सामाजिक हकीकत से दूरी और निराशावाद
तर्कसंगत समझ रखने वाले लोगों को निराशावादी और सामाजिक हकीकत से कटी सोच से परहेज करना चाहिए. दरअसल आदमी जब सामाजिक हकीकत से कट जाता है तो कई बार अति उत्साह में वह तानाशाही व्यवहार अपना लेता है और कई बार उत्साहहीनता में आकर निराशावादी हो जाता है.
प्रकृति हितैषी और मनुष्य हितैषी नजरिया मानने वाले आज तर्कसंगत समझ रखने वालों में अगुआ हैं. लेकिन वे अगुआई तभी दे सकते हैं अगर वे समाज में मुख्य रूप से दो तरह के लोगों में फर्क करें: एक वे जो अधिकांशत: स्व हित की वजह से गलत काम करते हैं और दूसरे वे जो किसी वजह से गलत काम करने को मजबूर हैं या जिन्हें कई दफा यह भी पता नहीं होता कि वे कोई गलत काम कर रहे हैं.
यह सामाजिक हकीकत है और तर्कसंगत समझ रखने वाले अगर इससे मुंह मोड़ते हैं तो मतलब यही है कि वे सही और गलत के बीच फर्क को मिटा रहे हैं. लिहाजा यह कहना कि ‘‘मनुष्यजाति वातावरण को तबाह करके सामूहिक आत्महत्या करने के लिए एकजुट हो रही है’’ या यह कि ‘‘मनुष्यजाति को हर कीमत पर मुनाफा मिलना चाहिए, प्राणवायु की शुद्धता का कोई चक्कर नहीं, यह तो सिलेंडरों में मिल जाएगी’’, यही बताता है कि समाज में जानबूझकर गलत काम करने वाले और मजबूरी या अनजाने में गलत काम करने वालों में कोई फर्क नहीं है.
यही नहीं, निराशावादी समझ इस कथन से भी झलक रही है, जिसके मुताबिक, ‘‘हालात बताते हैं कि आज का मानव प्राकृतिक और सस्ती मौत नहीं मरेगा बल्कि वह मौत अनचाही, बहुत महंगी और परिवार उजाड़ देगी.’’


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