आडवाणी, जोशी की छुट्टी; भाजपा पर मोदी गुट पूरी तरह हावी
भाजपा संसदीय बोर्ड से लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और अटल बिहारी वाजपेयी की छुट्टी कर दिए जाने के बाद अंदरूनी सत्ता संघर्ष में अब नरेंद्र मोदी की अगुआई वाला गुट पार्टी पर पूरी तरह हावी हो गया है. उसने आडवाणी की अगुआई वाले गुट के साथ ही अन्य सभी गुटों को इतना बौना बना दिया है कि वे उसके सामने नतमस्तक होने को मजबूर हैं. हां, दिखावे के लिए तीनों को पार्टी के मार्गदर्शक मंडल का सदस्य जरूर बना दिया गया है, लेकिन उनमें वाजपेयी तो एकदम निष्क्रिय हैं और मोदी और राजनाथ सिंह के धड़ों को उनके एकदम सामने ला बिठाया गया है.
क्या वजह है कि आडवाणी जो कभी देश की अर्थव्यवस्था पर कुंडली जमाए कार्पोरेट पूंजीपतियों के एक धड़े के इस कदर लाडले थे कि वह प्रधानमंत्री की दौड़ में उनके दावे पर दांव लगाने को तैयार था, आज उन्हें राजनीति की दौड़ में भी नहीं बचा पा रहा? स्पष्ट है, कार्पोरेट पूंजीपति यह देखते हैं कि आज की स्थिति में उनके हित कौन पूरे कर पाता है.
जब कांग्रेस पार्टी चुनाव जीतने लायक बनकर उनके हित पूरे करने में सक्षम थी तो कार्पोरेट पूंजीपतियों का बड़ा हिस्सा उसके साथ था. जब उन्होंने देखा कि कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार भ्रष्टाचार के चलते जनता में बहुत बदनाम होने के कारण चुनाव शायद ही जीत पाए तो उन्होंने अपना पूरा दांव मोदी की अगुआई वाले धड़े पर लगा दिया. जनता में कांग्रेस का समर्थन बहुत घट जाने के चलते मोदी कार्पोरेट पूंजीपतियों के दुलारे हो गए और उनको चुनाव में लगभग समूचे कार्पोरेट जगत का समर्थन मिला और उनकी सरकार बनी.
बहरहाल, बात आडवाणी की चल रही है और उनका पतन कोई एक-दो दिन में नहीं हुआ है. इसकी लंबी प्रक्रिया रही है. वाजपेयी तो अस्वस्थ होने की वजह से 2004 के आम चुनाव से ही राजनीति में एक तरह से निष्क्रिय हो गए थे. भाजपा में आडवाणी का जलवा चुनावों में हार के बाद से कम होना शुरू हो गया. वे न सिर्फ पार्टी की अगुआई वाले एनडीए को यूपीए से आगे निकालने में असफल रहे बल्कि कई सहयोगी पार्टियों के समर्थन से भी हाथ धो बैठे थे. पार्टी के भीतर भी उनको बग़ावत झेलनी पड़ी. न सिर्फ उनके अपने दो निकट सहयोगियों उमा भारती और मदनलाल खुराना ने बल्कि अरसे से प्रतिद्वंद्वी रहे मुरली मनोहर जोशी ने भी उनके खिलाफ सार्वजानिक बयानबाजी की.
आरएसएस भी उनकी जड़ें काटने में लगा रहा. वह भूला नहीं था कि भाजपा की अगुआई में केंद्रीय सरकार चलाने के दौरान संघ की अनदेखी करने में आडवाणी ने प्रधानमंत्री वाजपेयी का पूरा साथ दिया था. सरसंघचालक के.एस. सुदर्शन ने 2005 की शुरुआत में बयान दे मारा कि वाजपेयी और आडवाणी को पार्टी की अगुआई छोड़कर नई पीढ़ी के लिए रास्ता खुला छोड़ देना चाहिए.
लेकिन आडवाणी तब संघ के दिशानिर्देशों पर अमल करने को तैयार नहीं थे. अपनी पितृ संस्था को मुंह चिढ़ाते हुए जून 2005 में वे पाकिस्तान के अपने दौरे में मुस्लिम लीग के दिवंगत नेता मुहम्मद अली जिन्ना की मजार पर भी जा पहुंचे. यह मजार आडवाणी के जन्म स्थल कराची में स्थित है. यही नहीं, उन्होंने वहां यह तक कह दिया कि जिन्ना 'धर्मनिरपेक्ष' नेता थे.
संघ यह बर्दाश्त नहीं कर सकता था कि उसका कोई बच्चा-संगठन उसे चुनौती दे. लिहाजा, आडवाणी पर दबाव बनाकर भाजपा अध्यक्ष पद से उनका इस्तीफ़ा ले लिया गया. लेकिन पार्टी में दूसरे गुटों के नेता अभी संगठन के बंटवारे का जोखिम लेने को तैयार नहीं थे, इसलिए कुछ दिन बाद आडवाणी ने इस्तीफ़ा वापस ले लिया. लेकिन संघ पार्टी के भीतर कई महत्वाकांक्षी नेताओं के गुटों पर निरंतर दबाव बनाए हुए था, जिन्होंने 2005 के अंत में मुंबई में आयोजित पार्टी अधिवेशन में आडवाणी को पार्टी अध्यक्ष पद खाली करने पर बाध्य कर दिया और राजनाथ सिंह इस पर चुने गए. लेकिन भाजपा संसदीय दल पर आडवाणी का कब्जा बरकरार रहा.
इस रस्साकशी के चलते 2009 के आम चुनाव आ गए, जो उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके लड़े गए. पार्टी में तो आडवाणी की हैसियत कमजोर हो ही गई थी, जनता की नब्ज पर भी उनकी पकड़ नहीं रही थी. लिहाजा चुनाव में हार का नतीजा यह हुआ कि आडवाणी की भूमिका और सीमित कर दी गई. विपक्ष के नेता पद पर हालांकि उन्होंने अपनी समर्थक सुषमा स्वराज को बैठा दिया और खुद संसदीय दल के चेयरमैन बन गए, लेकिन पार्टी में उनका कद बौना होता गया.
इस बीच कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार व्यापक भ्रष्टाचार के चलते इस कदर बदनाम हो गई कि उसके समर्थक कार्पोरेट पूंजीपतियों के एक बड़े हिस्से को उसकी हार का डर सताने लगा. आडवाणी सोच नहीं पाए कि जनता में यूपीए शासन के भ्रष्टाचार को लेकर बढ़ते गुस्से का कैसे फायदा उठाएं. देश की जनता को सांप्रदायिक आधार पर बांटने वाली रथयात्रा के दिनों में आडवाणी के दूत रहे मोदी चूंकि इसका खूब अनुभव कमा चुके थे और पार्टी यह समझने लगी थी, इसलिए उसके ज्यादातर गुट मोदी के पीछे आ जुटे और आडवाणी अलग-थलग पड़ गए. बाकी सारा इतिहास है.


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