Wednesday, May 10, 2017

सिद्धांत और व्यवहार में फर्क का सवाल : यह मौलिक सवाल है. भुवन जी का यह कहना कि सिद्धांत और व्यवहार में फर्क बढ़ रहा है, बहुत हद तक सही है और इसकी वजह यह लगती है कि सिद्धांत और व्यवहार के बीच संबंध की दो-तरफा प्रक्रिया को हम समझ नहीं पा रहे हैं. अमूमन देखा गया है कि हम हमेशा सिद्धांत को व्यवहार में उतारने की बात करते हैं, लेकिन इस पर ध्यान नहीं देते कि व्यवहार के दौरान सिद्धांत को समृद्ध करने के लिए क्या किया जाए. हम सिद्धांत के मामले में तो खूब बहस-मुबाहिसा करते हैं, लेकिन व्यवहार की समीक्षा करने के मामले में पिछड़ जाते हैं. हमारे सिद्धांत ने 1990 के दशक में आकार लेना शुरू किया और दिसंबर 2002 आते-आते वह स्थापित भी हो गया था. अब इसे वजूद में और व्यवहार में आए 15 साल होने जा रहे हैं. मेरे ख्याल से इतना अरसा किसी के व्यवहार की समीक्षा करने के लिहाज से कम नहीं है. जरूरत है कि इसकी व्यापक पैमाने पर समीक्षा की जाए और देखा जाए कि उसमें नकारात्मक और सकारात्मक बातें क्या निकलती हैं. जाहिर है, इस मामले में हमारा अध्ययन और शोध कमजोर रहा है.

संगठन का कुछ लोगों के इर्दगिर्द सिकुड़ जाने का सवाल : इस पर कोई व्यक्तिगत टिप्पणी नहीं करना चाहूंगा. हां, यह बात सही लगती है कि पिछले 15 साल में संगठन का जिस तरह विस्तार होना चाहिए था, वह नहीं हुआ. बताते हैं कि कुछ सार्क देशों और भारत के विभिन्न क्षेत्रों में संगठन के संपर्क बने हैं, यह बात बहुत हद तक ठीक हो सकती है. मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है. पर यह तय है कि अपने नाम के अनुरूप यह संगठन किसी तरह के जन आंदोलन का रूप नहीं ले पाया.

संगठन में फूटपरस्त राजनीति और व्यक्ति पूजा हावी होने का सवाल : फूटपरस्त राजनीति की बात कुछ अतिशयोक्ति लगती है. हां, यह कहा जा सकता है ‍कि संगठन में जितने लोगों को जोड़ सकने की क्षमता है, उसका भरपूर उपयोग न तो पहले किया गया और न ही अब किया जा रहा है. क्यों नहीं किया जा रहा, इस पर सोच-विचार किया जाना चाहिए. रही बात व्यक्ति पूजा की तो ऐसा तभी मुमकिन है जब संगठन सोचे कि कोई नेता चाहे कितना भी प्रतिभाशाली क्यों न हो, मानवजाति के लिए हमेशा महान बना रहेगा. ऐसा सोचने वाले कुछ व्यक्ति हो सकते हैं, लेकिन पूरा संगठन ही यह सोचने लग जाए, मुझे संभव नहीं लगता है.

सिद्धांत को किसी व्यक्ति के नाम के साथ जोड़ने का सवाल : कोई व्यक्ति शोध और अध्‍ययन करके किसी नई बात की खोज करता है तो उसके साथ उसका नाम जोड़ने की जरूरत होती ही है क्योंकि अगर नाम नहीं होगा तो खोज में दी गई सामग्री या नई जानकारी के सही या गलत होने की जिम्मेवारी किसकी होगी. मानव समाज कोई अराजक समाज नहीं रहा है. और शायद न कभी वह ऐसी अवस्था में पहुंचेगा जहां सामूहिकता का ही बोलबाला होगा और व्यक्ति की कोई पहचान नहीं होगी. इसीलिए किसी भी तरह के नए दार्शनिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक या ‍वैज्ञानिक विचार के साथ हमेशा किसी व्यक्ति का नाम जुड़ता आया है और आगे भी जुड़ता रहेगा.

अकेले नहीं, टीम के साथ संगठन बनाने का सवाल : यह सही है. हिंदी में तो पुरानी मिसाल है, अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता. अकेला कोई व्यक्ति किसी सामाजिक संगठन की घोषणा भले ही कर ले, लेकिन उसे जन आंदोलन का रूप नहीं दे सकता. दूसरी बात यह है कि अकेला व्यक्ति लोगों को संगठित करने में कम उपयोगी साबित होगा. इसके बजाय सामूहिक प्रयास ज्यादा सार्थक हो सकते हैं. आज के जमाने में जब मानवीय इकाइयों की अंतरनिर्भरता अधिक बढ़ गई है, बिना टीम के तो यह बात सोची भी नहीं जा सकती.

संगठन को सामाजिक स्वरूप दिलाने का सवाल : संगठन जन आंदोलन का रूप तभी ले सकता है जब वह अपने चार स्तरीय मुख्‍य कार्य -- लोगों में नेचर-ह्यूमन सेंट्रिक जागृति फैलाने, जागृति के स्तर को जन प्रेरणा तक बढ़ाने, फिर उसे जनता की तर्कसंगत सोच में बदलने और आखिर में तर्कसंगत मनुष्य विकसित करने -- पर व्यापक सोच-विचार करे और उसे लागू करने की कोई कार्य योजना बनाए. यही नहीं, पर्यावरण और सामाजिक-मानवीय समस्याओं को लेकर उसे बैठकों और सेमिनारों से आगे बढ़ना होगा और समाज के व्यापक हिस्सों को जोड़ने के लिए कदम उठाने होंगे. सामाजिक आंदोलनों में लगे और जनता के बीच काम करने वाले दूसरे संगठनों से भाईचारे वाले संबंध भी बनाने होंगे.


अपने अहं को संभालने का सवाल : हालांकि यह संगठन के मुख्य दस्तावेज में 10 सूत्री संगठनात्मक शैली में दर्ज एक महत्वपूर्ण सूत्र है, लेकिन इस पर शायद ही कभी चर्चा होती है. इसमें जरूरी बात यह है कि अपने अहं के संचालन का काम मुख्यत: हर व्यक्ति को समझदारी के साथ खुद करना है. अगर कोई इस सोच के साथ आगे बढ़े कि दूसरों की उसके बारे में राय हमेशा अच्छी रहे, यह सोचता रहे कि किसी काम का श्रेय कोई दूसरा न ले जाए, काम में दूसरों से होड़ करे, वर्तमान की न सोचकर हमेशा सुनहरे अतीत में खोया रहे अथवा भविष्य के ख्वाब बुनता रहे, या यह समझे कि उसकी दिशा हमेशा सही रहती है तो यह अहं के ‍ही खतरनाक लक्षण हैं. 

मित्र भुवन गिरी ने अपनी टिप्पणी में बहुत-सी जानकारी दी है. बेहतर है, हम किसी साथी पर व्यक्तिगत टीका-टिप्पणी से बचें और जो मुद्दे उठाए गए हैं, उन्हीं पर केंद्रित रहकर चर्चा को आगे बढ़ाएं. मेरी समझ से उन्होंने मुख्य रूप से नीचे लिखे मुद्दे उठाए हैं:
(1) हमारे सिद्धांत और व्यवहार में फर्क बढ़ रहा है.
(2) संगठन कुछ लोगों के इर्दगिर्द सिकुड़, सिमटकर रह गया है.
(3) संगठन में फूटपरस्त राजनीति हावी होती जा रही है.
(4) सिद्धांत नाम के साथ जुड़ना चाहिए या नहीं.
(5) अकेले मेहनत करके संगठन नहीं बनता. टीम होती है तो शक्ति ओर विचार की प्रचुरता भी होती है.
(6) आज की सबसे बड़ी चुनौती, संगठन को सामाजिक स्वरूप कैसे दिलवाएं.
(7) ईगो को हम मैनेज नहीं कर पा रहे हैं.

Monday, May 8, 2017



नेपाल के हमारे मित्र भुवन गिरी ने 30 दिसंबर 2016 की मेरी एक पोस्ट पर, जिसमें जम्मू के देशबंधु की टिप्पणियों का जम्मू के ही एक्टिविस्ट रघुबीर सिंह ने प्रत्युत्तर दिया था, एक लंबी टिप्पणी की है. यह टिप्पणी चूंकि रोमन लिपि में है, इसलिए मैं सभी साथियों की ‍सुविधा के लिए उसका हिंदी रूपांतरण दे रहा हूं. भुवन जी से अनुरोध है कि यदि इसमें कहीं कोई कमी रह गई हो तो सूचित करें ताकि सुधार किया जा सके. चर्चा सही राह पर रहे, इसलिए टिप्पणी में से व्यक्तिगत टीकाएं हटाकर उचित संशोधन किए गए हैं. पूरे प्रकरण पर चर्चा में मैं भी भाग लूंगा. साथी पहले भुवन गिरी की टिप्पणी पढ़ लें, जो इस प्रकार है:

‘‘सन् 2009 में नेपाल के लुंबिनी में दूसरा एनएचसीपीएम पीपुल्स सार्क सम्मलेन करने के बाद जब हम काठमांडु लौटे तो बुटवल में तय योजना के अनुरूप सज्जन कुमार और रूपचंद हमारे यहां 2-3 दिन ठहरे. यहां नेपाल के साथियों के लिए एनएचसीपीएम की कक्षा चलाई गई. उसके बाद फिर 4-5 दिन डी.बी. सिंह के यहां कक्षा चलाई गई.

‘‘हम लोग एक-दूसरे से 4-5 किलोमीटर दूर रहते थे. सुबह जल्दी ही क्लास तय की गई थी. मैंने एक दिन पैदल ही वहां जाने का फैसला लिया. जब मैं उस ओर जा रहा था तो मेरी नजर रास्ते में बगल के एक मछली बेचने वाले पर पड़ी. वह एक घूमे हुए आकार की चुलेसी से 3-4 किलो वजन की मछली बहुत आसानी से काट रहा था. औज़ार का एक हिस्सा उसके पैर के नीचे दबा था और दूसरे हिस्से की धार आसमान की ओर थी. मछली वाला औज़ार की धार से रगड़कर कभी छिलका निकालता था तो कभी कोई अंग काटता था.

‘‘तभी मुझे लगा अगर सिद्धांत वह औज़ार है तो व्यवहार मछली है. औज़ार चाहे जितनी तेज धार वाला या नए मॉडल का क्यों न हो जब तक मछली वाला मछली को सही ढंग से उसकी धार वाले हिस्से पर जोर लगाकर नहीं रगड़ता, वह मछली नहीं कट सकती. इसी तरह हम सिद्धांत को व्यवहार के साथ ईमानदारी से न जोड़ें तो हमें कुछ हासिल नहीं होगा.

‘‘एनएचसीपीएम के संदर्भ में यहां औज़ार, वह मछली और मछली वाले की मुझे बहुत बार याद आई. आज मुझे फिर वही औज़ार और उसमें कटने वाली मछली की याद आई. 15 साल (2002-17, जबसे एनएचसीपीएम की अवधारणा बनी) के बाद भी हम नहीं सुधरे. सिद्धांत एक ओर और व्यवहार दूसरी ओर अलग-थलग पड़े हैं. कोई औज़ार को अपनी बपौती समझता है तो कोई औज़ार की धार की प्रशंसा कर अपने समय की बरबादी कर रहा है. मछली सड़ रही है और वातावरण दुर्गंधित होता जा रहा है. अमीरी और गरीबी रेखा की तरह हमारे सिद्धांत और व्यवहार के बीच दूरी बढ़ रही है. नेपाल और भारत में एनएचसीपीएम चंद लोगों के इर्दगिर्द ही सिकुड़, सिमटकर रह गई है.

‘‘कहने को तो हम पीपुल्स सार्क का नाम लेते हैं लेकिन 2012 के बाद श्रीलंका, भूटान और बांग्लादेश ने भी सम्मलेन में आना छोड़ दिया है. हम इसे एक असफल सिद्धांत तो घोषित नहीं करने जा रहे हैं? हमारी या सिद्धांत की कमजोरी कहां है, उसे ढूंढ़ने की हिम्मत किसी में है, ऐसा नहीं दिखता. एनएचसीपीएम में भी फूटपरस्त राजनीति हावी होती जा रही है, व्यक्ति पूजा ही सार है.

‘‘आर.पी. सराफ ने इसे अपना सिद्धांत नहीं कहा था. आप लोग उनको एनएचसीपीएम का सिद्धांतकार बनाने चले. गुमराह आप वहीं से हो रहे हो. आर.पी. सराफ आपको लेखक और संपादक का फर्क भी याद दिलाना चाहते थे. लेकिन आपको तो एक नाम के अंतर्गत ही सिद्धांत चाहिए. आर.पी. सराफ आपको बताना चाहते थे कि अमानवीयकरण उनकी खोज नहीं. वह तो राम के ज़माने से चली आ रही है. न ही ग्लोबल वार्मिंग जो 70 के दशक से ही बहुत चर्चा में आने लगी, उनकी खोज है. वे कहना चाहते थे कि -- समझदार और समर्पित लोग आगे आएं, पार्टी या दल को भाव न दें, स्वतंत्र उम्मीदवार खड़ा करें, निर्णय में आम सहमति अपनाएं. वे 51% के शासन या जनवादी केंद्रीयता के खिलाफ थे. 1:5 का अंतर तब (15 बरस पहले) का था, अब तो बकौल घनश्याम, 1:2 होना चाहिए.

‘‘कोई व्यक्ति अकेला मेहनत करेगा या दूसरों को भी साथ लेकर एक बहस करवाएगा. अकेले हम कमजोर होते हैं. जब टीम होती है तो शक्ति ओर विचार की प्रचुरता भी होती है. आम आदमी पार्टी के बारे में आपकी टिप्पणी या हिदायत व्यक्तिगत हो सकती है, उसे इस फोरम से दूर रखें. प्रतीत होता है कि आम आदमी पार्टी खुद को सिर्फ प्रेशर ग्रुप के तौर पर ही देखना चाहती है.

‘‘एनएचसीपीएम तो व्यवस्था परिवर्तन की मांग करती है, संविधान संशोधन या पुनर्लेखन की मांग करती है. सभी देशों की सीमाएं हटाने की बात संविधान में शांतिपूर्ण तरीके से संशोधन किए बिना संभव कैसे होगी? आम आदमी पार्टी से सबक लेना चाहिए. वे तो स्वघोषित अराजकतावादी हैं. उन्हें सबक सिखाने के बजाय हमें अपने संगठन विस्तार और शुद्धिकरण पर ध्यान देना शायद ठीक होगा.

‘‘हमारा संगठन अधिक व्यक्तिगत बनता जा रहा है, उसे सामाजिक स्वरूप कैसे दिलवाया जाए, यह आज की सबसे बड़ी चुनौती है. पार्टी परंपरा, बहुमत का शासन, जनवादी केंद्रीयता, पोलिटब्यूरो जैसी सांगठनिक संचरना, पार्टी अध्यक्ष कौन बने आदि चिंतन और व्यक्ति की अपनी निजी ईगो से हम ऊपर नहीं उठ पाए. एनएचसीपीएम का सार इसी में अटका हुआ है. ईगो को हम मैनेज नहीं कर पा रहे हैं. इन्हीं मान्यताअों पर हम औरों से अलग हैं. आर.पी. सराफ़ की बात पर गौर कर इन मुद्दों की समीक्षा करें. यही हमारे आगे बाधा है. इस तरह तो 100 साल यूं ही बीत जाएंगे ओर हम कुछ नहीं कर पाएंगे.’’

Thursday, May 4, 2017

पूरी तरह पीछे मुड़ना या 180 डिग्री का मोड़ काटना इसे ही कहते हैं. वह बात भी स्वीकार्य हो सकती है. लेकिन चित भी मेरी, पट भी मेरी की कलाबाजी करना दरअसल धौंसबाजी ही है. कोई यह कहे कि मैं पहले जो कहता रहा या करता रहा वह तो ठीक था और उसके ऐन उलट अब जो कह या कर रहा हूं, वह भी ठीक है, तो यह धौंसबाजी के सिवा कुछ नहीं है. भाजपा का रुख भी कुछ वैसा ही है.

अभी दो दिन पहले भाजपा की अगुआई वाली केंद्र सरकार ने भारतीय नागरिकों के लिए कानून के तहत आधार कार्ड बनाना अनिवार्य बताते हुए सुप्रीम कोर्ट में दलील दी कि किसी नागरिक का अपने शरीर पर पूर्ण अधिकार नहीं है और निजता के अधिकार की बात कपोल कल्पना है. उनका तर्क था कि अगर ऐसा अधिकार होता तो लोग अपने शरीर के साथ जो चाहे करने को स्वतंत्र होते -- यानी कोई नागरिक आत्महत्या जैसा कदम उठाने अथवा कोई महिला उन्नत चरण में गर्भ समाप्त करवाने या कोई व्यक्ति नशीली दवाएं लेने को स्वतंत्र होता. लेकिन कानून ऐसा कुछ करने की अनुमति नहीं देता. ( https://goo.gl/22yV13 ).



दिलचस्प है कि नरेंद्र मोदी ने, जो तब इसी पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे, करीब तीन साल पहले 8 अप्रैल 2014 के एक ट्वीट में आधार कार्ड को एक ‘‘राजनैतिक नौटंकी’’ करार दिया था और उसे ‘‘सुरक्षा के लिए खतरा’’ बताते हुए चिंता जताई थी. ( https://goo.gl/rfMVuM ). इससे पहले पार्टी की तत्कालीन उपाध्यक्ष स्मृति ईरानी ने 22 अक्तूबर 2013 को कहा था कि आधार कार्ड की अवधारणा संसद से अनुमोदित नहीं (यानी गैरकानूनी) है और उसके तहत बायोमीट्रिक डाटा जुटाना निजता के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन है. ( https://goo.gl/qfJZ9q ).

अजीब बात यह कि भाजपा को यह समझने में तीन-चार साल लग गए कि किसी नागरिक का अपने शरीर पर पूर्ण अधिकार (absolute right) नहीं है और निजता के अधिकार की बात कपोल कल्पना है. ठीक है, किसी व्यक्ति, संगठन या संस्था को समय के साथ अपनी कोई अवधारणा बदलने का अधिकार है. लेकिन नैतिकता भी कोई चीज है और उसका तकाजा है ‍कि बदलने से पहले कोई यह तो बताए कि उसकी पुरानी अवधारणा क्यों गलत हो गई और नई अवधारणा बनाने का उसका क्या आधार है. और पार्टी ने इस बारे में अभी तक कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया है.

बहरहाल, अपना मानना है कि आज के युग में किसका, किस पर क्या अधिकार है, इसका फैसला कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के हितों से तय होता है. सरकार कांग्रेस की हो जा भाजपा की, काम वही करती हैं जो कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के हित में होता है. ऐसे में भाजपा सरकार कोई अपवाद नहीं है. यही वजह है कि आधार कार्ड बनाने की वजह और उसके जो नियम कांग्रेस ने बनाए थे, भाजपा को उनका पालन करना ही था. वह उनसे इतर नहीं जा सकती थी.


कांग्रेस और भाजपा दरअसल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. दोनों का मकसद किसी न किसी तरीके से सत्ता पर कब्जा करना है. और इसके लिए वोट जुटाने की खातिर कांग्रेस नरम हिंदुत्व की पैरोकारी करती है तो भाजपा कट्टर हिंदुत्व की वाहक बन जाती है. लेकिन दोनों कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के हित साधती हैं और उन्हीं की रक्षा करती हैं. इसलिए सरकार चाहे किसी की बने, उनकी बुनियादी नीतियां नहीं बदलतीं.

Wednesday, May 3, 2017

आज विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस है. संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा ने 1993-94 में फैसला किया था कि हर साल 3 मई को ऐसा दिवस मनाया जाए. मकसद यह जागरूकता फैलाना था कि प्रेस की आजादी की क्या अहमियत है. साथ ही हर देश की सरकार को उसके इस कर्तव्य की याद दिलाना भी था कि वह अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का सम्मान करे और उसे बनाए रखे. अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा के अंतर्गत आता है.

लेकिन भारत-पाक उपमहाद्वीप में प्रेस की आजादी किस तरह की है यह ‘‘रिपोर्ट्स विदऑउट बॉर्डर्स’’ की हफ्ता भर पहले जारी ताजा रिपोर्ट से जाहिर है. 180 देशों की तालिका में भारत को 136वां और पाकिस्तान को 139वां स्थान मिला है. पिछले साल भारत 133वें स्थान पर था. वैसे, प्रेस की आजादी के मामले में भारत इसलिए भी पीछे है कि यहां प्रेस (यानी अखबार-पत्रिकाअों-टीवी के मालिक) खुद गुलाम मानसिकता का शिकार है. हर दौर में जब शासक वर्ग उसे झुकने को कहता है, वह घिसटने लगता है.

गैर सरकारी संगठन ‘‘रिपोर्टर्स विदऑउट बॉर्डर्स’’ एक गैर-लाभकारी संस्था है जिसका मुख्यालय पेरिस में है. सूचना की आजादी और प्रेस की आजादी को बढ़ावा देने और उसकी रक्षा करने वाले इस संगठन को संयुक्त राष्ट्र संघ में सलाहकार का दर्जा हासिल है.

दिलचस्प बात यह है कि प्रेस की आजादी की रैंकिंग में पड़ोसी छोटे देशों की स्थिति भारत से बेहतर हैं. तालिका में भूटान का 84वां और नेपाल का 100वां नंबर है. यहां तक कि फिलस्तीन भी भारत से एक दर्जा ऊपर है. तानाशाह शासित जि़म्बाब्वे समेत अफ्रीका के बहुत से देश भी भारत के मुकाबले बेहतर स्थिति में हैं. लेकिन चीन 176वें स्थान पर और उत्तर कोरिया एकदम नीचे है. रैंकिंग में पहले चार स्थानों पर क्रमश: नॉर्वे, स्वीडन, फिनलैंड और डेनमार्क हैं.

Monday, May 1, 2017

आज अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस है. यह हर साल 1 मई को दुनिया भर में मनाया जाता है. वजह यह कि 1886 में इस दिन अमेरिका में शिकागो शहर के मजदूरों ने दिन भर में आठ घंटे से ज्यादा काम न करने और दूसरी मांगों को लेकर हड़ताल की थी. तब मजदूरों पर गोली चली और उनका खून बहा, जिससे उन्हें कोई फौरी फायदा तो नहीं हुआ था. लेकिन इससे पूरी ‍दुनिया के मजदूरों में मानवीय परिस्थितियों में काम करने को लेकर जागृति पैदा हुई और अंतत: लगभग हर देश में मजदूरों से दिन में आठ घंटे काम करने को लेकर कानून बने.

लेकिन आज मजदूर आंदोलन को अनेक चुनौतियों का सामना है. सबसे बड़ी समस्या तो यही है कि मजदूरों की तथाकथित नुमांइदा ट्रेड यूनियनें अपराधी और भ्रष्ट राजनैतिक पार्टियों और नेताओं की जी-हजूर और वफादार बन गई हैं. ऐसी पार्टियां और नेता जो कॉर्पोरेट पूंजीपतियों, उनकी राजनीति और व्यवस्था की निरंतर सेवा में लगे हुए हैं. मजदूरों में एकता न होना वगैरह भी  समस्याएं तो हैं, लेकिन इतनी बड़ी नहीं. मजदूर आंदोलन की असली चुनौती यही है कि उसके फौरी विरोधी ही उसकी पांतों में सबसे आगे बैठे हैं.

मजदूर आंदोलन के हितैषियों को तीन काम करने चाहिए. 

एक तो राजनीति, अर्थव्यवस्था, कानून और संस्कृति के बारे में जानकारी मुहैया करके उनकी समझ का स्तर बढ़ाना चाहिए और साथ ही दुनिया की सामाजिक हकीकत और उसके तकाजों से भी उनका परिचय कराना चाहिए. 

दूसरा काम यह कि ट्रेड यूनियनों में हमेशा और हर कहीं लोकतांत्रिक शैली पर बल देना चाहिए, जिसके अंतर्गत मजदूर नेताओं को हर समय मजदूरों के प्रति जवाबदेह होना चाहिए, महिलाओं को नेतृत्व में यथोचित नुमांइदगी देनी चाहिए और मजदूरों की हर मांग को पूरा कराने के‍ लिए बातचीत, सुलह, मध्यस्थता और हड़ताल जैसे कानूनी और शांतिपूर्ण तरीके अपनाए जाने चा‍हिए. 

तीसरे, एक संस्था में एक यूनियन की नीति अपनाते हुए मजदूरों में उनकी फौरी और लंबे अरसे की मांगों को लेकर एकता बनानी चाहिए.