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Thursday, June 29, 2017
Thursday, June 15, 2017
व्हाट्सऐप पर एक सम्मानित मित्र ने एक पोस्ट में कुछ ऐसी जानकारी दी जो सन् 2015 के तथ्यों पर आधारित थी. आज की तारीख में उससे संबंधित तथ्य बदल गए हैं. मैंने उन्हें कहा कि “भाई, आप पुरानी खबर को नए लिबास में क्यों पेश कर रहे हैं? आपने जो हाइपर लिंक भेजा है, वह 11 सितंबर 2015 का है. उसके बाद कई डेवलेपमेंट्स हो चुकी हैं. अति उत्साह में ध्यान रखें कि तथ्यों से खिलवाड़ न हो.”
समीक्षा के लिए मेरा धन्यवाद करते हुए उनका कहना था, “व्हाट्सऐप संदेश प्रणाली के बारे में मेरी समझ है कि तथ्यों का सत्यापन करने की जिम्मेदारी पाठक या दर्शक की है.”
यह बात मुझे अजीब-सी लगी. पाठक या दर्शक तथ्यों को सत्यापित करने के लिए कैसे जिम्मेदार हो गया? कोई जागरूक पाठक या दर्शक खुद अपनी पहल पर तथ्यों का सत्यापन भले ही कर ले, लेकिन तथ्यों के सच या झूठ होने का जिम्मेदार मूल रूप से तो उन्हें प्रस्तुत करने वाला लेखक या उनसे सहमति जताकर उनके लेखन को आगे भेजने या फॉर्वर्ड करने वाला व्यक्ति ही होता है.
किसी देश में यह प्रचलन नहीं है कि उसका कोई नागरिक अपनी मर्जी से तथ्य गढ़ ले और बेचारा पाठक उनका सत्यापन करता फिरे. आज की दुनिया में कोई बच्चा भी जानता है कि तथ्य और मान्यता में फर्क होता है, जिसका पालन सभी को करना चाहिए. तथ्य तो तथ्य है, वह बदलता नहीं हैं. हां, उसके बारे में हमारे मत या राय भिन्न हो सकती है.
Wednesday, June 14, 2017
आभासी दुनिया में और असली जिंदगी में भी हमारे मित्र Rajender Sharma ने लिखा है: "क्या भारत सिर्फ नेहरू-गांधी खानदान की जागीर है कि देश में हजारों स्मारक, अस्पताल, सड़कें तथा योजनाएं उनके लोगों के नाम पर हैं."
सही बात है. नेहरू-गांधी खानदान ने सचमुच भारत को अपनी जागीर बना लिया था. यह किसी की भी जागीर नहीं बनना चाहिए. मेरी समझ से योजनाअों का नाम तो किसी भी नेता के नाम पर नहीं रखा जाना चाहिए – न पुराने और न ही नए. व्यक्ति आते-जाते रहते हैं, देश अपनी जगह कायम रहता है.
अफसोस की बात है कि जो कोई शासक आता है, वह अपने नेता के नाम पर यह सब कुछ करने लगता है. जनता पार्टी, जनता दल और उसके बाद कई सरकारों ने यही सिलसिला जारी रखा.
भाजपा की वर्तमान सरकार भी इसका अपवाद नहीं है. प्रधानमंत्री ने कई योजनाअों का नामकरण नेताअों के नाम पर ही किया है. व्यक्तियों के नाम पर रखी गई कुछ योजनाअों की बानगी: अटल पेंशन योजना, दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना, दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल्य योजना, पंडित दीनदयाल उपाध्याय श्रमेव जयते योजना, अटल मिशन फॉर रेजुवेनेशन ऐंड अर्बन ट्रांसफॉर्मेशन, श्यामा प्रसाद मुखर्जी रुर्बन मिशन.
21वीं सदी के तीसरे दशक में जाने की तैयारी कर रही दुनिया में किसी नेता के नाम पर योजनाअों का नाम रखने का यह सिलसिला अब रुकना चाहिए.
Monday, June 12, 2017
आजकल गांधी जी को लेकर बहुत उठापटक चल रही है. राजनीति का स्तर इस हद तक गिर गया है कि किसी एक पार्टी के नेता ने गांधी जी की शख्सियत के बारे में कुछ लचर बात कह दी तो बवाल मच गया. दूसरी पार्टियों के नेता चाहे गांधी के कहे पर चलें या नहीं, लेकिन राजनीति में उन्हें ईंट का जवाब पत्थर से देना है, इसलिए वे भी उसी घटिया भाषा शैली में तू-तू-मैं-मैं के स्तर पर उतर आए. बहरहाल, केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष को अब तो जिम्मेदारी वाली भाषा सीख लेनी चाहिए. आखिर सत्ता में उन्हें आए तीन साल हो गए हैं.
इसमें कोई दो राय नहीं कि गांधी जी महान थे. और उनकी महानता का राज़ यह है कि वे बेहिसाब निजी गुणों से लैस थे. महान लोगों में कुछ बातें बहुत स्पष्ट होती हैं. एक तो यह कि अपने ध्येय के प्रति उनकी जबर्दस्त निष्ठा होती है. दूसरी यह कि साध्य को वे साधनों से जोड़ने में पक्का यकीन रखते हैं. तीसरी यह कि उनमें त्याग की भावना इस कदर होती है जो दूसरों के लिए मिसाल बन सकती है. गांधी जी इन तीनों कसौटियों पर खरे उतरते हैं.
राजनैतिक सत्ता तक उनकी सीधी पहुंच और देश-विदेश में उन्हें हासिल भरपूर प्रतिष्ठा के बावजूद गांधी जी ने कभी उन्हें अपने निजी हित के लिए इस्तेमाल नहीं किया. पद की तो उन्होंने कभी कोई लालसा नहीं रखी. गलतियों को वे खुले मन से स्वीकारते थे. नम्रता उनमें कूट-कूटकर भरी थी. वे खुद को कष्ट देने के साथ बलिदान के लिए भी तत्पर रहते थे. इस तरह इंसान के रूप में उनमें अनेक गुण थे. ये तथ्य सभी जानते हैं और इन पर चर्चा होती रहती है.
लेकिन गांधी जी को लेकर मूल मुद्दा दरअसल बहुत ही कम चर्चा में आया है. उस पर उनके जिंदा रहते ही चर्चा होनी चाहिए थी. पर बाद में भी राष्ट्रपिता के नाम की आड़ में उसे दबाया नहीं जाना चाहिए.
और इस मामले में सबसे पहला सवाल यह है कि गांधी ने जो काम किया उसका अंतिम परिणाम उनके मकसद से बहुत जुदा क्यों निकला? मसलन उनका इरादा था कि हिंदू-मुसलमान एकता की बुनियाद पर संयुक्त भारत को आजाद कराएंगे, लेकिन सांप्रदायिक बंटवारे में भारत के दो टुकड़े हो गए.
दूसरे, राष्ट्रीय आंदोलन को लेकर गांधी जी की रणनीति 1947 से पहले के भारत की ठोस हकीकत से मेल क्यों नहीं खा सकी?
और तीसरे, यह 1947 के बाद के भारत की हकीकत से भी कटी क्यों चली आ रही है? इन सवालों का जवाब तभी मिल सकता है जब हम गांधीवाद के समूचे सिद्धांत और व्यवहार की आलोचनात्मक समीक्षा करें.
इसके लिए विश्व को लेकर गांधी जी के नजरिये, उनकी कार्यप्रणाली, समाज को लेकर उनके सिद्धांत और तद्नुसार उनके व्यवहार का अध्ययन करना बहुत जरूरी है.
समाज को लेकर उनके सिद्धांत के अंतर्गत यह समझना जरूरी है कि स्वदेशी, सर्वोदय तथा अंत्योदय, स्वराज, लोकतंत्र, नारी गौरव, विकेंद्रित अर्थव्यवस्था, ग्राम स्वराज, मशीनों के इस्तेमाल, संपत्ति के ट्रस्टीशिप सिद्धांत, सीमित इच्छाअों, शिक्षा, श्रमिक गौरव, आर्थिक समानता, खादी को बढ़ावा, निर्माणकारी कार्यक्रम, वगैरह के बारे में गांधी जी क्या ठीक सोचते थे या गलत.
उन्होंने जो किया उसको लेकर यह समझने की जरूरत है कि वे इतिहास के कौन-से कालखंड में रह रहे और काम कर रहे थे, हिदू-मुसलमानों के बीच खाई दूर करने के लिए उन्होंने क्या किया, वर्णाश्रम को लेकर उन्होंने क्या रुख अपनाया, छुआछूत के सवाल पर वे कहां खड़े थे, सत्याग्रह ने क्या भूमिका अदा की वगैरह-वगैरह.
यह बहुत लंबा विषय है. लेकिन हकीकत के धरातल पर जब हम देखें तो अपने सामने यही पाते हैं कि गांधी जी भले ही कितने महान थे, लेकिन जो मकसद लेकर वे चले थे, वह कामयाब नहीं हो पाया. अलबत्ता, गांधी जी के अनुभवों के आधार पर बहुत-से सबक सीखे जा सकते हैं, जो आज भी हमें काम दे सकते हैं.
पहला सबक तो यही है कि आज की दुनिया में पुनर्गठन किसी एक धर्म या मजहब के संस्कारों, भाषा-मुहावरों और प्रतीकों की बुनियाद पर नहीं किया जा सकता. धर्मतंत्र के सभी दृष्टांत दुनिया में बहुत नुक्सानदेह साबित हुए हैं. गांधी जी ने हिंदू हितों का जो पक्ष लिया, उससे भारत के हितों का नुक्सान ही हुआ है.
दूसरे, हृदय परिवर्तन को लेकर गांधीवादी दृष्टिकोण — सत्याग्रह या अहिंसा के जरिए बुरे को अच्छे में बदलने का सिद्धांत — हालात पर निर्भर करता है. जब तक बुरे को पैदा करने वाले और अच्छे के रास्ते में रुकावट बनने वाले हालात को बदला नहीं जाता, न तो अच्छा आगे बढ़ पाता है और न ही बुरा खत्म हो सकता है.
तीसरे, त्याग, बलिदान, विनम्रता, सादगी, सहनशीलता वगैरह और सबसे बढ़कर साध्य और साधनों के तालमेल के गांधीवादी सिद्धांतों का अगर दृढ़ता से पालन किया जाए तो ये न्यायसंगत समाज के निर्माण में बहुत फायदेमंद हो सकते हैं.
यही नहीं, सर्वोदय, विकेंद्रीकरण और स्वराज की गांधी जी की अवधारणाओं में आवश्यक बदलाव किये जाएं तो उन्हें जनता को सत्ता के हस्तांतरण में इस्तेमाल किया जा सकता है.
इसमें कोई दो राय नहीं कि गांधी जी महान थे. और उनकी महानता का राज़ यह है कि वे बेहिसाब निजी गुणों से लैस थे. महान लोगों में कुछ बातें बहुत स्पष्ट होती हैं. एक तो यह कि अपने ध्येय के प्रति उनकी जबर्दस्त निष्ठा होती है. दूसरी यह कि साध्य को वे साधनों से जोड़ने में पक्का यकीन रखते हैं. तीसरी यह कि उनमें त्याग की भावना इस कदर होती है जो दूसरों के लिए मिसाल बन सकती है. गांधी जी इन तीनों कसौटियों पर खरे उतरते हैं.
राजनैतिक सत्ता तक उनकी सीधी पहुंच और देश-विदेश में उन्हें हासिल भरपूर प्रतिष्ठा के बावजूद गांधी जी ने कभी उन्हें अपने निजी हित के लिए इस्तेमाल नहीं किया. पद की तो उन्होंने कभी कोई लालसा नहीं रखी. गलतियों को वे खुले मन से स्वीकारते थे. नम्रता उनमें कूट-कूटकर भरी थी. वे खुद को कष्ट देने के साथ बलिदान के लिए भी तत्पर रहते थे. इस तरह इंसान के रूप में उनमें अनेक गुण थे. ये तथ्य सभी जानते हैं और इन पर चर्चा होती रहती है.
लेकिन गांधी जी को लेकर मूल मुद्दा दरअसल बहुत ही कम चर्चा में आया है. उस पर उनके जिंदा रहते ही चर्चा होनी चाहिए थी. पर बाद में भी राष्ट्रपिता के नाम की आड़ में उसे दबाया नहीं जाना चाहिए.
और इस मामले में सबसे पहला सवाल यह है कि गांधी ने जो काम किया उसका अंतिम परिणाम उनके मकसद से बहुत जुदा क्यों निकला? मसलन उनका इरादा था कि हिंदू-मुसलमान एकता की बुनियाद पर संयुक्त भारत को आजाद कराएंगे, लेकिन सांप्रदायिक बंटवारे में भारत के दो टुकड़े हो गए.
दूसरे, राष्ट्रीय आंदोलन को लेकर गांधी जी की रणनीति 1947 से पहले के भारत की ठोस हकीकत से मेल क्यों नहीं खा सकी?
और तीसरे, यह 1947 के बाद के भारत की हकीकत से भी कटी क्यों चली आ रही है? इन सवालों का जवाब तभी मिल सकता है जब हम गांधीवाद के समूचे सिद्धांत और व्यवहार की आलोचनात्मक समीक्षा करें.
इसके लिए विश्व को लेकर गांधी जी के नजरिये, उनकी कार्यप्रणाली, समाज को लेकर उनके सिद्धांत और तद्नुसार उनके व्यवहार का अध्ययन करना बहुत जरूरी है.
समाज को लेकर उनके सिद्धांत के अंतर्गत यह समझना जरूरी है कि स्वदेशी, सर्वोदय तथा अंत्योदय, स्वराज, लोकतंत्र, नारी गौरव, विकेंद्रित अर्थव्यवस्था, ग्राम स्वराज, मशीनों के इस्तेमाल, संपत्ति के ट्रस्टीशिप सिद्धांत, सीमित इच्छाअों, शिक्षा, श्रमिक गौरव, आर्थिक समानता, खादी को बढ़ावा, निर्माणकारी कार्यक्रम, वगैरह के बारे में गांधी जी क्या ठीक सोचते थे या गलत.
उन्होंने जो किया उसको लेकर यह समझने की जरूरत है कि वे इतिहास के कौन-से कालखंड में रह रहे और काम कर रहे थे, हिदू-मुसलमानों के बीच खाई दूर करने के लिए उन्होंने क्या किया, वर्णाश्रम को लेकर उन्होंने क्या रुख अपनाया, छुआछूत के सवाल पर वे कहां खड़े थे, सत्याग्रह ने क्या भूमिका अदा की वगैरह-वगैरह.
यह बहुत लंबा विषय है. लेकिन हकीकत के धरातल पर जब हम देखें तो अपने सामने यही पाते हैं कि गांधी जी भले ही कितने महान थे, लेकिन जो मकसद लेकर वे चले थे, वह कामयाब नहीं हो पाया. अलबत्ता, गांधी जी के अनुभवों के आधार पर बहुत-से सबक सीखे जा सकते हैं, जो आज भी हमें काम दे सकते हैं.
पहला सबक तो यही है कि आज की दुनिया में पुनर्गठन किसी एक धर्म या मजहब के संस्कारों, भाषा-मुहावरों और प्रतीकों की बुनियाद पर नहीं किया जा सकता. धर्मतंत्र के सभी दृष्टांत दुनिया में बहुत नुक्सानदेह साबित हुए हैं. गांधी जी ने हिंदू हितों का जो पक्ष लिया, उससे भारत के हितों का नुक्सान ही हुआ है.
दूसरे, हृदय परिवर्तन को लेकर गांधीवादी दृष्टिकोण — सत्याग्रह या अहिंसा के जरिए बुरे को अच्छे में बदलने का सिद्धांत — हालात पर निर्भर करता है. जब तक बुरे को पैदा करने वाले और अच्छे के रास्ते में रुकावट बनने वाले हालात को बदला नहीं जाता, न तो अच्छा आगे बढ़ पाता है और न ही बुरा खत्म हो सकता है.
तीसरे, त्याग, बलिदान, विनम्रता, सादगी, सहनशीलता वगैरह और सबसे बढ़कर साध्य और साधनों के तालमेल के गांधीवादी सिद्धांतों का अगर दृढ़ता से पालन किया जाए तो ये न्यायसंगत समाज के निर्माण में बहुत फायदेमंद हो सकते हैं.
यही नहीं, सर्वोदय, विकेंद्रीकरण और स्वराज की गांधी जी की अवधारणाओं में आवश्यक बदलाव किये जाएं तो उन्हें जनता को सत्ता के हस्तांतरण में इस्तेमाल किया जा सकता है.












































