Friday, June 16, 2023

भूमध्यसागर में एक और जलपोत भयानक हादसे का शिकार

भूमध्यसागर में जलपोत के एक और भयानक हादसे ने सैकड़ों लोगों की जान ले ली है. इस बार यह हादसा यूरोप में यूनान के पास हुआ. ज्यादातर समाचारों में कम-से-कम 100 लोगों के मरने की आशंका जताई जा रही है, जबकि लंदन के अखबार "गार्जियन" में छपे एक लेख में मृतकों की संख्या 500 के आसपास होने का दावा किया गया है. 


दुनिया भर के अखबारों से पता चल रहा है कि बुधवार तड़के प्रवासियों से ठसाठस भरे कोई 20-30 मीटर लंबे मछली पकड़ने वाले जिस पोत का हादसा हुआ, उसमें जरूरत से ज्यादा यात्री थे. बताते हैं कि यात्रियों में अधिकांश पाकिस्तान, मिस्र, सीरिया के थे, जो अच्छे जीवन की तलाश में यूरोप की ओर पलायन कर रहे थे. यूरोपीय रेस्क्यू हेल्पिंग चैरिटी के अनुसार, यात्रियों की संख्या करीब 750 थी, तो संयुक्त राष्ट्र प्रवासी एजेंसी ने इसे 400 बताया है.

मध्य पूर्व, एशिया और अफ्रीका के गरीब और पिछड़े देशों से अच्छे जीवन की तलाश में भूमध्यसागर पार कर यूरोप जाते समय नावों पर सवार लोगों के साथ ऐसे हादसे पहले भी हो चुके हैं. इनमें ज्यादातर तुर्की से यूनान के रास्ते इटली तक का जोखिम भरा समुद्री मार्ग चुनते हैं और इस चक्कर में हर साल सैंकड़ों की तादाद में मारे जाते हैं. इटली ने इस साल अब तक यूरोप आने वाले 55,160 "अनियमित" प्रवासन के मामले दर्ज किए. इनमें ज्यादातर आइवरी कोस्ट, मिस्र, गिनी, पाकिस्तान और बांग्लादेश से हैं. 2022 के मुकाबले यह संख्या दोगुनी है.

संयुक्त राष्ट्र के प्रवासन से संबंधित अंतरराष्ट्रीय संगठन ने 2014 में जबसे लापता प्रवासी परियोजना शुरू की है, अनुमान है कि यूरोप पहुंचने का प्रयास कर रहे 27,000 लोगों को भूमध्य सागर पार करते समय मृत या लापता दर्ज किया जा चुका है. इनमें से 21,000 से अधिक मौतें भूमध्य सागर के बीचोबीच यूनान या इटली के रास्ते में हुई हैं, जिससे यह दुनिया में प्रवासियों को ढोने वाला सबसे खतरनाक मार्ग बन गया है. हाल ही के ऐसे हादसों में अभी फरवरी में तूफान के दौरान इटली के कैलाब्रिया तट पर प्रवासियों से भरी एक नाव चट्टान से टकराकर पलट गई थी, जिसमें 96 लोगों की मौत हो गई थी. जुलाई 2021 में भी अफ्रीकी शरणार्थियों को ले जा रही एक नाव लीबिया के तट पर पलट जाने से 57 लोग मर गए थे.

यूनानी प्रवासन मंत्रालय ने कहा है कि प्रवासियों के जीवन को खतरे में डालने का दोषी अंतरराष्ट्रीय तस्करी नेटवर्क है. लेकिन यह अधूरा सच है.

दीर्घकालीन नजरिये से देखें तो अच्छे जीवन की तलाश में पश्चिमी देशों का रुख करने वाले लोग अपने-अपने देशों में जिन मुश्किलों का शिकार हैं, उसका जिम्मेदार कॉर्पोरेट पूंजीवादी सिस्टम है जिसका दबदबा सारी दुनिया में है. ऐसे सिस्टम ने जलवायु और मनुष्य के लिए बेमिसाल यूरोप पैदा कर दिया है, जिसकी लपेट में आबोहवा के साथ-साथ आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक प्रणालियां भी आ गई हैं. इस सिस्टम में सत्ता चंद हाथों में सिमट गई है -- वह देश खुद को लोकतांत्रिक कहलाएं या फौजी डिक्टेटरशिप. ऐसे सभी देशों में आर्थिक संस्थाओं पर दुनिया भर में फैले चंद कॉर्पोरेट कारोबारी घरानों का कंट्रोल है, तो राजनैतिक संस्थाएं जन लोकतंत्र के बजाय राजनैतिक पार्टियों के प्रतिनिधियों का या फौजी गुटों का लोकतंत्र बन गई हैं, जिनमें फैसला लेने का अधिकार कॉर्पोरेट कारोबारी घरानों और उनके देसी प्रतिनिधियों के हितों को पूरा करने वाली विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के या फौजी गुटों के चोटी के नेताओं, बड़े नौकरशाहों और उनके चंद सलाहकारों को है.

राजनैतिक पार्टियों या फौजी गुटों के इसी प्रतिनिधि लोकतंत्र ने लगभग सभी पिछड़े देशों में अर्थव्यवस्था को बहुत बुरी हालत में पहुंचाकर जनता पर मुश्किलों का बोझ लाद रखा है. इसके अंतर्गत आम लोगों की हालत बद से बदतर होती जाती है. इनमें सबसे खराब हालत में छोटे उद्योगों या व्यापारिक संस्थानों के कामगार, दिहाड़ी मजदूर और किसान होते हैं. सरकारी कर्मचारी और छोटा-मोटा धंधा करने वाले दुकानदार भी परेशानी में रहते हैं. मुख्य रूप से अफ्रीका में और कुछ हद तक एशिया में अनेक देश ऐसे भी हैं, जहां लोकतांत्रिक आंदोलनों पर वहां के शासकों की गिरी गाज के चलते उन्हें देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया जाता है.

ऐसे में इन लोगों को बड़े-बड़े सब्ज बाग दिखाने वाला कोई भी शख्स या गिरोह उन्हें ज्यादातर अमानवीय स्थितियों में गैर-क़ानूनी तरीके से यूरोप के देशों में भेजने का बंदोबस्त करके मोटी रकमें ऐंठ लेता है. और इस तरह अनेक लोग यूनान जैसे हादसों के शिकार हो जाते हैं. इसके अलावा युद्ध, प्राकृतिक आपदा, जलवायु संकट, गरीबी, असमानता और खाद्य असुरक्षा के चलते भी लोग अपनी-अपनी जगह से पलायन करने पर मजबूर होते हैं. वैसे तो दुनिया में जिस तरह पूंजी का स्वतंत्र प्रवाह है, उसी तरह श्रम का प्रवाह भी स्वतंत्र होना चाहिए, लेकिन अभी दुनिया के इस हकीकत से दूर रहने के कारण ऐसा मुश्किल लगता है.  

बहरहाल, अल्पकालीन नजरिये से देखने पर यह प्रवासियों की समस्या का कोई ठोस समाधान न ढूंढ पाने को लेकर यूरोपी संघ की असफलता भी है. यूरोप के ज्यादातर देशों की यह संस्था कई साल से ऐसी नीति तय नहीं कर पा रही है कि सचमुच जरूरतमंद लोगों को किस तरह इन देशों में शरण दी जाए. इस तरह, यूरोपीय संघ की प्रवासन नीति ने भूमध्य सागर को जल समाधियों में बदल दिया है. लेकिन अजीब बात है कि हर साल हजारों लोग तस्करों की मदद से यूरोप में पहुंच जाते हैं.

कुल मिलाकर देखें तो युद्ध, प्राकृतिक आपदा, जलवायु संकट, गरीबी, असमानता और खाद्य असुरक्षा जैसे जो कारण बहुत से लोगों को यूरोप की तरफ जाने के लिए प्रेरित करते हैं, वे निकट भविष्य में अभी खत्म होने वाले नहीं हैं.




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