Wednesday, October 25, 2017

नोटबंदी के नरपिशाच का शिकार आम आदमी

नोटबंदी के नरपिशाच का
शिकार हो रहा आम आदमी
इसका मूल मकसद जनता को यह फरमान सुनाना है कि ज्यादा पैंसा बैंकों में रखो ताकि कंपनियां उसे बरत सकें
ओम प्रकाश सराफ

आठ नवंबर को रात घिरते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र के नाम अप्रत्याशित टीवी संदेश में ऐलान किया कि आज आधी रात से 500 रु. और 1000 रु. के नोट वैध मुद्रा नहीं रहेंगे. इससे चंदेक को छोड़कर समूचा विपक्ष सकते में आ गया. प्रधानमंत्री ने कहा कि उनकी सरकार का मकसद भ्रष्टाचार से लड़ना है और यह फैसला काले धनको निशाना बनाएगा और जिन नकली नोटों का इस्तेमाल आतंकवादी  करते हैं, उन्हें वस्तुतः कचरेदान में डाल देगा. उन्होंने यह भी बताया कि बंद नोटों की जगह सरकार 2000 रु. का एक नया नोट ला रही है. अपने भाषण के अंत में मोदी ने जनता से अपने इस अभियान में सहयोग देने की अपील की.
इस चतुर चाल ने लोगों के मन में इंदिरा गांधी के जमाने की याद ताजा कर दी, जब 1971 में उन्होंने गरीबी हटाओ का नारा दिया था. इससे लगा कि जैसे मोदी रातोरात गरीबों के हितों के रखवाले बन गए हैं. आम आदमी को लगा कि जैसे प्रधानमंत्री ने अपने जादुई पिटारे से देश की सभी समस्याओं का हल निकाल दिया है. बंद नोट बदलवाने या उन्हें अपने खाते में जमा कराने के लिए बैंकों में और 2,500 रु. तक की राशि निकलवाने के लिए एटीएम में लंबी-लंबी कतारें लगाने पर भी ज्यादातर पैसा न मिलने के बावजूद आम लोगों ने भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ उनके इस कथित यज्ञ में अपनी आहुति डालने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

रातोरात अपनी क्रय शक्ति कम होने
से बुरी तरह प्रभावित आम आदमी

लेकिन जैसे-जैसे दिन बीतते गए, आम आदमी को समझ आने लगा कि नोटबंदी के मनमाने कदम से पैदा हुई यह अफरातफरी जल्दी खत्म होने वाली नहीं. नई मुद्रा पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं कराए जाने से एटीएम मशीनें खाली रहीं और ज्यादातर बैंकों पर क्षमता से अधिक बोझ पड़ा. लोगों को इतनी कम नकदी मिली जो उनके रोजमर्रा कार्यकलाप के लिए पर्याप्त नहीं थी.
दिलचस्प बात तो यह है कि इस सारी कसरत में धनी लोगों को - जो ढेर सारा ‘‘काला धन’’ रखने की वजह से अनुमानतः निशाने पर थे और संभवतः ज्यादातर ‘‘कैशलेस’’ भी थे - खरोंच तक नहीं आई. लेकिन अपने रोजमर्रा कार्यकलाप के लिए नकद मुद्रा पर बेइंतहा निर्भर मुख्य रूप से गरीब और दिहाड़ी मजदूर, जिनमें से 80 फीसदी को नकद मजदूरी मिलती है, और मध्यम वर्ग रातोरात अपनी क्रय शक्ति कम होने से बुरी तरह प्रभावित हुए. किसी के पास नकदी न रहने की वजह से बहुत-से दिहाड़ी मजदूरों को काम ही नहीं मिल पाया. स्थानीय उद्योगों ने पास में नकदी न रहने के कारण कुछ समय के लिए उद्योग और काम-धंधे बंद कर दिए. शहरों और कस्बों में अनेक मजदूरों को उनके मालिकों ने अपने-अपने गांवों में लौट जाने के लिए कह दिया.
मध्यम वर्ग के काम के लाखों घंटे बैंकों में लगी लंबी कतारों में खराब होने लग गए. फिर भी बहुत-से लोगों को समय पर नई मुद्रा नहीं मिली क्योंकि वह कम ही मात्रा में उपलब्ध थी. शारीरिक रूप से कमजोर लोगों और बुजुर्गों को नए नोट पाने के लिए जोखिम भरी कसरत से गुजरना पड़ा. अनेक मौतें न सिर्फ लंबी-लंबी कतारों में लगने के दौरान हुईं बल्कि कुछ तो लोगों के दवाएं खरीद न पाने की वजह से भी हुई बताई गई हैं.
अपने भोजन के लिए पूरी तरह बाजार से खरीदारी पर निर्भर ज्यादातर खेतिहर, ग्रामीण मजदूर और कारीगर-मिस्त्री सबसे ज्यादा मुसीबत में फंस गए क्योंकि अपने पास मौजूद पैसे से वे अपने-अपने  परिवारों के लिए बुनियादी जरूरत की चीजें नहीं खरीद सके. नए नोट बैंकों में जरूरत के मुताबिक उपलब्ध न होने की वजह से उन्हें बदलवाने के उनके प्रयास ज्यादा सिरे नहीं चढ़ सके. यही नहीं, ज्यादातर गांवों में बैंक की सुविधा न होने से उन्हें कई-कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ा.
खेती उत्पादक भयावह हालात से घिर गए. जिन्होंने तो अभी-अभी खरीफ की अपनी फसल की कटाई की थी, वे नए नोटों की कमी के कारण उसे बेच नहीं पाए. कुछ को तो अपनी पैदावार बहुत ही कम कीमत पर बेच देने के लिए कहा गया, नहीं तो वह जल्दी ही खराब हो जाती. जो लोग फसल बेच चुके थे और जिनके हाथ में नई मुद्रा थी, वे रबी की बुआई के लिए बीज और खाद इसलिए नहीं खरीद सके क्योंकि उनके नजदीक के बैंकों में कम मूल्य की या वैकल्पिक मुद्रा ही उपलब्ध नहीं थी.
यहां तक कि चाय बागान जैसे अपेक्षतः संगठित क्षेत्र में भी मजदूरों को दिहाड़ी नए नोटों में कम ही मिली जिससे वे बहुत मुश्किल से ही अपनी गुजर-बसर कर पाए. 
अकेले कष्टों और असुविधाओं ने ही आफत नहीं लाई. नकदी की कमी से खपत और मांग भी कम हो गई, जिससे सामान और सेवाओं की स्पलाई श्रृंखला टूट गई. जल्दी ही इसका सीधा असर उत्पादन पर भी पड़ेगा. व्यापारियों और खुदरा दुकानदारों को नकदी के बिना अपना कारोबार चलाने में दिक्कत होने लगी. चूंकि ग्राहकों के पास खरीदारी करने के लिए पैसा कम था और उन्हें उधार एक हद तक ही मिल सकता था, इसलिए खुदरा दुकानदार के पास पैसा कम होते जाने से व्यापारी भी आगे सामान देने से कतराने लगे.
क्रय शक्ति में भारी कमी हो जाने की वजह से देश कृत्रिम रूप से पैदा हुई मंदी की ओर बढ़ने लगा और आर्थिक गतिविधियों का स्तर घटने लगा. 

बड़े पैमाने पर निरर्थक कसरत
लेकिन खोखला और भ्रामक अभियान

अब लोगों को लगने लगा कि मौजूदा नोटबंदी अभियान की इंदिरा गांधी की गरीबी हटाओ मुहिम के साथ एक और समानता यह है कि यह भी उसी की तरह खोखला और भ्रामक है. दरअसल, मौजूदा अभियान के दौरान सरकार की कथनी और करनी में बहुत फर्क रहा. वह कहती कुछ रही, करती कुछ रही और कुल मिलाकर उसने लोगों को गुमराह किया.
बड़े करेंसी नोटों को बंद करते वक्त सरकार ने यह ऐलान किया था कि नोटबंदी से काला धन बाहर आएगा और आतंकवादियोंको पनपने में सहायंता पहुंचाने वाले नकली नोट खत्म हो जाएंगे. यह भी कल्पना की गई थी कि जखीरे के रूप में रखा गया नकदी का बहुत बड़ा हिस्सा बैकों में जमा ही नहीं हो पाएगा और उनका मूल्य खत्म हो जाएगा. यह अफवाहें भी फैलाई गईं कि पुराने नोट गंगा नदी या नजदीकी नदी-नालों में बहाए जा रहे हैं या सड़क किनारे कूड़दानों में फैंके जा रहे हैं.
लेकिन जब यह स्पष्ट हो गया कि नवंबर के अंत तक 11 लाख करोड़ रु. के पुराने नोट बैंकिंग व्यवस्था में फिर वापस आ गए हैं तो इस विशाल निरर्थक कसरत की कामयाबी को लेकर शंकाएं सिर उठाने लग गईं. ज्यादा से ज्यादा विशेषज्ञ अब उम्मीद करने लग गए थे कि 95 फीसदी पुरानी मुद्रा बैंकों में वापस आ जाएगी. इससे सरकार को बंद की गई मुद्रा का मात्र 5 फीसदी अथवा 70,000 करोड़ रु. बचते हैं.
सो इससे इस व्यापक मत की पुष्टि होने लगी कि नकद पैसा काली संपत्ति का बहुत ही छोटा हिस्सा है. 2012-13 से आगे के कर छापों के आंकड़ों से पता चलता है कि आयकर चोरों से जब्त अप्रकाशित आय में नकदी वसूली मात्र 6 फीसदी थी. वजह यह है कि काला धन रखने वाले व्यक्ति एक तो गुमनाम रहकर भी आसानी से खुल जाने वाले विदेशी खाते खोलने को तरजीह देते हैं और दूसरे सोने और संपत्ति में निवेश करना बेहतर मानते हैं. इस तरह अवैध नकदी की मात्रा शायद मामूल़ी-सी ही है.
यही बात नकली नोटों को लेकर है. आम अंदाजों के विपरीत नकली नोटों का मूल्य बहुत ज्यादा नहीं है. सरकार के अपने आंकड़े बताते हैं कि जारी किए गए हर 10 लाख नोटों के पीछे 250 नकली नोट हो सकते हैं. कोलकाता स्थित इंडियन स्टैटिस्टीकल इंस्टीट्यूट की ओर से 2015 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, जो इस मामले में एकमात्र भरोसेमंद और समग्र खोज है, भारतीय अर्थव्यवस्था में किसी भी समय पर देखें तो 400 करोड़ रु. मूल्य के नकली नोट चलन में रहते हैं. यह इस वित्त वर्ष में घोषित किए गए 19.7 लाख करोड़ रु. के कुल बजट खर्च का महज 0.025 फीसदी अंश है. मुकाबले में चलन से बाहर किए जाने वाले नोटों की छपाई की लागत ही लगभग 12,000 करोड़ रु. है. तो क्या करीब 400 करोड़ रु. मूल्य की नकली मुद्रा को हटाने के लिए 12,000 करोड़ रु. खर्च करना अक्लमंदी मानी जाएगी?
वैसे, नोटबंदी की कसरत तभी सार्थक मानी जाती है अगर सरकार बिना हिसाब-किताब वाली कम-से-कम उतनी नकदी का पता लगा पाए जितनी उसको बदलने के लिए जरूरी पूरी प्रक्रिया पर खर्च आती है. और सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआइई) के अनुमान के अनुसार, 30 दिसंबर 2016 तक 50 दिन की इस प्रक्रिया पर करीब 1.28 लाख करोड़ रु. खर्च हो सकते हैं. इसमें कारोबार या बिक्री का नुक्सान (61,500 करोड़ रु.), घर-परिवारों पर खर्च का पड़ा बोझ (15,000 करोड़ रु.) और सरकार तथा रिजर्व बैंक का नए नोटों की छपवाई बगैरह पर खर्च (16,800 करोड़ रु.) शामिल है. अन्य बैंकों का खर्च अलग है.
तब तक सरकार को शायद खुद भी बात समझ आ गई थी और वह काले धन को सफेद करने के लिए स्वैच्छिक घोषणा योजना को संशोधित रूप में ले आई. इस योजना के तहत जुर्माना सितंबर के अंत तक चलती रही इसी तरह की योजना के 45 फीसदी जुर्माने से मात्र पांच फीसदी ज्यादा था (इसके अलावा चार साल की लॉक-इन अवधि भी थी). जाहिर है कि तथाकथित नोटबंदी का मकसद काले धन पर धावा बोलना नहीं था.

मंशा जाहिर हो गई,
कैशलेस होना पड़ेगा

जल्दी ही इसका भेद भी खुल गया. यही वजह है कि आजकल मोदी जी काले धन पर भाषण कम मगर कैशलेस भारत पर ज्यादा जोर दे रहे हैं. स्पष्ट है, सरकार हर नागरिक से चाहती है कि वह नकद पैसा कम-से-कम अपने पास रखे और पैसे का ज्यादातर लेन-देन चैक या डिजिटल तरीके से करे. वह चाहती है कि लोग अपना सारा धन बैंकों में रखें ताकि कार्पोरेट पूंजीपतियों के लिए उसे जब चाहे अपने फायदे में इस्तेमाल करना आसान हो सके.
यह सही है कि टेक्नोलॉजी के विकास की प्रक्रिया में नई और पुरानी टेक्नोलॉजी के बीच जहां संघर्ष है, वहीं उनके बीच एकता भी है. आने वाला जमाना निश्चित रूप से नए का ही होता है, लेकिन समाज में पुराने के जाने और नए के आने का वक्त किसी की मनमर्जी से तय नहीं होता. उसके लिए जहां समाज को तैयार करने की जरूरत होती है, वहीं नई चीज के अस्तित्व में बने रहने का ढांचा भी तैयार करना होता है. फरमान जारी कर ऐसा किया जाए तो उसके नुक्सान हो सकते हैं.
इसीलिए भारत को कैशलेस बनने के लिए जहां जनमानस तैयार करने की जरूरत है, वहीं डिजिटल टेक्नोलॉजी के टिके रहने का ढांचा भी गढ़ना होगा. देश में एक तो डिजिटल साक्षरता का स्तर नीचा होने की वजह से और दूसरे बैंकों की पहुंच महज 46 फीसदी होने, इंटरनेट कनेक्टिविटी महज 22 फीसदी पर पहुंचने, आबादी के 19 फीसदी के पास बिजली क्नेक्शन न होने (तथा जिनके पास है वह भी भरोसेमंद न होने) और 140 लाख व्यापारियों में से 12 लाख के पास ही डिजिटल बिक्री मशीन (पीओएस - पॉइंट ऑफ सेल मशीन) होने की वजह से भारत में कैशलेस अर्थव्यवस्था के लायक ढांचा तैयार नहीं हुआ है. 
विशेषज्ञों का कहना है कि भारत जैसे पिछड़े देश के लिए अभी कैशलेस बनने की कीमत बहुत ज्यादा पड़ेगी. इससे बहुत-से बेगुनाह लोगों को नुक्सान हो सकता है. लेकिन इसके लिए देश की जनता को गुमराह करने की जरूरत नहीं पड़ती, जैसे कि अभी सरकार ने किया और बड़े पैमाने पर अफरातफरी को जन्म दिया है.

नोटबंदी की उतावली की वजह
कार्पोरेट पूंजीपतियों के हित

सब जानते हैं, भाजपा की अगुआई वाली राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार के सामने स्थिति यह थी कि उसके पास पैसे की कमी थी और उसके बिना उसे अपना सामान्य कामकाज चलाना मुश्किल हो रहा था, जबकि बैंकों के पास भी नकदी का संकट खड़ा हो गया था और वे कार्पोरेट पूंजीपतियों को कर्ज नहीं दे पा रहे थे. सरकारी बैंक तो दिवालिया होने की कगार पर खड़े थे.
रिजर्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, 31 मार्च 2016 को 16.24 लाख करोड़ रु के नोट बाजार में चल रहे थे. इसमें 500 और 1000 रु. के नोट 86.4 फीसदी यानी कोई 14.03 लाख करोड़ रु. मूल्य के थे. आर्थिक जानकारों का मानना है कि सरकार और बैंकों के पास इसकी करीब 30 फीसदी रकम थी. मतलब यह कि सरकार और बैकों के पास मात्र 5 लाख करोड़ का ही इंतजाम था. बाकी पैसा निजी संस्थाओं और व्यक्तियों के पास था. और नोटबंदी की कसरत का मूल निशाना इसी पर लक्षित था.
बैंकों की स्थिति बहुत ही खराब थी. मई माह के पहले सप्ताह में जदयू के पवन वर्मा ने राज्यसभा में आरोप लगाया था कि सरकारी बैंकों पर ऐसे लोगों को कर्ज देने के लिए प्रभाव डाला जाता है जो उसे लौटाते नहीं हैं. इस तरह आज की तारीख में कार्पोरेट घराने सरकारी बैंकों के 5 लाख करोड़ रु. के कर्जदार हैं. इनमें लैंको, जीवीके, सुजलॉन एनर्जी, हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी और अदानी ग्रुप पर करीब 1.4 लाख करोड़ रु. का बकाया है.
अक्तूबर के अंत में भारत के चीफ जस्टिस टी.एस. ठाकुर की अगुआई में एक पीठ ने भारतीय रिजर्व बैंक की सौंपी गई बकायेदारों की लिस्ट पढ़ने के बाद खुलासा किया था कि बैंकों के 500 करोड़ रु. से ज्यादा कर्ज के बकायेदार 87 लोगों पर कुल 85,000 करोड़ रु. बकाया हैं. सर्वोच्च अदालत ने कहा कि अगर उसने 100 करोड़ रु. बकाया वालों की लिस्ट मांगी होती तो यह आंकड़ा 1 लाख करोड़ रु. के पार होता.
सभी 38 बैंकों (23 सरकारी और 15 निजी) की कमाई के आंकड़े 2016 में जुलाई से सितंबर तक घोषित उनके परिणामों में निराशाजनक तस्वीर पेश करते हैं. गैर निष्पादित आस्तियों (नॉन परफार्मिंग असेट्स यानी एनपीए) के अनुपात के हिसाब से भारत का एनपीए स्तर दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले बदतरीन स्थिति में था. यह बैंकों की ओर से दिए गए वह कर्ज होते हैं, जिन्हें कर्जदार चुकाना बंद कर देते हैं.
दैनिक बिजनेस स्टैंडर्ड ने 13 नवंबर 2016 के अपने संपादकीय में इन बैकों की कलई खोलकर रख दी. उसने लिखा, ‘‘उनके शुद्ध लाभ में सालाना आधार पर 26 फीसदी गिरावट आई, जबकि ब्याज से होने वाली आमदनी में मामूली इजाफा हुआ, और गैर-ब्याज आय 58 फीसदी बढ़ी. सकल एनपीए 98 फीसदी बढ़कर 6.5 लाख करोड़ रु. हो गया, जो पिछले साल इसी अवधि में 3.3 लाख करोड़ रु. था. प्रावधानों के दायरे में न आने वाला फंसा हुआ कर्ज यानी शुद्ध एनपीए सालाना आधार पर 106 फीसदी की तेजी के साथ 3.76 लाख करोड़ रु. हो गया.’’
‘‘पिछली तिमाही से शुद्ध एनपीए में भी 5 फीसदी की बढ़ोतरी के साथ ही प्रावधानों में जबरदस्त तेजी का रुख रहा. अब सकल एनपीए 8.9 फीसदी और शुद्ध एनपीए 5 फीसदी हैं, जो केंद्रीय बैंक के शुरुआती आकलनों से अधिक हैं. पुनगर्ठित कर्जों जैसी दबाव वाली अन्य परिसंपत्तियां 3.5 फीसदी हो गई हैं. इसमें भी बदतर बात क्रेडिट सुइस का यह आकलन है कि अभी कम से कम 3.3 लाख करोड़ रु. के फंसे हुए कर्जों को चिह्नित किया जाना बाकी है. समग्र तस्वीर देखें तो दबाव वाली परिसंपत्तियों का कुल आंकड़ा 15 फीसदी से अधिक हो जाता है, जो किसी बड़े उभरते बाजार में संभवतः सबसे खराब अनुपात होगा. समग्र तस्वीर देखें तो दबाव वाली परिसंपत्तियों का कुल आंकड़ा 15 फीसदी से अधिक हो जाता है, जो किसी बड़े उभरते बाजार में संभवतः सबसे खराब अनुपात होगा.’’
‘‘इनमें भी सरकारी बैंकों के हालात सबसे ज्यादा खराब हैं, जो कुल अग्रिमों के 73 फीसदी और एनपीए के लगभग 90 फीसदी बोझ तले दबे हुए हैं. उनके कुल अग्रिम में तकरीबन 11 फीसदी सकल एनपीए और 6.4 फीसदी शुद्ध एनपीए है. तमाम सरकारी बैंक दिवालिया होने के कगार पर हैं.’’
नवंबर के मध्य में भारतीय स्टेट बैंक ने तो सारी हदें पार करते हुए कर्ज चुकाने में जानबूझकर चूक करने वाले अपने 100 सबसे बड़े कर्जदारों की सूची में से 63 कर्जदार कार्पोरेट घरानों की ओर बकाये की करीब 7,016 करोड़ रु. की पूरी रकम बट्टे खाते (यानी कभी वसूल न होने वाले कर्ज के खाते) में डाल दी. उसने 31 कर्जदारों के बकाये को आंशिक तौर पर बट्टे खाते में डाला और 6 के बकाये को एनपीए घोषित किया है. इस तरह 30 जून 2016 तक यह बैंक 48,000 करोड़ रु. के बकाया कर्ज को बट्टे खाते में डाल चुका था.
यही स्थिति दूसरे बैंकों की भी थी. उनका 6.5 लाख करोड़ रु. का सकल एनपीए घोषित रूप से तो नहीं, व्यावहारिक तौर पर बट्टे खाते में ही था. इससे साफ जाहिर है कि सरकार और बैंकों के पास पैसा नहीं रहा था. डूबते बैंकों को उबारने के लिए इससे पहले उन्हें आपस में विलय कर लेने की पेशकश की गई, लेकिन वह योजना सिरे नहीं चढ़ पाई. तभी कुछ अर्थशास्त्रियों ने सरकार को यह सलाह दी कि लोगों का पैसा बैंकों में जमा करवाया जाए. इसके लिए सरकार ने पहले जन-धन योजना के तहत बैंकों में करोड़ों खाते खुलवाकर व्यापक तैयारी कर ली.

नोटबंदी का दीर्घकालीन
और अल्पकालीन मकसद

अंततः नोटबंदी का फैसला किया गया. उसके पीछे दीर्घकालीन मकसद यह था कि देश में ऐसे हालात पैदा कर दिए जाएं कि अधिकतम नकदी बैंकों में जमा हो और उसकी निकासी पर खासी बंदिशें लगा दी जाएं, जिससे सरकार के पास अपने खर्च चलाने के लिए पैसा उपलब्ध हो और साथ ही बैंकों के लिए कार्पोरेट पूंजीपतियों को कर्ज देना आसान हो जाए.
इसके साथ ही सरकार में मौजूद भाजपा नेताओं का अल्पकालीन मकसद भी जुड़ गया. नोटबंदी के बहाने उन्होंने अगले साल के शुरू में कुछ राज्यों के होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए अपनी तैयारी कर ली. कई राज्यों में भाजपा ने अपने अरबों रु. के चंदे को जमीन-जायदाद खरीदने में लगा दिया. यही नहीं, उसकी अनेक राज्य इकाइयों ने अपने पास पड़ी नकदी को दो-तीन माह पहले से ही बैंकों में जमा कराना शुरू कर दिया. पश्चिम बंगाल इकाई ने यह पैसा तो नोटबंदी के ऐलान से चंद घंटे पहले ही जमा करवाया. पार्टी नोटों से तो मालामाल हो गई थी, अब उसके रणनीतिकारों को लगा कि काले धन के खिलाफ कार्रवाई के नाम पर लोग मोदी जी को वोटों से भी मालामाल कर देंगे. 
यही नहीं, शासक पार्टी ने बाकी विपक्ष को संभलने का मौका नहीं दिया. मकसद यह था कि विपक्ष के पास भारी मात्रा में जो पैसा है, उसे नई मुद्रा में बदलने की राह में अड़चनें डाली जाएं. इसमें चाल यह थी कि विधानसभा के चुनाव वाले राज्यों में विपक्ष पैसे का मोहताज बन जाए और मुकाबले में भाजपा तथा उसके सहयोगियों की स्थिति मजबूत रहे.

निष्कर्ष

बहरहाल, भारत में काले धन की उत्पत्ति का मूल स्रोत राजनैतिक नेता, कॉर्पोरेट पूंजीपति और भ्रष्ट उच्च सरकारी अधिकारियों की तिकड़ी है. यह तिकड़ी हर साल काले धन को काली संपत्ति में बदलती जा रही है. काले धन और काली संपत्ति दोनों मिलाकर ही काली अर्थव्यवस्था का निर्माण होता है, जिसके आकार का अनुमान देश में 90 लाख करोड़ रु. से ऊपर लगाया गया है. दोनों में फर्क यह है कि काला धन संचित की गई काली संपत्ति का ही एक छोटा-सा भाग होता है.
नोटबंदी ज्यादा से ज्यादा यह कर सकती है कि काली संपत्ति को छेड़े बिना काले धन के एक मामूली-से भाग को नष्ट कर देगी, लेकिन उसके प्रवाह या चलन को नहीं रोक पाएगी. उसके लिए काली कमाई की उत्पत्ति को रोकना होगा. मूल रूप से, ‘‘काले धन’’ को उजागर करने के लिए हर क्षेत्र में अघोषित आर्थिक गतिविधियों पर अंकुश लगाना जरूरी है और इसमें राजनैतिक क्षेत्र भी शामिल है. पर जब तक राजनैतिक नेता, कॉर्पोरेट पूंजीपति और भ्रष्ट उच्च सरकारी अधिकारियों की तिकड़ी कायम है, ऐसा होना लगभग नामुमकिन है.

13.12.2016

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