Wednesday, May 10, 2017

सिद्धांत और व्यवहार में फर्क का सवाल : यह मौलिक सवाल है. भुवन जी का यह कहना कि सिद्धांत और व्यवहार में फर्क बढ़ रहा है, बहुत हद तक सही है और इसकी वजह यह लगती है कि सिद्धांत और व्यवहार के बीच संबंध की दो-तरफा प्रक्रिया को हम समझ नहीं पा रहे हैं. अमूमन देखा गया है कि हम हमेशा सिद्धांत को व्यवहार में उतारने की बात करते हैं, लेकिन इस पर ध्यान नहीं देते कि व्यवहार के दौरान सिद्धांत को समृद्ध करने के लिए क्या किया जाए. हम सिद्धांत के मामले में तो खूब बहस-मुबाहिसा करते हैं, लेकिन व्यवहार की समीक्षा करने के मामले में पिछड़ जाते हैं. हमारे सिद्धांत ने 1990 के दशक में आकार लेना शुरू किया और दिसंबर 2002 आते-आते वह स्थापित भी हो गया था. अब इसे वजूद में और व्यवहार में आए 15 साल होने जा रहे हैं. मेरे ख्याल से इतना अरसा किसी के व्यवहार की समीक्षा करने के लिहाज से कम नहीं है. जरूरत है कि इसकी व्यापक पैमाने पर समीक्षा की जाए और देखा जाए कि उसमें नकारात्मक और सकारात्मक बातें क्या निकलती हैं. जाहिर है, इस मामले में हमारा अध्ययन और शोध कमजोर रहा है.

संगठन का कुछ लोगों के इर्दगिर्द सिकुड़ जाने का सवाल : इस पर कोई व्यक्तिगत टिप्पणी नहीं करना चाहूंगा. हां, यह बात सही लगती है कि पिछले 15 साल में संगठन का जिस तरह विस्तार होना चाहिए था, वह नहीं हुआ. बताते हैं कि कुछ सार्क देशों और भारत के विभिन्न क्षेत्रों में संगठन के संपर्क बने हैं, यह बात बहुत हद तक ठीक हो सकती है. मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है. पर यह तय है कि अपने नाम के अनुरूप यह संगठन किसी तरह के जन आंदोलन का रूप नहीं ले पाया.

संगठन में फूटपरस्त राजनीति और व्यक्ति पूजा हावी होने का सवाल : फूटपरस्त राजनीति की बात कुछ अतिशयोक्ति लगती है. हां, यह कहा जा सकता है ‍कि संगठन में जितने लोगों को जोड़ सकने की क्षमता है, उसका भरपूर उपयोग न तो पहले किया गया और न ही अब किया जा रहा है. क्यों नहीं किया जा रहा, इस पर सोच-विचार किया जाना चाहिए. रही बात व्यक्ति पूजा की तो ऐसा तभी मुमकिन है जब संगठन सोचे कि कोई नेता चाहे कितना भी प्रतिभाशाली क्यों न हो, मानवजाति के लिए हमेशा महान बना रहेगा. ऐसा सोचने वाले कुछ व्यक्ति हो सकते हैं, लेकिन पूरा संगठन ही यह सोचने लग जाए, मुझे संभव नहीं लगता है.

सिद्धांत को किसी व्यक्ति के नाम के साथ जोड़ने का सवाल : कोई व्यक्ति शोध और अध्‍ययन करके किसी नई बात की खोज करता है तो उसके साथ उसका नाम जोड़ने की जरूरत होती ही है क्योंकि अगर नाम नहीं होगा तो खोज में दी गई सामग्री या नई जानकारी के सही या गलत होने की जिम्मेवारी किसकी होगी. मानव समाज कोई अराजक समाज नहीं रहा है. और शायद न कभी वह ऐसी अवस्था में पहुंचेगा जहां सामूहिकता का ही बोलबाला होगा और व्यक्ति की कोई पहचान नहीं होगी. इसीलिए किसी भी तरह के नए दार्शनिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक या ‍वैज्ञानिक विचार के साथ हमेशा किसी व्यक्ति का नाम जुड़ता आया है और आगे भी जुड़ता रहेगा.

अकेले नहीं, टीम के साथ संगठन बनाने का सवाल : यह सही है. हिंदी में तो पुरानी मिसाल है, अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता. अकेला कोई व्यक्ति किसी सामाजिक संगठन की घोषणा भले ही कर ले, लेकिन उसे जन आंदोलन का रूप नहीं दे सकता. दूसरी बात यह है कि अकेला व्यक्ति लोगों को संगठित करने में कम उपयोगी साबित होगा. इसके बजाय सामूहिक प्रयास ज्यादा सार्थक हो सकते हैं. आज के जमाने में जब मानवीय इकाइयों की अंतरनिर्भरता अधिक बढ़ गई है, बिना टीम के तो यह बात सोची भी नहीं जा सकती.

संगठन को सामाजिक स्वरूप दिलाने का सवाल : संगठन जन आंदोलन का रूप तभी ले सकता है जब वह अपने चार स्तरीय मुख्‍य कार्य -- लोगों में नेचर-ह्यूमन सेंट्रिक जागृति फैलाने, जागृति के स्तर को जन प्रेरणा तक बढ़ाने, फिर उसे जनता की तर्कसंगत सोच में बदलने और आखिर में तर्कसंगत मनुष्य विकसित करने -- पर व्यापक सोच-विचार करे और उसे लागू करने की कोई कार्य योजना बनाए. यही नहीं, पर्यावरण और सामाजिक-मानवीय समस्याओं को लेकर उसे बैठकों और सेमिनारों से आगे बढ़ना होगा और समाज के व्यापक हिस्सों को जोड़ने के लिए कदम उठाने होंगे. सामाजिक आंदोलनों में लगे और जनता के बीच काम करने वाले दूसरे संगठनों से भाईचारे वाले संबंध भी बनाने होंगे.


अपने अहं को संभालने का सवाल : हालांकि यह संगठन के मुख्य दस्तावेज में 10 सूत्री संगठनात्मक शैली में दर्ज एक महत्वपूर्ण सूत्र है, लेकिन इस पर शायद ही कभी चर्चा होती है. इसमें जरूरी बात यह है कि अपने अहं के संचालन का काम मुख्यत: हर व्यक्ति को समझदारी के साथ खुद करना है. अगर कोई इस सोच के साथ आगे बढ़े कि दूसरों की उसके बारे में राय हमेशा अच्छी रहे, यह सोचता रहे कि किसी काम का श्रेय कोई दूसरा न ले जाए, काम में दूसरों से होड़ करे, वर्तमान की न सोचकर हमेशा सुनहरे अतीत में खोया रहे अथवा भविष्य के ख्वाब बुनता रहे, या यह समझे कि उसकी दिशा हमेशा सही रहती है तो यह अहं के ‍ही खतरनाक लक्षण हैं. 

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