जिसकी लाठी, उसकी भेंस
देश का एक स्वयंभू
सांस्कृतिक संगठन है, जो राजनीति में तो पूरा दखल रखता है, लेकिन कहता है कि
राजनीति से उसका कोई वास्ता नहीं है. दुनिया की कोई चीज ऐसी नहीं है, जिसके बारे
में वह उपदेश नहीं देता होगा. उसके सर्वोच्च मार्गदर्शक का ताजा प्रवचन तो बहुत ही
दिलचस्प है. यह आज दैनिक हिन्दुस्तान की वेवसाइट पर मैंने पढ़ा. अगर यह सही उद्धृत
किया गया है तो इससे पता चलता है कि यह संगठन दुनिया में कौन-सी परंपरा में से आता
है.
आज ही नागपुर में नवरात्रि
त्योहार पर उन्होंने एक स्थानीय मंदिर में कहा: ‘‘चाहे यह अच्छा हो या बुरा, दुनिया
में शक्ति के बगैर कुछ नहीं होता. दुनिया उन लोगों के साथ खड़ी होती है जिनके पास
ताकत है.’’ इसे शुद्ध देशी भाषा में कहें तो ‘‘जिसकी लाठी, उसकी भेंस’’ का सिद्धांत
आज की दुनिया पर भी खरा उतरता है.
इससे विश्वजीत बनने को
आतुर कई प्राचीन सुल्तानों की याद ताजा हो जाती है. यूनान के सम्राट तथाकथित
सिकंदर महान और जर्मनी के तानाशाह हिटलर का नाम किसने नहीं सुन रखा है. दोनों का
मानना भी यही था कि ताकत के बिना कुछ नहीं होता और दुनिया ताकतवालों के साथ ही खड़ी
होती है, इसीलिए उन्होंने दुनिया को फतह करने का सपना संजोया. लेकिन दोनों का क्या
हश्र हुआ, दुनिया जानती है.
आधुनिक युग में ताकत के
इसी सिद्धांत का पालन अमेरिका करता आया है. पृथ्वीराज बनने की इच्छा मन में पाले
इस तथाकथित महाशक्ति ने बीसवीं सदी में छठे दशक के उत्तरार्ध और सातवें दशक के
पूर्वार्ध में पहले वियतनाम समेत पूरे हिंद-चीन में ताकत के बल पर अपने झंडे
गाड़ना चाहे, लेकिन अपने हजारों फौजियों को मरवाने के बाद अंतत: 1973 में उसे वहां
से विदा होना पड़ा. ऐसा ही जोखिम वह कई और देशों में उठा चुका है. ताजा उदाहरण अफगानिस्तान
और इराक का है. लेकिन अब दोनों जगहों में किन्हीं दूसरे देशों को फंसा खुद अमेरिका
वहां से निकलने की जुगत भिड़ा रहा है.
ब्रिटेन भी एक जमाने में
दुनिया की बड़ी ताकत हुआ करता था और उसकी ताकत के चलते पूरी दुनिया में उसका डंका
बजता रहा है और कहते हैं कि उसके साम्राज्य में सूर्य भी अस्त नहीं होता था. लेकिन
कहां गई उसकी ताकत? वह खुशकिस्मत मानिए कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद उसे अक्ल आ गई
और ज्यादातर देशों को आजादी देनी पड़ गई. वरना उसका हश्र बुरा होना तय था.
अब दुनिया में स्थिति तो
बिल्कुल भिन्न हो गई है. आज इनसान के विभिन्न समूहों में सीधे आपसी विचार-विमर्श के साथ आपसी मेलजोल में
बेमिसाल इजाफा होने से ग्लोबलाइजेशन का ऐसा सिलसिला पैदा हुआ है जिसने मानसिक और भौतिक
तौर पर पूरी दुनिया को नजदीक लाकर वस्तुत: एक इकाई बना दिया है. देश एक-दूसरे पर
अंतरनिर्भर हो गए हैं. ऐसी अंतरनिर्भर दुनिया में ‘‘जिसकी
लाठी, उसकी भेंस’’ का सिद्धांत कारगर नहीं रहा है.
http://www.livehindustan.com/news/national/article1-surgical-strikes-proved-world-stands-with-those-who-are-powerful-says-mohan-bhagwat-574386.html


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