Monday, July 31, 2023

मांस के उत्पादन का भविष्य टिकाऊ नहीं


दुनिया में मांस का उत्पादन भविष्य में टिकाऊ नहीं रह पाएगा. वजह यह है कि आबादी बढ़ने के साथ जितना मांस का उत्पादन बढ़ता है, उतनी ही वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन समेत ग्रीनहॉउस गैसों की कुल मात्रा में वृद्धि हो जाती है, जिससे ग्लोबल वॉर्मिंग के साथ-साथ जलवायु संकट में इजाफा होता जाता है.

मांस का उत्पादन दुनिया भर में हर साल बढ़ता ही जा रहा है. बड़ी विश्व समस्याओं को लेकर शोध और आंकड़े प्रस्तुत करने वाली वेबसाइट https://ourworldindata.org का अनुमान है कि आज दुनिया में मांस की खपत 1961 की खपत से चार गुना से भी ज्यादा हो गई है. 1961 में दुनिया में मात्र 7.057 करोड़ टन मांस का उत्पादन हुआ करता था. 2020 तक आते-आते यह बढ़कर 33.718 करोड़ टन हो गया.
विश्व की सामाजिक और पर्यावरणीय चुनौतियों से संबंधित आंकड़े सामने लाने वाली वेबसाइट https://www.theworldcounts.com के अनुसार, 1988 से लेकर 2018 तक के 30 साल की अवधि में ही मांस की खपत दोगुनी हो गई है और इसके जल्दी कम होने के कोई आसार नहीं हैं. उसका अनुमान है कि 2050 तक दुनिया में मांस की खपत 46 करोड़ टन और 57 करोड़ टन के बीच होगी. 1961 के मुकाबले यह वृद्धि करीब 8 गुना हो जाएगी.

Friday, July 28, 2023

ग्लोबल वॉर्मिंग का दौर गया; अब ग्लोबल बॉयलिंग का दौर है

चित्र साभार: https://news.un.org/en/

दुनिया के लिए एक और गंभीर चेतावनी आई है. अब ग्लोबल वॉर्मिंग अगली मंजिल की तरफ कदम बढ़ा चुकी है. और यह चेतावनी खुद संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने दी है. उन्होंने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि "ग्लोबल वॉर्मिंग का दौर समाप्त हो गया है और अब हमारी धरती ग्लोबल बॉयलिंग के दौर में दाखिल हो गई है." गुटेरेस का यह बयान वृहस्पतिवार को वैज्ञानिकों की इस घोषणा के बाद आया कि पिछले तीन हफ्ते दुनिया में अभी तक के सबसे गरम हफ्ते रहे हैं और जुलाई का महीना अभी तक का सबसे गरम महीना बनने की राह पर है.

गुटेरेस ने कहा, "मनुष्यजाति बहुत ही मुश्किल स्थिति में है. उत्तरी अमेरिका, एशिया, अफ्रीका और यूरोप के ज्यादातर हिस्से अभी भयंकर गरमी से जूझ रहे हैं. समूची दुनिया के लिए आपदा आ गई है... यह स्थिति भविष्यवाणियों और बार-बार दी गई चेतावनियों के ऐन मुताबिक आई है. अप्रत्याशित बात तो यह है कि बदलाव बहुत तेजी से आया है. जलवायु बदलाव हो गया है. यह खौफनाक बदलाव है. और यह तो महज शुरुआत है. ग्लोबल वॉर्मिंग का दौर समाप्त हो गया है और अब हमारी धरती ग्लोबल बॉयलिंग के दौर में दाखिल हो गई है."

गुटेरेस ने राजनैतिक नेताओं से तुरंत हरकत में आने का अनुरोध किया. उनका कहना था, "हवा सांस लेने लायक नहीं बची है, गरमी असहनीय हो गई है और जीवाश्म ईंधन से मुनाफा कमाना और जलवायु बदलाव को रोकने के लिए कुछ न करना, अस्वीकार्य है. नेताओं को आगे आना चाहिए. अब कोई झिझक या बहाना नहीं चलेगा, न ही यह चलेगा कि पहले दूसरे लोग कुछ करें. इन सबके लिए अब समय नहीं बचा है."

अंत में उन्होंने कहा, "दुनिया में बढ़ते तापमान को (औद्योगिक युग से पहले के तापमान से) 1.5 डिग्री सेल्सियस से ऊपर जाने से रोकना और जलवायु बदलाव के बदतरीन प्रभावों से बच पाना अभी भी संभव है. लेकिन उसके लिए इस दिशा में तेजी से काम करना होगा. इस सिलसिले में कुछ प्रगति भले ही हुई है, लेकिन वह नाकाफी है. तेजी से बढ़ता तापमान, तेजी से कुछ करने का तकाजा करता है."

Tuesday, July 25, 2023

शैतान आपके घर की नींव में दरारें ढूंढता है

 


शैतान आपके घर में सामने वाले दरवाजे से नहीं घुसता. वह आपकी नींव में दरारें ढूंढता है.

Saturday, July 22, 2023

विधायकों पर आपराधिक मामलों और उनकी संपत्ति को लेकर एडीआर की रिपोर्ट


इस रिपोर्ट से हमें आभास मिलता है कि हमारे देश के ज्यादातर निर्वाचित जन प्रतिनिधियों का किरदार किस तरह का है, हालांकि उनके केवल दो पक्षों का ही इसमें जिक्र है. एक तो यह कि आपराधिक मामलों के लिहाज से उनका क्या रिकॉर्ड है, और दूसरा यह कि धन-संपत्ति के हिसाब से उनकी क्या स्थिति है. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की हाल ही की इस रिपोर्ट में जन प्रतिनिधि के रूप में संदर्भ केवल विधायकों का है, और उसमें दिए गए सारे आंकड़े विधायकों के हालिया चुनाव लड़ने से पहले भारत निर्वाचन आयोग में दाखिल किए गए उनके हलफनामों से लिए गए हैं.

इसमें बताया गया है कि देश की विधानसभाओं में करीब 44 फीसदी प्रतिनिधियों यानी कोई 1,760 विधायकों ने खुद पर बने आपराधिक मामले होने की घोषणा की है. उनमें भी लगभग 28 फीसदी यानी 1,136 विधायकों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले हैं, जिनमें हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण और महिलाओं के खिलाफ अपराध से संबंधित आरोप शामिल हैं.  

इसी तरह, विधायकों की संपत्ति के आंकड़े भी संकलित किए गए हैं. राज्य विधानसभाओं में प्रति विधायक औसत संपत्ति 13.63 करोड़ रु. पाई गई. लेकिन खुद पर आपराधिक मामले होने की घोषणा करने वाले विधायकों की औसत संपत्ति जहां 16.36 करोड़ रु. से अधिक है, वहीं ऐसे विधायकों की, जिन पर कोई आपराधिक मामला नहीं है, औसत संपत्ति 11.45 करोड़ रु. है. जिन विधायकों का विश्लेषण किया गया, उनमें से 2 फीसदी यानी 88 विधायक अरबपति पाए गए, जिनके पास 100 करोड़ रु. से अधिक की संपत्ति थी.

उक्त विश्लेषण एडीआर और नेशनल इलेक्शन वॉच (एनईडब्ल्यू) ने 28 राज्य विधानसभाओं और दो केंद्रशासित प्रदेशों के 4,033 विधायकों में से 4,001 विधायकों के हलफनामों के आधार पर किया है. वैसे तो देश के 28 राज्यों और तीन केंद्रशासित प्रदेशों के कुल मिलाकर 4,123 विधायक हैं जिनमें जम्मू-कश्मीर विधानसभा की 90 सीटें फिलहाल खाली हैं.  

खुद पर बने आपराधिक मामलों की घोषणा करने वाले विधायकों में सबसे ज्यादा प्रतिशत केरल का है, जहां 135 में से 95 यानी 70 फीसदी विधायक ऐसे पाए गए. इसी तरह, बिहार के 242 में से 161 (यानी 67 फीसदी), दिल्ली के 70 में से 44 (यानी 63 फीसदी), महाराष्ट्र के 284 में से 175 (यानी 62 फीसदी), तेलंगाना के 118 में से 72 (यानी 61 फीसदी), और तमिलनाडु के 224 में से 134 (यानी 60 फीसदी) विधायकों ने अपने-अपने हलफनामे में खुद पर आपराधिक मामले होने की घोषणा की है. 

इसके अलावा, रिपोर्ट बताती है कि दिल्ली के 70 में से 37 (यानी 53 फीसदी), बिहार के 242 में से 122 (यानी 50 फीसदी), महाराष्ट्र के 284 में से 114 (यानी 40 फीसदी), झारखंड के 79 में से 31 (यानी 39 फीसदी), तेलंगाना के 118 में से 46 (यानी 39 फीसदी), और उत्तर प्रदेश के 403 में से 155 (यानी 38 फीसदी) विधायकों ने घोषणा की है कि उन पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं. 

रिपोर्ट में महिलाओं के खिलाफ अपराधों से संबंधित चिंताजनक आंकड़े भी सामने आए. इसमें बताया गया है कि आश्चर्यजनक रूप से 114 विधायकों ने घोषणा की है कि उन पर महिलाओं के खिलाफ अपराध से संबंधित मामले हैं. इनमें 14 विधायकों ने विशेष रूप से खुद पर बलात्कार (आइपीसी की धारा 376) से संबंधित मामले होने की घोषणा की है.

धन-संपत्ति के मामले में सबसे ज्यादा अमीर कर्नाटक के विधायक हैं, जहां 223 विधायकों में से 32 (यानी 14 फीसदी) अरबपति हैं. इसके बाद क्रम में अरुणाचल प्रदेश है, जिसके 59 में से 4 (यानी 7 फीसदी) और आंध्र प्रदेश के 174 में से 10 (यानी 6 फीसदी) विधायक अरबपति हैं. महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, गुजरात और मध्य प्रदेश में भी 100 करोड़ रु. से अधिक की संपत्ति के मालिक विधायक हैं.

एडीआर की रिपोर्ट में सबसे अधिक और सबसे कम औसत संपत्ति वाले राज्यों की गणना भी की गई है. इसमें कर्नाटक अव्वल स्थिति में है, जिसके 223 विधायकों की औसत संपत्ति 64.39 करोड़ रु. है. इसके बाद आंध्र प्रदेश के 174 विधायकों की 28.24 करोड़ रु. और महाराष्ट्र के 284 विधायकों की 23.51 करोड़ रु. औसत संपत्ति है. इसके बरक्स, सबसे कम औसत संपत्ति त्रिपुरा के 59 विधायकों की 1.54 करोड़ रु., पश्चिम बंगाल के 293 विधायकों की 2.80 करोड़ रु. और केरल के 135 विधायकों की 3.15 करोड़ रु. है. 

Thursday, July 20, 2023

अत्यधिक गरम जलवायु की तरफ बढ़ती दुनिया



दुनिया अत्यधिक गरम जलवायु की तरफ बढ़ रही है. इतनी गरम कि 10 लाख साल पहले जब इंसान पैदा भी नहीं हुआ था, तब से लेकर आज तक इस तरह की जलवायु देखी नहीं गई है. आने वाले समय में यह स्थिति इससे भी बदतर होने जा रही है. ऐसा क्यों होगा? 

"वजह यह है कि हम मूर्ख हैं और हमने जलवायु संकट को लेकर दी गई चेतावनियों की कोई परवाह ही नहीं की." यह कहना है अमेरिकी वैज्ञानिक जेम्स हेन्सन का, जिन्होंने ग्रीनहाउस प्रभाव को लेकर दुनिया को 1980 वाले दशक में ही सचेत कर दिया था. 1988 में उन्होंने अमेरिकी सीनेट के सम्मुख प्रस्तुत होकर दुनिया के गरम होते जाने का प्रामाणिक ब्यौरा दिया था. उस समय वे नासा में जलवायु वैज्ञानिक थे. 

इन दिनों वे ग्लोबल वार्मिंग के प्रति जागरूकता पैदा करने के आंदोलन में कार्यकर्ता बन गए हैं और कई बार गिरफ्तार भी हो चुके हैं. उन्होंने अब दो अन्य वैज्ञानिकों के साथ मिलकर चेतावनी दी है कि दुनिया "जलवायु की नई चुनौतियों" की ओर अग्रसर है, जिसमें तापमान लाखों साल पहले हुए तापमान से भी बहुत ज्यादा होगा और बड़े-बड़े तूफ़ान आएंगे, जबरदस्त लू चलेगी और भयंकर सूखा पड़ेगा. 

हेन्सन का कहना है कि बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण के बाद से, जब मनुष्य ने हवा में कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ने वाले कोयला, तेल और गैस सरीखे जीवाश्म ईंधन जलाने शुरू किए थे, दुनिया में तापमान कोई 1.2 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है. इससे गरमी के मौसम में वैसा ही अत्यधिक तापमान दिखने की, जैसा उत्तरी गोलार्ध के कई हिस्सों में अभी देखा जा रहा है, 20 प्रतिशत संभावना हो गई है, जबकि 50 साल पहले इसकी 1 प्रतिशत संभावना थी. 

अभी 16 जुलाई को ही अमेरिका में कैलिफोर्निया की डेथ वैली में तापमान 53.9 और चीन के शिंजियांग में 52.2 डिग्री सेल्सियस रिकॉर्ड किया गया था. 17 जुलाई को दक्षिणी स्पेन में वह 46 डिग्री सेल्सियस पर जा पहुंचा था और इटली के सार्डिनिया में भी उसके वहां तक चले जाने की भविष्यवाणी की गई थी. पूर्वी यूरोप में भी गरमी शिखर पर पहुंचने की संभावना जताई गई है. 

यूरोप, अमेरिका और चीन के कुछ हिस्सों में बेहद गरमी पड़ने की वजह से दुनिया भर के जलवायु विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों और संगठनों में चिंताएं व्यक्त की जाने लगी हैं. विश्व मौसम विज्ञान संगठन के महासचिव प्रोफेसर पेटेरी तालास का कहना था, "बेहद गरमी इंसान के स्वास्थ्य, पारिस्थितिकी तंत्र, अर्थव्यवस्था, कृषि, बिजली-पानी की आपूर्ति पर जबरदस्त प्रभाव डाल रही है." उन्होंने यथासंभव तेजी से ग्रीनहाउस गैस में कटौती करने पर जोर दिया. 

Wednesday, July 19, 2023

मौन की बात


न्यूटन ने गति यानी हरकत को लेकर जो तीन नियम प्रतिपादित किए, उनमें तीसरा नियम यह है कि "हर क्रिया की एक समान और विपरीत प्रतिक्रिया होती है." भारत में भी विज्ञान के क्षेत्र में ऐसा कोई नियम तो प्रतिपादित नहीं हुआ है, लेकिन कर्म का सिद्धांत मानने वाले धार्मिक लोग कहते हैं कि कर्म का फल हर किसी को भोगना पड़ता है.

यह फल किसी ने भोगा है या नहीं, कोई नहीं बता पाता. अलबत्ता किसी क्रिया की एक समान और विपरीत प्रतिक्रिया होते बहुत लोगों ने कई बार देखी है. ऐसी ही कुछ विपरीत प्रतिक्रिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ भी होती दिख रही है, जिन्हें उनके अनुयायी "भारत में अभी तक हुआ सबसे मजबूत प्रधानमंत्री" बताते नहीं अघाते. 

तो बात कुछ ऐसी है कि मोदी आजकल "मौन मोदी" हो गए हैं. वजह: 2020-21 के दौरान जब देश भर के किसान संसद के पारित तीन कृषि अधिनियमों के खिलाफ दिल्ली में आंदोलन कर रहे थे तो मोदी ने ख़ामोशी ओढ़कर एक मिसाल कायम की थी, और अब वे कई महीनों से कभी अडानी, कभी बृजभूषण सिंह और कभी मणिपुर को लेकर कुछ कहने से कतराते आ रहे हैं. इन मामलों में उन्होंने एकदम मौन धारण कर रखा है. 

इस साल के शुरू में जब इक्विटी, क्रेडिट और डेरिवेटिव्स मार्केट के आंकड़ों का विश्लेषण करने वाली अमेरिका की वित्तीय शोध कंपनी हिंडनबर्ग ने अपनी रिपोर्ट में आरोप लगाया गया कि मोदी के मित्र गौतम अदाणी का समूह दशकों से शेयरों के हेरफेर और अकाउंट की धोखाधड़ी में शामिल है, तो तूफ़ान मच गया था, जिसका खामियाजा अदाणी समूह को शेयर बाजार में अपना मूल्य आधा रह जाने के रूप में भुगतना पड़ा था. इस मुद्दे को लेकर संसद में भी हंगामा खड़ा हुआ था. लेकिन इस पर मोदी बिल्कुल कुछ नहीं बोले. 

इसी तरह, उन्हीं दिनों भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष बृजभूषण सिंह पर महिला पहलवानों के साथ कथित यौन दुराचार का आरोप लगाने वाले आला दर्जे के अनेक पहलवान जब उक्त भाजपा सांसद के खिलाफ कार्रवाई की मांग को लेकर सड़कों पर उतर आए और लगभग पांच माह तक आंदोलन में डटे रहे तो मोदी ने तब भी इस मामले में कुछ नहीं कहा. 

इस बीच, नफरत के ज़हरीले एजेंडा के चलते मणिपुर दो मूल निवासी समुदायों की आग में जल उठा और उसकी लपटें उठते आज तीसरा महीना गुजर रहा है, लेकिन "पचास करोड़ की गर्लफ्रेंड", "सवा सौ साल की बुढ़िया", "मामा के घर से लाए थे क्या" अथवा "कांग्रेस की विधवा" जैसी अनेक अनियंत्रित टिप्पणियां करने वाले मोदी उस राज्य में हो रहे खून-खराबे की निंदा करना तो दूर, प्रधानमंत्री के रूप में  लोगों से शांति बनाए रखने की अपील भी नहीं कर पा रहे हैं. 

स्मरण हो कि ये वही मोदी हैं, जिन्होंने 2014 के चुनाव प्रचार के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर चुटकी लेते हुए उन्हें "कमजोर" और बेजुबान" प्रधानमंत्री जैसे विशेषणों से नवाजा था. चुनाव सभाओं में वे उपहास उड़ाते हुए उन्हें अक्सर "मौनमोहन" सिंह नाम से संबोधित किया करते थे. उनका सवाल हुआ करता था कि "मौनमोहन" सिंह जी ने महंगाई जैसे मुद्दों पर चुप्पी क्यों साध रखी है. 

सो, विपरीत प्रतिक्रिया के नियम अथवा कथित "कर्म सिद्धांत" ने क्या मोदी को भी आ घेरा है? और वे मौन की चादर ओढ़कर "मौन मोदी" बनने को मजबूर हो गए हैं?

Tuesday, July 18, 2023

दुनिया के 236 वरिष्ठ अर्थशास्त्रियों की खुली चिट्ठी

चित्र साभार: https://english.madhyamam.com/

"हम बेहद आर्थिक नाबराबरी के दौर से गुजर रहे हैं. 25 साल में पहली बार हद से ज्यादा गरीबी और बेअंदाज दौलत, दोनों ही तेजी से और एक साथ बढ़ी हैं. दुनिया में नाबराबरी 2019 और 2020 के बीच जिस कदर तेजी से बढ़ी, उतनी दूसरे विश्व युद्ध के बाद कभी नहीं बढ़ी थी. 

"दुनिया की आबादी में सबसे अमीर 10 फीसदी व्यक्ति आज दुनिया में हो रही आमदनी का 52 फीसदी हिस्सा पा रहे हैं, जबकि सबसे गरीब आधी आबादी इसका 8.5 फीसदी ही कमा पाती है. अरबों लोगों को भोजन की ऊंची और बढ़ती कीमतों के साथ-साथ भूख जैसी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है, जबकि अरबपतियों की संख्या पिछले दस साल में दोगुनी हो गई है."

यह शब्द किसी राजनैतिक पार्टी के घोषणापत्र या बयान से नहीं लिए गए हैं, बल्कि उस खुली चिट्ठी के अंश हैं जो 67 देशों के 236 वरिष्ठ अर्थशास्त्रियों ने संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस और विश्व बैंक के अध्यक्ष अजय बंगा के नाम भेजी है. इस चिट्ठी को नोबल पुरस्कार विजेता एवं कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर जोसेफ स्टिग्लिट्ज़ और यूनिवर्सिटी ऑफ मैसाचुसेट्स एमहर्स्ट में प्रोफेसर जयती घोष ने लिखा है और इसमें अनुरोध किया गया है कि दोनों महानुभाव दुनिया भर में व्याप्त "बेहद नाबराबरी" को कम करने की दिशा में काम करें. 

अर्थशास्त्रियों के इस समूह ने कहा है कि बेहद नाबराबरी हमारे सामाजिक और पर्यावरण संबंधी सभी लक्ष्यों को खोखला करेगी. यह हमारी राजनीति को खा जाएगी, हमारे भरोसे को तोड़ देगी, हमारी सामूहिक आर्थिक समृद्धि में बाधा डालेगी और बहुपक्षीय संबंधों को कमजोर करेगी. उन्होंने चेतावनी दी है कि दुनिया में अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई से अगर नहीं निबटा गया तो गरीबी अधिक बढ़ेगी और जलवायु संकट का खतरा अधिक बढ़ जाएगा.

Monday, July 17, 2023

दुनिया का औसत तापमान और उसमें मामूली वृद्धि


चित्र साभार: https://wicnews.com

एक हफ्ते से ऊपर हो गया दुनिया के औसत तापमान को लेकर मेरी एक पोस्ट के बारे में जिक्र करते हुए एक मित्र ने बातचीत में मुझसे पूछा कि मौसमविज्ञानी सारी दुनिया का औसत तापमान कैसे नाप लेते हैं और फिर एक दिन में अगर दुनिया का औसत तापमान 0.17° या 0.05° सेल्सियस बढ़ भी जाता है तो कौन-सी आफत आ जाती है. दोनों सवाल एकदम उपयुक्त थे और किसी भी व्यक्ति के लिए इनके बारे में जानना स्वाभाविक है. 

पहला सवाल: दुनिया का औसत तापमान कैसे नापते हैं?

दरअसल, हम जिसे औसत तापमान कहते हैं, भू-विज्ञान की दृष्टि से वह दुनिया में धरातल का औसत तापमान है. इसकी गणना समुद्र की सतह पर तापमान और धरती पर हवा के तापमान का औसत लगाकर की जाती है. धरती के तापमान की पूरी तस्वीर पाने के लिए वैज्ञानिक धरती के ऊपर की हवा और जहाजों, समुद्री यंत्रों और कभी-कभी उपग्रहों से एकत्र किए गए समुद्री सतह के तापमान को जोड़ते हैं.

धरती और महासागर के हर स्टेशन पर तापमान की तुलना रोजाना उस जगह में और उस समय पर रहने वाले 'सामान्य' तापमान से की जाती है और अमूमन 30 साल की अवधि का उनका दीर्घकालिक औसत निकाला जाता है. उसमें अगर अंतर आए तो वैज्ञानिक अंदाजा लगाते हैं कि तापमान समय के साथ किस तरह बदल रहा है या बदल गया है. 

अगर अंतर बढ़ जाए तो उसका मतलब है तापमान दीर्घकालिक औसत से ज्यादा गरम है. अगर अंतर कम हो जाए तो उसका मतलब तापमान औसत से ठंडा है. रोजाना जो अंतर आता है, उसे जोड़कर पूरे महीने का औसत निकाला जाता है और फिर उनका इस्तेमाल मौसम-दर-मौसम और साल-दर-साल तापमान संबंधी अंतर निकालने के लिए किया जाता है.

दूसरा सवाल: औसत तापमान में मामूली वृद्धि से क्या आफत आएगी?  

इसमें सबसे पहले जरूरी है कि औसत तापमान को किसी जगह का सामान्य तापमान समझने की गलती न करें. किसी जगह के सामान्य तापमान में एक दिन में ही खासा अंतर आ सकता है. लेकिन औसत तापमान में मामूली वृद्धि ही जलवायु में बहुत बड़े बदलाव का कारण बन जाती है. 

हम 1880 के दशक से, जबसे मनुष्य ने तापमान का रिकॉर्ड रखना शुरू किया, हर दशक में औसत तापमान में आए बदलाव पर नजर डालें. तब दुनिया का औसत तापमान 13.73° सेल्सियस था. उसमें 1890 वाले दशक तक पहुंचते-पहुंचते 0.02° से. की बढ़ोतरी हो गई. 1970 का दशक आते-आते यानी 90 साल के दौरान यह बढ़ोतरी 0.27° से. तक जा पहुंची थी. 2010 वाले दशक के अंत तक यह वृद्धि 0.97° से. हो चुकी थी और औसत तापमान 14.70° से. था. 

दुनिया तब सावधानी की मुद्रा में तो थी ही, लेकिन उसके बाद जलवायु में बदलाव को उसने संकट के रूप में लेना शुरू किया. रिकॉर्ड में 2010 का दशक अभी तक का सबसे गरम दशक रहा है. 2015 से लेकर 2022 तक के आठ साल में तो गरमी शिखर पर पहुंच चुकी है. 

एक सदी में तापमान मात्र कोई 1° से. बढ़ने से ही नतीजा यह हुआ कि क्षेत्रवार और मौसमवार तापमान हदें पार करने लगा है, समुद्र ज्यादा गरम होने से उनकी सतह ऊंची उठ गई है और तटवर्ती इलाके पानी में डूब गए है, प्रचंड तूफानों की संख्या बढ़ गई है, कहीं सूखा पड़ने की गति में तेजी आई है तो कहीं भारी बारिशें होने लगी है, पौधों और जानवरों के रिहायशी इलाके कहीं सिकुड़ने तो कहीं बढ़ जाने, और दुनिया भर में इंसानों की बस्तियां तबाह होने से उनकी जातियों-प्रजातियों की संख्या घट गई है, वगैरह-वगैरह. 

संयुक्त राष्ट्र द्वारा मौसम परिवर्तन को लेकर गठित दल, आइपीसीसी के मुताबिक़, अगर दुनिया में तापमान में बढ़ोतरी होती गई तो नीचे दिए परिणाम हो सकते हैं:

समुंदर के पानी की बढ़ती सतह के चलते कोई 25-30 साल बाद एशिया-प्रशांत क्षेत्र में लगभग 1 अरब लोग प्रभावित होंगे; मुंबई, ढाका, बैंकाक, हो ची-मिन्ह सिटी, जकार्ता और शंघाई जैसे शहरों के डूबने का खतरा है; ब्रिटेन और यूरोप अत्यधिक बारिश की वजह से भयानक बाढ़ की चपेट में आ जाएंगे; मध्य-पूर्व के देश अत्यधिक गर्मी की लहरों और व्यापक सूखे का अनुभव करेंगे; प्रशांत क्षेत्र के द्वीप देश समुद्र में डूब सकते हैं; कई अफ़्रीकी देशों को सूखे और भोजन की कमी का सामना करना पड़ सकता है; पश्चिमी अमेरिका में सूखे की स्थिति होने की संभावना है, जबकि अन्य इलाकों में ज़्यादा तीव्र तूफ़ान देखने को मिलेंगे; ऑस्ट्रेलिया में अत्यधिक गर्मी और जंगल की आग से मौतें होने की संभावना होंगी.

ऐसे में जाहिर है कि औसत तापमान में मामूली वृद्धि भी होने से बरसों बाद उसका नतीजा आफत आने में ही निकलता है. 

Saturday, July 15, 2023

Nature-Human Studies (Hindi), No. 15, June 2023






























Tuesday, July 11, 2023

चेतना क्या है?



हम जिसे चेतना कहते हैं, वह दरअसल क्या है? गूढ़ भाषा में तो पता नहीं, पर मेरा मानना है कि यह किसी जीव या प्राणी का वह स्वभाव या उसके मन की वह ताकत है जिससे उसे अपने अंदर की अनुभूतियों, भावों, विचारों वगैरह का और बाहर की घटनाओं या बातों का अनुभव या एहसास होता है. मनुष्य के संदर्भ में, जब कोई व्यक्ति किसी चीज या प्रक्रिया के बारे में जो समझ, जानकारी या अवधारणा रखता है, बनाता है या बना चुका होता है, उसे चेतना कहते हैं. ज्यादा सटीक कहें तो चेतना अपनी और अपने इर्द-गिर्द की स्थितियों या वातावरण के प्रति जागरूक होना और उसके अनुसार क्रिया करना है. 

पर यह चेतना आती कहां से है? क्या वह जन्मजात होती है? या इर्द-गिर्द की स्थितियों से आती है? कुछ गुण तो हर चीज, जीव या प्राणी में कमोबेश जन्मजात हैं. जैसे मनुष्य में देखने, सुनने, सूंघने, चखने/खाने और महसूस करने का गुण लाखों साल की उस प्रक्रिया का फल है, जिसके दौरान वह साधारण जीव, रीढ़धारी और बिना रीढ़ पशु, स्तनधारी, नर-बानर वगैरह की अवस्था से होकर गुजरा. लगभग 2-3 लाख साल पहले जब आज जैसा मुनष्य (होमो-सेपियन) वजूद में आया तो ये गुण उसमें आ चुके थे. ये अब मनुष्य में लगभग जन्मजात पाए जाते हैं और उसकी पांच ज्ञानेंद्रियों के रूप में विकसित हो चुके हैं.

लेकिन ज्यादातर चेतना हर चीज, जीव या प्राणी अपने इर्द-गिर्द की स्थितियों या वातावरण से हासिल करते हैं. इसीलिए जब तक मनुष्य ने आग का आविष्कार नहीं कर लिया था, वह किसी प्रकार का पका हुआ खाना खा ही नहीं सकता था. पका हुआ खाना खाने की चेतना उसमें आग का आविष्कार कर लेने के बाद ही पैदा हुई. 

Saturday, July 8, 2023

विश्व शक्ति संतुलन: बहुध्रुवीय व्यवस्था में दो बड़े खेमे (किस्त 1)


मौजूदा दुनिया

मौजूदा दुनिया में आज हर कहीं कॉर्पोरेट पूंजीवादी व्यवस्था का बोलबाला है. इसमें दौलत पैदा करने की उसकी सारी प्रक्रियाएं किसी एक राष्ट्र, एक देश तक सीमित नहीं रह गई हैं. इन कॉर्पोरेट प्रक्रियाओं में व्यापार की गतिविधियां, कारखानों या उत्पादन के प्रतिष्ठानों में पूंजी का निवेश, बैंक व्यवसाय, बिक्री के लिए बाजार, एक जगह से दूसरी जगह टेक्नोलॉजी लाना-ले जाना, या इसी तरह के कई दूसरे कारोबार शामिल हैं. इन सभी प्रक्रियाओं का जाल सर्वत्र फैला होने से उनका चरित्र भी अंतरराष्ट्रीय या अंतरदेशीय हो गया है और लगातार होता जा रहा है.

इसके चलते दुनिया में लोगों के अलग-अलग समूहों, समुदायों अथवा राष्ट्रीयताओं के बीच आपसी मेलजोल और एक-दूसरे से विचार-विमर्श इस कदर तेजी से बढ़े हैं जिससे वैश्वीकरण का एक विशाल सिलसिला खड़ा हो गया है. इसकी वजह से देश अंतरनिर्भर हो गए हैं और यह अंतरनिर्भरता बढ़ती ही जा रही है. इसका नतीजा यह हुआ है कि दुनिया अंतरनिर्भर इकाइयों के एक ढीले-ढाले सामाजिक ढांचे में पिरोई जा चुकी है, यानी वह मानसिक रूप से और भौतिक रूप से भी एक इकाई बन गई है.

कॉर्पोरेट पूंजीवादी व्यवस्था के नेताओं ने दुनिया में यह नया सिलसिला पैदा होते ही उसे फौरन लपक लिया. इनमें पहले तो अमूमन विकसित देशों के और खासकर अमेरिका के कॉर्पोरेट और राजनैतिक शासक हलकों के नेता शामिल हुए और अब रूस और चीन के कॉर्पोरेट शासक हलकों के नेता भी उसका हिस्सा बन गए हैं. वे उसे दुनिया के मानवीय और भौतिक-पर्यावरणीय स्रोतों पर अपनी मजबूत पकड़ बनाने और इस तरह अपने वित्त एवं धन-दौलत में तेजी से इजाफा करने के लिए इस्तेमाल करते आ रहे हैं.

इसलिए ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की अपनी नीति के तहत मौजूदा कॉर्पोरेट पूंजीवादी व्यवस्था प्राकृतिक यानी पर्यावरण संबंधी सभी संसाधनों के दुरुपयोग और अति उपयोग को बढ़ावा देती आ रही है. नतीजा यह है कि ऐसे संसाधन तेजी से घट रहे हैं. यही नहीं, गैर-बराबरी, गरीबी, किल्लत वगैरह जैसी सामाजिक खराबियों की वजह से मानव संसाधन भी मानसिक और शारीरिक दोनों तरह की कमजोरी का शिकार हो रहे हैं. ऐसी व्यवस्था के चलते पर्यावरण और मनुष्य के लिए बेमिसाल संकट पैदा हो गया है.

ऐसी अंतरनिर्भर दुनिया में एक देश की सुरक्षा अब अपने पड़ोसियों की आर्थिक तरक्की और वहां लोकतंत्र के हो रहे विस्तार से जुड़ गई है. अंतरनिर्भरता का तकाजा है कि वे मनुष्य-मनुष्य के बीच सभी तरह के टकरावों को बंद कर दें ताकि पर्यावरण और मनुष्य के सामने खड़े बेमिसाल संकट की जानलेवा चुनौतियों का एक होकर मुकाबला कर सकें.

कॉर्पोरेट पूंजीवादी शासक खुद इस हकीकत से परिचित हैं. लेकिन वे यह पक्का करना चाहते हैं कि कॉर्पोरेट मुनाफे की उनकी प्रक्रिया कहीं बंद न हो जाए. जब तक यह प्रक्रिया बंद नहीं होती, वे अमूमन सैनिक जोखिम का रास्ता नहीं अपनाते क्योंकि अंतरनिर्भर दुनिया में ऐसा करना तर्कसंगत नहीं रहा है.

बहरहाल, कॉर्पोरेट पूंजीपति हमेशा एक ही गुट या खेमे में रहकर काम नहीं करते. विश्व कॉर्पोरेट पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत काम करते हुए वे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर अपने-अपने हितों के अनुसार एक से अधिक समूहों में काम करते हैं.

राष्ट्रीय स्तर पर, जहां उनमें उसी विश्व व्यवस्था के अंदर काम करने को लेकर बहुत हद तक सहमति होती है, वहीं अपने-अपने हितों को लेकर उनके अंदर टकराव भी होते हैं. इन टकरावों की झलक राष्ट्रीय स्तर पर उनकी प्रतिनिधि राजनैतिक पार्टियों के बीच टकरावों से मिलती है. इनमें से कुछ पार्टियां अंतरराष्ट्रीय धारा के तहत काम करते रहने के बावजूद अपने लोगों के वोट हासिल करने के लिए उनकी राष्ट्रीय भावनाओं का दोहन करती हैं.

आज इसी वजह से कुछ देशों में तथाकथित राष्ट्रीय उभार देखने को मिल रहा है. इसकी मिसाल हर देश में अलग-अलग तरह से देखी जा सकती है. जैसे भारत में इस समय हिंदू राष्ट्रवाद का घटनाक्रम देखने को मिल रहा है.

इसी तरह, कॉर्पोरेट पूंजीपतियों की प्रतिनिधि कुछ दूसरी राजनैतिक पार्टियां किसी सामाजिक गुट, समुदाय या समूह की समर्थक बनकर या कोई लोक-लुभावन नारा देकर जनता के वोट बटोरने की कोशिश करती हैं.

ऐसा लग सकता है कि तथाकथित राष्ट्रीय उभार वाले देशों ने वैश्विक राह पर चलते हुए पीछे की ओर मोड़ काट लिया है, लेकिन कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के संबंधित गुट या समूह शायद वैश्वीकरण की इस प्रक्रिया का उल्लंघन करने के समर्थ न हो सकें जिसने दुनिया को मानसिक और भौतिक दोनों तरह से वस्तुतः एक इकाई में बदल दिया है और देशों को अंतरनिर्भर बना दिया है.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, कॉर्पोरेट पूंजीपति गुटों में से एक या कुछ गुट महाशक्ति या महाशक्तियों अथवा उनके एक या दो समूहों में विकसित हो जाते हैं. इस तरह, दुनिया भर के बाजारों, कच्चे माल और सस्ती मेहनत को अपने कंट्रोल में लाने के लिए होड़ करने के दौरान वे उस महाशक्ति या उनके किसी समूह के साथ टकराव में आ जाते हैं.

 

फिर हुई बहुध्रुवीय दुनिया

पिछले कुछ साल से दुनिया उसी दिशा में बढ़ चुकी दिखती है. संकट में फंसे अमेरिकी कॉर्पोरेट पूंजीपतियों की ढीली होती गई पकड़ की वजह से एकध्रुवीय दुनिया धीरे-धीरे फिर से बहुध्रुवीय दुनिया में बदल गई है. और कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के दो खेमे उभर आए हैं. एक का नेतृत्व अमेरिका का शासक गुट कर रहा है, तो दूसरे की रहनुमाई चीन-रूस के शासक गुटों के हाथों में है. दुनिया में ताकतों के नए पैदा हुए संतुलन पर जरा नजर डालें.

अभी भी हर लिहाज से अव्वल सुपरपॉवर माना गया अमेरिका अपने खेमे के दूसरे कॉर्पोरेट पूंजीपति गुटों के साथ मिलकर एक तरफ तो दूसरे नंबर की आर्थिक सुपरपॉवर बने चीन को संसार में कोई कारगर राजनैतिक भूमिका निभाने से रोकने की और उसे घेरने की हर मुमकिन कोशिश कर रहा है, और दूसरी तरफ एक अन्य ऐटमी ताकत रूस के खिलाफ पहले तो क्रीमिया और सीरिया में उसकी विस्तारवादी भूमिका और अब यूक्रेन पर सीधे हमले के कारण एक के बाद एक आर्थिक प्रतिबंध लागू किए जा रहा है.

अमेरिका के साथ ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, जापान वगैरह उसके परंपरागत दोस्त हैं, तो चीन और रूस छोटे देशों के साथ अपने कूटनीतिक और फौजी रिश्ते मजबूत करने के अलावा एक-दूसरे से सहयोग कर रहे हैं. दुनिया में आज इन दोनों खेमों की आर्थिक तौर पर देखें तो हालत खस्ता होती जा रही है. दोनों ही दुनिया भर के बाजारों, कच्चे माल और सस्ती मेहनत को अपने कंट्रोल में लाने के लिए होड़ कर रहे हैं ताकि अपनी-अपनी गिरती हुई अर्थव्यवस्था को संभाल सकें.

दोनों के पास जबर्दस्त हथियार हैं - ऐटम बम, हाइड्रोजन बम और न जाने क्या-क्या. इसके बावजूद खुद दोनों खेमे सीधा फौजी खतरा उठाने की हिम्मत शायद ही करें. वजह स्पष्ट हैः उन्हें पता है, उन हथियारों के इस्तेमाल से उनका अपना वजूद भी खत्म हो सकता है. और यही नहीं. आज की दुनिया में चूंकि व्यापार, पूंजी निवेश और टेक्नोलॉजी लेने-देने संबंधी कॉर्पोरेट पूंजीवादी प्रक्रियाओं का स्वरूप विश्व स्तर का हो गया है और इसकी वजह से दोनों खेमों ने एक-दूसरे की अर्थव्यवस्था में बहुत ज्यादा निवेश कर रखा है, इसलिए वे उसे खतरे में नहीं डालेंगे. लेकिन दुनिया के हर इलाके में जहां-जहां भी तनाव मौजूद है, वे अपने-अपने दोस्तों के जरिये सीमित ही सही, परोक्ष युद्ध (Proxy war) तो कर ही सकते हैं, या फिर छोटे देशों को धमकी दे सकते हैं.

Monday, July 3, 2023

मणिपुर में हिंसा: समस्या का समाधान क्या है? (किस्त 2)

चित्र साभार: https://democracynews.in/


इस समय मणिपुर की जो स्थिति है, उसके मद्देनजर क्या किया जाना चाहिए?

पहली बात तो यह समझने की है कि अपने ज़हरीले एजेंडा के तहत कट्टर हिंदुत्ववादी ताकतों ने राज्य में नफरत का जो जबरदस्त माहौल बनाया है, उसमें सब कुछ खो नहीं गया है. अभी उम्मीद की भी कुछ किरणें बाकी हैं.

दंगों में सभी मैतेई शामिल नहीं हैं. उनके अनेक नेता और विचारक इसके विरोध में उतरे हैं. जवाब में उनमें से कुछ के घरों पर हमले हुए और उन्हें भूमिगत हो जाना पड़ा. इंफाल से कोई 45 किमी दूर मोइरांग में जब एक हथियारबंद गिरोह किसी क्रिश्चियन स्कूल पर हमला करने आया तो उसे रोकने के लिए मैतेई माता-पिता और छात्र उसके गेट पर जाकर खड़े हो गए. उधर, पड़ोस के चुराचांदपुर में, जब कुछ कुकी पुरुष मैतेई लोगों पर हमला करने की योजना बना रहे थे, तो कुकी महिलाओं ने उन्हें रोकने के लिए मानव शृंखला बना ली थी.17

ऐसी कई मिसालें हैं जो बताती हैं कि सुलह की दिशा में कोशिशें की जा सकती हैं. यहां तक कि नगाओं को कुकी लोगों से भिड़ाने की कोशिश के दौरान ही कुछ नगा संगठन और नगालैंड के कुछ राजनैतिक नेता राहत सामग्री लेकर एकजुटता जताने के लिए कुकी गांवों में जा पहुंचे थे.18

यही नहीं, राज्य में और इस समूचे क्षेत्र में विभिन्न समुदाय शांति कायम करने के लिए प्रार्थना सभाएं कर रहे हैं. अनेक धार्मिक नेताओं ने सभी से शांति स्थापित करने का अनुरोध किया है. कुछ लोगों ने तो सत्य एवं मेल-मिलाप आयोग बनाए जाने की मांग की है. पूर्वोत्तर की महिला संस्थाओं ने अपीलें जारी की हैं और विभिन्न बस्तियों में "माताओं की शांति समितियों" का गठन किया है.19

दूसरी बात यह समझने की है कि दुनिया में आज हम जिस कॉर्पोरेट पूंजीवादी सिस्टम के अंतर्गत रह रहे हैं, उसमें सभी देश अलग-अलग होते हुए भी एक-दूसरे पर निर्भर हैं. भारत उसी सिस्टम की ही एक कड़ी है. दुनिया के इस अंतरनिर्भर सिस्टम की तरह भारत में भी अलग-अलग तरह के सामाजिक, धार्मिक, जातीय, जनजातीय, मूल निवासी समुदायों वगैरह के अलग-अलग रहन-सहन, रीति-रिवाज, प्रथाएं होने के बावजूद वे सभी एक-दूसरे पर निर्भर हैं.

इसी तरह, मणिपुर में भी हर समुदाय के हित दूसरे समुदाय के हितों से जुड़े हुए हैं, एक की सुरक्षा दूसरे की सुरक्षा से जुड़ी हुई है. ऐसे में, जाहिर है, एक की तरक्की हुए बिना दूसरे की तरक्की नहीं हो सकती. लेकिन देश को कुछ सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी देने वाले इस राज्य में इस समय मुख्य रूप से मैतेई, कुकी और नगा जो तीन मूल निवासी समुदाय हैं, दुर्भाग्य से, उनके बीच अविश्वास का बीज बो दिया गया है. इसमें सबसे बड़ी भूमिका मुख्यमंत्री बीरेन सिंह और उनकी सरकार ने निभाई है.

लिहाजा, आज पूरे मणिपुर को लपेट में ले लेने वाली इस गंभीर समस्या के मद्देनजर सबसे पहले तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चाहिए कि वे मणिपुर के सभी समुदायों से शांति कायम करने की अपील करने और उन्हें राज्य की समस्या का समाधान ढूंढ़ने के प्रति आश्वस्त करने के साथ-साथ मौजूदा हालत से निबटने में अक्षम हो चुकी बीरेन सिंह की सरकार को बर्खास्त करने की घोषणा करें.

इसके अलावा, मणिपुर के राज्यपाल को भी कुछ आपात कदम उठाने होंगे. हमारे सुझाव में वे:

(1) दंगों के दौरान मारे गए, घायल हुए, घर-परिवार से उजड़ गए और आर्थिक हानि उठाने वाले व्यक्तियों / परिवारों को समुचित मुआवजा देने की घोषणा करें

(2) जिन पहाड़ी इलाकों में पेट्रोलियम और कोबाल्ट के कथित भंडार खोजे गए हैं, वहां से आदिवासियों को आतंकित करके उन्हें घर-परिवार से खदेड़ने की कोशिशें बंद करने का आदेश दें.

(3) तीनों मूल निवासी समुदायों से संबंधित सिविल सोसायटी के लोगों को आगे लाकर शांति स्थापित करने की प्रक्रिया शुरू करें, जो हर क्षेत्र में जाकर बातचीत के जरिये दशकों से हिंसा के बीच रहने वाले समुदायों के टूटे दिलों को जोड़ने का काम करें;

(4) सिविल सोसायटी समूहों की पहली बैठक में ही आपसी किसी भी समस्या को सुलझाने के लिए सैन्य तरीकों या हिंसा के इस्तेमाल का नहीं बल्कि बातचीत का रास्ता अपनाने का संकल्प लें;

(5) उसी बैठक में सभी के परामर्श से एक तथ्य खोजी आयोग के गठन की घोषणा करें, जो दंगों के पहले और उसके दौरान हुई घटनाओं की सचाई का पता लगाकर दो माह के भीतर अपनी रिपोर्ट दे.

लेकिन यह सब कुछ करने के बाद भी मूल समस्या का समाधान नहीं हो जाता. इसका उचित और तर्कसंगत समाधान तभी हो सकता है जब राज्य के तीनों समुदायों को ज्यादा से ज्यादा संभव संवैधानिक स्वायत्तता देकर उनकी जातीय एवं क्षेत्रीय आकांक्षाएं और हित पूरे किए जाएं.

सभी समुदायों के हितों में सामंजस्य बनाकर, अगर हो सके तो, एक ही राज्य के भीतर बने रहने को लेकर सहमति बनाना ज्यादा अच्छा विकल्प है. इसके तहत मैतेई, कुकी और नगा क्षेत्रों में उनकी अपनी-अपनी निर्वाचित क्षेत्रीय परिषदें गठित किए जाने का प्रावधान करना चाहिए, जो अपने-अपने क्षेत्रों में पर्यावरण संबंधी मसलों, मनुष्य से जुड़े मुद्दों और संवैधानिक-क़ानूनी मामलों के बारे में सभी प्रकार के फैसले लेने में सक्षम हों.

एक राज्य बने रहने की स्थिति में मैतेई समुदाय को अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जाना चाहिए, जिसके अंतर्गत केवल उन्हीं लोगों को अनुसूचित जाति की सुविधाएं दी जाएं, जिनके जीवन-यापन का स्तर गरीबी रेखा के नीचे हो; इसी तरह कुकी और नगा समुदायों में भी सिर्फ गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों को ही अनुसूचित जाति की सुविधाएं दी जानी चाहिए.

17. https://www.telegraphindia.com/opinion/a-land-in-trouble-an-overview-of-manipurs-ethnic-conflicts-between-meitei-naga-and-kuki-groups-starting-from-british-rule/cid/1947498

18. https://www.telegraphindia.com/opinion/a-land-in-trouble-an-overview-of-manipurs-ethnic-conflicts-between-meitei-naga-and-kuki-groups-starting-from-british-rule/cid/1947498

19. https://www.usip.org/publications/2023/06/understanding-indias-manipur-conflict-and-its-geopolitical-implications

Saturday, July 1, 2023

समानता या न्यायसंगतता? / Equality or equity?

समानता या न्यायसंगतता? / Equality or equity? 

अर्थ और प्रयोग के लिहाज से दोनों शब्द एक-दूसरे से बहुत भिन्न हैं; समानता के अंतर्गत संसाधनों और अधिकारों का बंटवारा समान रूप से, जबकि न्यायसंगतता के अंतर्गत यह बंटवारा जरूरत और उपयोगिता के हिसाब से किया जाता है.

Both the words differ sharply in meaning as well as practice; under equality, the resources and rights are shared equally, while, under equity, the sharing is on the basis of needs and requirements. 

समानता होनी चाहिए या न्यायसंगतता? यह शायद आज दुनिया में सबसे ज्यादा विवादास्पद विषयों में से एक है. बहुत सारे लोग हैं जो गलती से ही सही, अूममन यह मानते हैं कि अंग्रेजी भाषा के शब्द "equality" (समानता) और "equity" (न्यायसंगतता) का एक ही मतलब है और वे एक-दूसरे के स्थान पर इस्तेमाल किए जा सकते हैं. कई लोग तो यहां तक भी कह देते हैं कि वे एक अन्य शब्द "egality" (बराबरी) के पर्यायवाची हैं. समानता और बराबरी तो पर्यायवाची हैं ही, पर न्यायसंगतता का अर्थ उन दोनों से एकदम अलग है.

Should there be equality or equity? It is perhaps one of the most controversial topics in the world today. There are so many people who generally misunderstand that the words “equality” and “equity” mean the same thing and that they can be used in place of one another. Some people go to the extent of declaring both these words as synonyms to another word “egality.” Equality and egality, though, are synonyms but equity has totally a different meaning.

बहरहाल, दोनों शब्द एक जैसे लगने के बावजूद, अर्थ और प्रयोग दोनों के लिहाज से एक-दूसरे से बहुत भिन्न हैं. सामाजिक तौर पर, वे मुख्यतः इस लिहाज से अलग हैं कि सामाजिक संसाधनों और अधिकारों में लोग कैसे हिस्सेदारी करते हैं या उनका बंटवारा कैसे किया जाता है.

However, despite appearing to be similar, both the words differ sharply in meaning as well as practice. In the social sense, they differ mainly in the way how the people share or divide social resources and rights among themselves.

दोनों के बीच फर्क निर्विवाद है. समानता यह बताती है कि संसाधनों, अवसरों और अधिकारों में हिस्सेदारी या उनका बंटवारा समान रूप से किया जाए जिससे कि सभी व्यक्तियों को बराबर हिस्सा मिले, जबकि न्यायसंगतता यह बताती है कि संसाधनों, अवसरों और अधिकारों में हिस्सेदारी या उनका बंटवारा जरूरत और उपयोगिता के हिसाब से होना चाहिए जिससे कि जरूरतमंदों को सबसे ज्यादा हिस्सा मिले. इस तरह से न्यायसंगतता औचित्य, न्याय और निष्पक्षता के गुण व्यक्त करती है. 

The difference between both the words is very conclusive. In case of equality, the resources, rights and opportunities are shared or distributed equally or evenly in such a way that all persons get equal share, while, in case of equity, the resources, rights and opportunities are shared or distributed on the basis of needs and requirements so that the deserving persons get the large share. Thus equity refers to the qualities of justness, fairness and impartiality.

लेकिन समानता और न्यायसंगतता दोनों सापेक्ष प्रक्रियाएं हैं और उनमें से हरेक अपनी खास अवस्था में तर्कसंगत है. 

But equality and equity are both relative processes with each being reasonable in its own particular situation.

समानता तब उचित है जब उसे पहले से ही समान हैसियत रखने वाले लोगों में लागू किया जाता है, यानी यह तब कारगर है जब हर व्यक्ति का शुरुआती स्तर एक जैसा हो. दूसरे शब्दों में, समानता का मतलब है, हरेक का समान स्तर पर ध्यान रखना.

Equality is just when it is implemented among the people with similar standing, that is, it works only if the starting point of every individual is same. In other words, equality means treating everyone in the same way.

उधर, न्यायसंगतता सभी लोगों का समान स्तर पर ध्यान रखकर नहीं बल्कि उसे न्यायसंगत तरीके से यानी हालात के मुताबिक लागू करके हासिल की जा सकती है. यह उस समय उपयुक्त है जब उसे समाज के सभी सदस्यों के सशक्तिकरण की खातिर लागू किया जाता है. दूसरे शब्दों में, न्यायसंगतता का मतलब है, हरेक का उसकी जरूरत के हिसाब से ध्यान रखना.

On the other hand, equity cannot be achieved through treating all the people equally but in an equitable manner, i.e. as per their circumstances. It is suitable when it is put into practice for the empowerment of all members of the society. In other words, equity means treating everyone according to one’s needs.

कुछ लोगों का कहना है कि समाज के जिन सदस्यों का सशक्तिकरण हो जाता है उन्हें न्यायसंगतता के नाम पर संसाधनों या अधिकारों का वितरण पहले की तरह जारी रहे अथवा कोई सशक्त सदस्य पहले की तुलना में कमजोर हो जाता है तो उसके साथ समानता के आधार पर ही व्यवहार चलता रहे तो यह अन्याय होगा. वे यह भी मानते हैं कि आज की व्यवस्था में यह बात सामान्य हो गई है.

Some people allege that if the newly empowered members of the society continue to share the resources and rights as before or an already empowered member gets weak as compared to his or her earlier position but continues to be treated on equal basis, then that will be an injustice. They also believe that it has become a norm in the present system.

उन लोगों का ठीक ही कहना है कि यह न्यायसंगतता नहीं, अन्याय होगा. वजह यह है कि समाज के किसी कमजोर सदस्य का जैसे-जैसे सशक्तिकरण होता जाएगा, वैसे-वैसे स्थितियां बदलती जाएंगी. जैसे ही वह सदस्य कुछ सशक्त होगा, उसे कम सहारे की जरूरत होगी और फिर अगर वह पूरी तरह सशक्त हो जाता है तो तब उसे सहारे की कोई जरूरत नहीं रहेगी. तब वह दूसरे सशक्त लोगों के साथ समानता की स्थिति में आ जाएगा.

They rightly call it as injustice, not equity. The reason being that as the weak one in society continue to be empowered, the conditions will change. As such, if a member gets a little empowered, he or she will need lesser support, and if he or she gets fully empowered, no support will be required. Then he or she will be in a position of equality with other empowered ones.

इस सिलसिले में हम कई उदाहरण ले सकते हैं. किसी परिवार में किसी एक समय में खाने, पहनने, स्वास्थ्य, पढ़ाई वगैरह के मामले में हर सदस्य की जरूरत अलग-अलग होती है. अगर परिवार का बुजुर्ग उसमें छोटे-बड़े हरेक की जरूरत की अनदेखी कर समानता के आधार पर व्यवहार करेगा तो वह उचित नहीं होगा. उसे अपने फैसले न्यायसंगतता के आधार पर लेने होंगे. लेकिन किसी दूसरी स्थिति में जब परिवार में कल के बच्चे वयस्क हो जाते हैं और अगली नई पीढ़ी पैदा हो जाती है तो स्थितियां फिर बदल जाती हैं, जिसमें दोनों पीढ़ियों के प्रति समानता नहीं, न्यायसंगतता के आधार पर ही व्यवहार तय होगा. 

We may take a number of examples in this regard. Every member in a family has, at any one time, different needs from the others with respect to food, clothing, health, education etc. If the family elder ignores the needs of every old or young member and treats them equally, it will not be reasonable. He will have to take his decisions on equitable basis. But in another situation when the children of yesterday become adults in the family and the next new generation is born, the situation changes again. Then the treatment towards various generations will be determined not on the basis of equality, but simply equity.

इसी तरह, किसी खेत में या बगीचे में, कोई किसान या बागबान छोटे-बड़े, कमजोर-हृष्टपुष्ट अथवा बीमार-स्वस्थ पेड़-पौधों की समान रूप से देखरेख नहीं करता है. वह छोटे, कमजोर और बीमार पेड़-पौधों का कुछ अतिरिक्त ध्यान रखता है. लेकिन जैसे ही वे पेड़-पौधे बाकी पेड़-पौधों जैसे बड़े, हृष्टपुष्ट या स्वस्थ हो जाते हैं तो वह किसान उनका ध्यान लगभग एक जैसा रखने लगता है.

Similarly, a farmer or a gardener in a farm or in a garden, does not take care of small and big, weak and strong or sick and healthy plants on an equal footing. He pays some extra attention to the small, weak and sick plants. But as soon as they grow big, strong or healthy, the farmer starts taking equal care of them.

बहरहाल, सामाजिक समानता लाने के लिए जरूरी है कि मानव समाज में हरेक व्यक्ति को संसाधनों, अवसरों और अधिकारों में न्यायसंगत हिस्सेदारी मिले अथवा उनका बंटवारा न्यायसंगत तरीके से हो.

However, to bring about social equality, it is essential that each person in the human society has an equitable share in the resources, opportunities and rights, or they be distributed in an equitable manner.

जून 2018 / June 2018