Monday, May 8, 2017



नेपाल के हमारे मित्र भुवन गिरी ने 30 दिसंबर 2016 की मेरी एक पोस्ट पर, जिसमें जम्मू के देशबंधु की टिप्पणियों का जम्मू के ही एक्टिविस्ट रघुबीर सिंह ने प्रत्युत्तर दिया था, एक लंबी टिप्पणी की है. यह टिप्पणी चूंकि रोमन लिपि में है, इसलिए मैं सभी साथियों की ‍सुविधा के लिए उसका हिंदी रूपांतरण दे रहा हूं. भुवन जी से अनुरोध है कि यदि इसमें कहीं कोई कमी रह गई हो तो सूचित करें ताकि सुधार किया जा सके. चर्चा सही राह पर रहे, इसलिए टिप्पणी में से व्यक्तिगत टीकाएं हटाकर उचित संशोधन किए गए हैं. पूरे प्रकरण पर चर्चा में मैं भी भाग लूंगा. साथी पहले भुवन गिरी की टिप्पणी पढ़ लें, जो इस प्रकार है:

‘‘सन् 2009 में नेपाल के लुंबिनी में दूसरा एनएचसीपीएम पीपुल्स सार्क सम्मलेन करने के बाद जब हम काठमांडु लौटे तो बुटवल में तय योजना के अनुरूप सज्जन कुमार और रूपचंद हमारे यहां 2-3 दिन ठहरे. यहां नेपाल के साथियों के लिए एनएचसीपीएम की कक्षा चलाई गई. उसके बाद फिर 4-5 दिन डी.बी. सिंह के यहां कक्षा चलाई गई.

‘‘हम लोग एक-दूसरे से 4-5 किलोमीटर दूर रहते थे. सुबह जल्दी ही क्लास तय की गई थी. मैंने एक दिन पैदल ही वहां जाने का फैसला लिया. जब मैं उस ओर जा रहा था तो मेरी नजर रास्ते में बगल के एक मछली बेचने वाले पर पड़ी. वह एक घूमे हुए आकार की चुलेसी से 3-4 किलो वजन की मछली बहुत आसानी से काट रहा था. औज़ार का एक हिस्सा उसके पैर के नीचे दबा था और दूसरे हिस्से की धार आसमान की ओर थी. मछली वाला औज़ार की धार से रगड़कर कभी छिलका निकालता था तो कभी कोई अंग काटता था.

‘‘तभी मुझे लगा अगर सिद्धांत वह औज़ार है तो व्यवहार मछली है. औज़ार चाहे जितनी तेज धार वाला या नए मॉडल का क्यों न हो जब तक मछली वाला मछली को सही ढंग से उसकी धार वाले हिस्से पर जोर लगाकर नहीं रगड़ता, वह मछली नहीं कट सकती. इसी तरह हम सिद्धांत को व्यवहार के साथ ईमानदारी से न जोड़ें तो हमें कुछ हासिल नहीं होगा.

‘‘एनएचसीपीएम के संदर्भ में यहां औज़ार, वह मछली और मछली वाले की मुझे बहुत बार याद आई. आज मुझे फिर वही औज़ार और उसमें कटने वाली मछली की याद आई. 15 साल (2002-17, जबसे एनएचसीपीएम की अवधारणा बनी) के बाद भी हम नहीं सुधरे. सिद्धांत एक ओर और व्यवहार दूसरी ओर अलग-थलग पड़े हैं. कोई औज़ार को अपनी बपौती समझता है तो कोई औज़ार की धार की प्रशंसा कर अपने समय की बरबादी कर रहा है. मछली सड़ रही है और वातावरण दुर्गंधित होता जा रहा है. अमीरी और गरीबी रेखा की तरह हमारे सिद्धांत और व्यवहार के बीच दूरी बढ़ रही है. नेपाल और भारत में एनएचसीपीएम चंद लोगों के इर्दगिर्द ही सिकुड़, सिमटकर रह गई है.

‘‘कहने को तो हम पीपुल्स सार्क का नाम लेते हैं लेकिन 2012 के बाद श्रीलंका, भूटान और बांग्लादेश ने भी सम्मलेन में आना छोड़ दिया है. हम इसे एक असफल सिद्धांत तो घोषित नहीं करने जा रहे हैं? हमारी या सिद्धांत की कमजोरी कहां है, उसे ढूंढ़ने की हिम्मत किसी में है, ऐसा नहीं दिखता. एनएचसीपीएम में भी फूटपरस्त राजनीति हावी होती जा रही है, व्यक्ति पूजा ही सार है.

‘‘आर.पी. सराफ ने इसे अपना सिद्धांत नहीं कहा था. आप लोग उनको एनएचसीपीएम का सिद्धांतकार बनाने चले. गुमराह आप वहीं से हो रहे हो. आर.पी. सराफ आपको लेखक और संपादक का फर्क भी याद दिलाना चाहते थे. लेकिन आपको तो एक नाम के अंतर्गत ही सिद्धांत चाहिए. आर.पी. सराफ आपको बताना चाहते थे कि अमानवीयकरण उनकी खोज नहीं. वह तो राम के ज़माने से चली आ रही है. न ही ग्लोबल वार्मिंग जो 70 के दशक से ही बहुत चर्चा में आने लगी, उनकी खोज है. वे कहना चाहते थे कि -- समझदार और समर्पित लोग आगे आएं, पार्टी या दल को भाव न दें, स्वतंत्र उम्मीदवार खड़ा करें, निर्णय में आम सहमति अपनाएं. वे 51% के शासन या जनवादी केंद्रीयता के खिलाफ थे. 1:5 का अंतर तब (15 बरस पहले) का था, अब तो बकौल घनश्याम, 1:2 होना चाहिए.

‘‘कोई व्यक्ति अकेला मेहनत करेगा या दूसरों को भी साथ लेकर एक बहस करवाएगा. अकेले हम कमजोर होते हैं. जब टीम होती है तो शक्ति ओर विचार की प्रचुरता भी होती है. आम आदमी पार्टी के बारे में आपकी टिप्पणी या हिदायत व्यक्तिगत हो सकती है, उसे इस फोरम से दूर रखें. प्रतीत होता है कि आम आदमी पार्टी खुद को सिर्फ प्रेशर ग्रुप के तौर पर ही देखना चाहती है.

‘‘एनएचसीपीएम तो व्यवस्था परिवर्तन की मांग करती है, संविधान संशोधन या पुनर्लेखन की मांग करती है. सभी देशों की सीमाएं हटाने की बात संविधान में शांतिपूर्ण तरीके से संशोधन किए बिना संभव कैसे होगी? आम आदमी पार्टी से सबक लेना चाहिए. वे तो स्वघोषित अराजकतावादी हैं. उन्हें सबक सिखाने के बजाय हमें अपने संगठन विस्तार और शुद्धिकरण पर ध्यान देना शायद ठीक होगा.

‘‘हमारा संगठन अधिक व्यक्तिगत बनता जा रहा है, उसे सामाजिक स्वरूप कैसे दिलवाया जाए, यह आज की सबसे बड़ी चुनौती है. पार्टी परंपरा, बहुमत का शासन, जनवादी केंद्रीयता, पोलिटब्यूरो जैसी सांगठनिक संचरना, पार्टी अध्यक्ष कौन बने आदि चिंतन और व्यक्ति की अपनी निजी ईगो से हम ऊपर नहीं उठ पाए. एनएचसीपीएम का सार इसी में अटका हुआ है. ईगो को हम मैनेज नहीं कर पा रहे हैं. इन्हीं मान्यताअों पर हम औरों से अलग हैं. आर.पी. सराफ़ की बात पर गौर कर इन मुद्दों की समीक्षा करें. यही हमारे आगे बाधा है. इस तरह तो 100 साल यूं ही बीत जाएंगे ओर हम कुछ नहीं कर पाएंगे.’’

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