Saturday, April 29, 2017

आओ आज विश्व पृथ्वी दिवस के अवसर पर संकल्प लें
कि ग्लोबल वॉर्मिंग को रुकवाकर दुनिया को बचाएं !
2017 का जनवरी माह इतिहास में तीसरा सबसे गरम माह दर्ज किया गया. अब मुमकिन है कि मौजूदा साल शायद लगातार चौथा सबसे गरम साल होने का नया रिकॉर्ड कायम करे. इस साल 18 जनवरी को दुनिया की तीन बड़ी एजेंसियों — ब्रिटेन के मौसम विभाग और अमेरिका के नासा (एनएएसए) तथा नोआ (एनओएए) — ने दावा किया कि 2016 ने 2014 तथा 2015 के अपने-अपने सबसे गरम साल होने के रिकॉर्ड को तोड़कर लगातार तीसरे साल अब तक का सबसे गरम साल होने का रिकॉर्ड बनाया है. तीनों सालों का औसत तापमान 19वीं सदी के औसत से ज्यादा था.
सबसे ज्यादा गरम होने का रिकॉर्ड बनाने वाले 17 में से 16 साल भी 2001 से लेकर हाल तक ही हुए हैं. धरती पिछले 50 साल में उससे दोगुनी तेजी से गरम हुई, जितनी उसके पहले 50 साल में हुई थी. दुनिया में समुद्री सतह के औसत तापमान में भी पिछले साल सबसे ज्यादा तापमान बनाने का रिकॉर्ड रहा. आर्कटिक सागर में बर्फ भी औसत से बहुत नीचे पाई गई. गरमी बढ़ने के इस रुझान में ग्रीनहाउस गैसों के बनने का बड़ा योगदान है.
इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. यह चेतावनी है कि आबोहवा के मामले में हम आपातस्थिति में आ गए हैं. बिगड़ती आबोहवा, जिसे ग्लोबल वॉर्मिंग कहते हैं, इंसानों और जीवों के लिए लगातार खतरनाक बनती जा रही है.
धरती क्यों हो रही है गरम?
जानी-मानी हकीकत है कि 1760 में पूंजीवाद का युग शुरू होने से पहले धरती पर कोई प्रदूषण नहीं था. ग्रीनहाउस गैसें ज्यादातर दुनिया में बड़ी मशीनों के इस्तेमाल के बाद बढ़ना शुरू हुईं. कारखाने बनने के साथ-साथ वनों की कटाई और प्रदूषण ने वातावरण में भाप के कणों, कार्बन-डाइऑक्साइड, मिथेन और नाइट्रस ऑक्साइड के जमाव में जबरदस्त इजाफा किया है. ये सभी ग्रीनहाउस गैसें हैं जो गरमी को धरती की सतह के पास घेरकर रखती हैं जिसका नतीजा है कि आज कॉर्पोरेट पूंजीवाद के युग में ग्लोबल वॉर्मिंग चरम पर पहुंच गई है.
ग्लोबल वॉर्मिंग का क्या हो रहा है खराब असर?
तापमान बढ़ने से ग्लेशियर गल रहे हैं जिससे समुद्र की सतह ऊंची उठकर तटवर्ती इलाकों में रह रहे करोड़ों लोगों के लिए खतरा बन गई है. 2014 में समुद्री सतह 1993 की औसत सतह से 2.6 इंच ऊंची हो गई. वह हर साल एक इंच के करीब आठवें हिस्से की दर से बढ़ रही है.
मौसम में बदलाव करोड़ों लोगों के लिए पानी के स्रोत ग्लेशियरों को ही नहीं गला रहा, नदियों और झीलों जैसे पीने के पानी के पुराने स्रोतों को भी खराब कर रहा है.
ग्लोबल वॉर्मिंग से बार-बार सूखा पड़ने और बाढ़ आने के अलावा उनका दायरा भी बढ़ता जा रहा है जिससे लोगों की जानें चली जाती हैं और घर-बार तथा काम-धंधे तबाह हो जाते हैं. इससे खेती और उस पर निर्भर लोगों के लिए मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं. जून 2013 में उत्तराखंड, सितंबर 2014 में कश्मीर और नवंबर 2015 में दक्षिण भारत में बाढ़ के अलावा 2016 में देश के ज्यादातर हिस्सों में सूखा इसकी खास मिसालें हैं.
इससे इंसान में बीमारियां फैल रही हैं. इसका असर पक्षियों, जंगलों और जंगली जीवों पर भी पड़ रहा है. बढ़ी गरमी पौधों की बढ़त रोकती है. इससे जंगली जीवों के रहने की जगहें भी सिकुड़ रही हैं.
ग्लोबल वॉर्मिंग होती रही तो क्या होगा अंजाम?
आज ग्लोबल वॉर्मिंग जीने-मरने का सवाल बन गई है. साइंसदानों का कहना है कि गरमी 1950 वाले सालों के मुकाबले कोई 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ी है. इस रफ्तार से 2050 तक धरती का औसत तापमान 5 से 7 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने का अनुमान है. ऐसा हुआ तो दुनिया से कुदरती बर्फ गायब हो जाएगी. बारिश लाने वाले जंगल तबाह हो जाएंगे और उनकी जगह रेगिस्तान ले लेंगे. पीने का पानी उपलब्ध नहीं होगा. खेती होने का तो सवाल ही नहीं उठता. समुद्र के पानी का स्तर 19-20 फुट ऊपर उठ जाएगा. ज्यादातर धरती रहने लायक नहीं बचेगी.
हां, दुनिया में रहने लायक दो नए इलाके होंगे — कनाडा और साइबेरिया. वहां भी गरमियों में इतनी गरमी होगी कि समुद्र तट से दूर फसल उगाना मुश्किल होगा. और कहीं परमाणु युद्ध हो गया तो पूरी इंसानी बिरादरी ही समूल नष्ट हो जाएगी.
इसके लिए क्या कर रही है दुनिया?
इसको लेकर दुनिया में 1972 से कई बड़ी बैठकें हो चुकी हैं. पिछले साल भी पेरिस में जलवायु कॉन्फ्रेंस हुई थी. लेकिन वे सभी ग्रीनहाउस गैसों को सीमित रखने या उन्हें कम करने में नाकाम रहीं. दुनिया भर में सत्ताभोगी राजनीतिक और कारोबारी ग्रुप आबोहवा को पैदा हुए खतरे के बारे में न तो लोगों को जगाने और न ही उन्हें जोड़ने को लेकर सीरियस हैं.
इनमें सबसे ज्यादा रुकावट डालने वाला अमेरिका है, जिसने हर बैठक के बुनियादी फैसलों को मानने से इनकार किया और उनकी हेठी की. अमेरिका का नया ट्रंप प्रशासन तो दुनिया के सामने किए अपने वादों से खुलेआम मुकरने की हद तक चला गया है.
नतीजा यह है कि जीने-मरने का सवाल बने आबोहवा संकट के मामले में दुनिया के कॉर्पोरेट शासक राजनीतिकों, विचारकों, विशेषज्ञों, अर्थशास्त्रियों और संस्कृति के ठेकेदारों पर भरोसा नहीं किया जा सकता. वैसे भी, यह संकट मौसम और इंसान दोनों की विरोधी उनकी पुरानी करनी का ही नतीजा है.
(इस पर कल विचार करेंगे कि आबोहवा और दुनिया कैसे बचे)

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