कैशलेस का उतरा बुखार
याद करें, पिछले
साल दिसंबर के पहले हफ्ते में एक खबर छपी थी कि दक्षिण भारत में इब्राहिमपुर देश
का पहला कैशलेस गांव बन गया है. जिला प्रशासन ने गांव की 1,200 की आबादी के लिए
फटाफट बैंक खाते खुलवाने में फुर्ती दिखाई. सभी को डेबिट कार्ड मुहैया करवाए गए और
दुकानों में स्वाइप मशीनें और राशन की दुकानों पर माइक्रो एटीएम खुल गए. ऑटो-टेंपो का किराया और चना-चबेना, स्नैक्स वगैरह का भी नकद भुगतान नामुमकिन हो गया.
वह दौर था जब नोटबंदी
लागू करने के बाद मोदी सरकार अपने असली मकसद पर उतर आई थी. प्रधानमंत्री तब हर
भाषण में कैशलेस भारत पर ज्यादा जोर देने लगे थे. मकसद यह था कि नागरिक अपने पास नकदी
कम-से-कम रखें और ज्यादातर लेन-देन चैक या डिजिटल तरीके से करें. सरकार चाहती थी कि
लोग अपना सारा धन बैंकों में रखें ताकि कार्पोरेट पूंजीपतियों के लिए उसे जब चाहे अपने
फायदे में इस्तेमाल करना आसान हो सके.
पर इब्राहिमपुर में
9-10 माह में ही अब यह बुखार उतर गया लगता है. हैदराबाद से 125 किमी दूर तेलंगाना के
सिद्दीपेट जिले के इस गांव के लोग नकदी की अोर लौट आए हैं. दुकानों पर बोर्ड टंग
गए हैं: सॉरी, नकद दें, कार्ड नहीं चलेगा ! वजह: बैंक लेन-देन पर बहुत ज्यादा शुल्क
वसूल कर रहे हैं. दुकानदारों ने स्वाइप मशीनें लौटा दी हैं, जिनके लिए वे प्रति
मशीन 1,400 रु. महीना किराया दे रहे थे. एक इब्राहिमपुर ही नहीं, दूसरी कई जगहों
पर भी जबरी कैशलेस की यही हालत हुई है.
इससे विशेषज्ञों की
यह बात सही साबित हुई कि भारत जैसे पिछड़े देश के लिए कैशलेस बनने की कीमत बहुत ज्यादा
पड़ेगी. इससे बहुत-से बेगुनाह लोगों को नुक्सान हो सकता है. दरअसल, टेक्नोलॉजी के विकास
की प्रक्रिया में नई और पुरानी टेक्नोलॉजी के बीच जहां संघर्ष है, वहीं उनके बीच एकरूपता
भी होती है. आने वाला जमाना निश्चित रूप से नए का ही होता है, लेकिन समाज में पुराने
के जाने और नए के आने का वक्त किसी की मनमर्जी से तय नहीं होता. उसके लिए जहां समाज
की तैयारी की जरूरत होती है, वहीं नई चीज के अस्तित्व में बने रहने का ढांचा
भी तैयार करना होता है. फरमान जारी कर ऐसा किया जाए तो उसके नुक्सान हो सकते हैं.
लेकिन तब भाजपा की
अगुआई वाली राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार को बहुत उताबली थी. उसके पास
पैसे की कमी थी और उसके बिना उसे अपना सामान्य कामकाज चलाना मुश्किल हो रहा था,
जबकि बैंकों के पास भी नकदी का संकट खड़ा हो गया
था और वे कॉर्पोरेट पूंजीपतियों को कर्ज नहीं दे पा रहे थे. सरकारी बैंक तो दिवालिया
होने की कगार पर खड़े थे. अब तो सर्वविदित है कि तब कुल 16.24 लाख करोड़ रु. मूल्य की करेंसी में से सरकार और बैंकों के पास
करीब 30 फीसदी यानी मात्र 5 लाख करोड़ का ही इंतजाम था.
इसीलिए नोटबंदी का
फैसला किया गया. उसके पीछे दीर्घकालीन मकसद यह था कि देश में ऐसे हालात पैदा कर दिए
जाएं कि अधिकतम नकदी बैंकों में जमा हो और उसकी निकासी पर खासी बंदिशें लगा दी जाएं,
जिससे सरकार के पास अपने खर्च चलाने के लिए पैसा
उपलब्ध हो और साथ ही बैंकों के लिए कार्पोरेट पूंजीपतियों को कर्ज देना आसान हो जाए.
इसके साथ ही सरकार
में मौजूद भाजपा नेताओं का अल्पकालीन मकसद भी जुड़ गया. नोटबंदी के बहाने उन्होंने कुछ
राज्यों के होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए अपनी तैयारी कर ली. कई राज्यों में भाजपा
ने अपने अरबों रु. के चंदे को जमीन-जायदाद खरीदने में लगा दिया. यही नहीं, उसकी अनेक राज्य इकाइयों ने अपने पास पड़ी नकदी को
दो-तीन माह पहले से ही बैंकों में जमा कराना शुरू कर दिया. पश्चिम बंगाल इकाई ने यह
पैसा तो नोटबंदी के ऐलान से चंद घंटे पहले ही जमा करवाया. पार्टी नोटों से तो मालामाल
हो गई, साथ ही काले धन के खिलाफ कार्रवाई के नाम पर लोगों ने उसे वोटों से भी मालामाल
कर दिया.


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