो गए.
यहां तक कि दिल्ली में ही सबसे बड़े विरोधी दल का दम भरने वालों ने एक राजनैतिक दल के तौर पर सामने आकर दंगाइयों को रोकने की कोई कोशिश नहीं की. उनमें से तो कई अंदर से खुश थे कि सिख बहुत सिर पर चढ़ गए थे, अच्छा है उन्हें सजा मिल रही है. बहुत बाद में जाकर उनमें से कई राहत के काम में सक्रिय हुए.
दूसरे, आम लोग और स्वतंत्र किस्म के समूह थे, जिन्होंने अपनी थोड़ी ताकत के बावजूद दंगों के दौरान ही बहुत-सी जगह पीडि़तों को सुरक्षा मुहैया करवाई, उन्हें अपने घरों में छिपा लिया या उनके परिवारों में रहे और कई जगह भीड़ आने से पहले ही उन्हें उनके घरों से निकालकर सुरक्षित ठिकानों पर ले गए. तीन दिन हम भी घर नहीं जा पाए. कई मामलों में तो मुझे याद है कि पीडि़तों को सुरक्षित जगहों पर ले जाते हुए वे भीड़ के हाथों पिटे भी.


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