Monday, October 31, 2016

Collected Works of R.P. Saraf (Volume 3)


You can now open Collected Works of R.P. Saraf (Volume 3) by clicking the following link:
अब आप अंग्रेजी में आर.पी.सराफ की संकलित रचनाएं (खंड 3) को नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके खोल सकते हैं:
श्री आर.पी. सराफ की संकलित रचनाअों के इस तीसरे खंड में जनवरी 1995 से लेकर दिसंबर 1998 तक की उनकी रचनाएं हैं. जब उन्होंने ये लेख लिखे थे, वह चार साल का ऐसा दौर था जब वे और उनके साथी इंटरनेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक पार्टी के रास्ते के अधबीच थे. इस पार्टी का गठन उन्होंने मार्क्सवाद-लेनिनवाद को अलविदा कहने के बाद मध्य 1986 में किया था. इस विचारधारा को वे पंजाब यूनिवर्सिटी, लाहौर से अपनी औपचारिक शिक्षा पूरी करने के बाद 1946-47 से मानते आए थे.
यह वह दौर भी था जब सोवियत संघ के टूटने और समाजवादी खेमे के बिखर जाने पर दुनिया एकध्रुवीय प्रणाली के संक्षिप्त दौर के बाद एक बहुध्रुवीय प्रणाली की तरफ बढ़ रही थी; भारतीय राजनीति अस्थिर और अनिश्चित हालत में थी, जिसमें लोग सभी भ्रष्ट राजनैतिक गुटों से उकता चुके थे और 11वें तथा 12वें लोकसभा चुनाव भी हालात को सुधारने में नाकाम रहे थे; भारत और पाकिस्तान दोनों के परमाणु विस्फोटों ने दक्षिण एशियाई लोगों तथा विश्व समुदाय को झकझोर दिया था; विकास के लिए क्षेत्रीय सहयोग की अवधारणा एशिया में लोकप्रिय हो रही थी; और जम्मू-कश्मीर में एक अघोषित भारत-पाकिस्तान युद्ध विकसित हो रहा था.
इन सभी मुद्दों की चर्चा श्री सराफ ने इंटरनेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक व्यूपॉइंट में छपते रहे उस दौर के अपने लेखों में गहराई से की है. इस पत्रिका के वे शुरू से ही संपादक, मुद्रक और प्रकाशक थे. उन्होंने कई दूसरे विषयों पर भी अपने विचार प्रकट किए. इन चार साल के दौरान उनका फोकस भारत के राष्ट्रीय संकट पर रहा, जिसे राष्ट्रीय निर्माण की प्रक्रिया पर काबिज यहां के सत्तारूढ़ राजनैतिक दलों ने पैदा किया था. इसलिए उन्होंने भारत के पुनर्गठन के एजेंडे को लेकर खुद अपना खाका पेश किया. इसका मकसद भारत और दुनिया में एक न्यायसंगत और निष्पक्ष सामाजिक व्यवस्था कायम करना था, जो प्रकृति हितैषी और मानव हितैषी हो, वैज्ञानिक वास्तविकतावाद जिसका सामान्य दृष्टिकोण हो और वैश्विकता अथवा तर्कसंगत मानवतावाद जिसकी सामाजिक विचारधारा हो. श्री सराफ ने इस विषय पर कोई 15 लेख लिखे.
वैश्वीकरण की जारी प्रक्रिया और इसके निहितार्थ भी उनकी निगाह से नहीं बच पाए और उन्होंने मानव अंतरनिर्भरता और उसकी प्राथमिकताओं की मौजूदा स्थिति, मानव समाज का मौजूदा आचरण, अन्यायपूर्ण परमाणु अप्रसार संधि, परमाणु हथियारों के बारे में सही और गलत, मौजूदा दुनिया में लिंग असमानता, बहुध्रुवीय दुनिया में महाशक्तिवाद जैसे सवालों को उठाया.
वैश्वीकरण से उनका अभिप्राय: यह था कि मौजूदा राष्ट्रीय ढांचों में जरूरी बदलाव होने के साथ समूचा मानव समुदाय आखिर एक सामाजिक इकाई बनेगा. उनका कहना था, ‘‘इस प्रक्रिया के दौरान मनुष्य की सभी समस्याएं विश्व स्तर की हो जाएंगी. मनुष्य जाति इन्हें सुलझाने लगेगी तो एक तरफ मानव समाज के हितों और प्रकृति के बीच तथा दूसरी तरफ खुद मानव समाज के अंदर तर्कसंगत रूप से समरसता पैदा होगी. देशों के बीच और हरेक देश के अंदर ऊंच-नीच, अमीर-गरीब, लिंग असमानता और दूसरे फर्क न्यायसंगत तरीके से मिटेंगे. मानव समुदाय क्षेत्रवार या समूहवार नहीं बल्कि समूचे तौर पर समृद्ध होगा. यह गलत समझ है कि वैश्वीकरण के इस युग में कोई एक देश या एक ब्लॉक दूसरों पर हावी हो सकता है या पिछड़ेपन, गरीबी और अभाव के बीच समृद्धि पा सकता है. इस समय मनुष्य की सभी बुनियादी समस्याएं चूंकि विश्व स्तर की हो गई हैं, इसलिए हरेक देश उन्हें दूसरे देशों, खासकर पड़ोसियों, के साथ दोस्ती और सहयोग से ही सुलझा पाएगा.’’
दक्षिण एशिया और जम्मू-कश्मीर समस्या ने भी उनका ज्यादातर ध्यान आकर्षित किया क्योंकि यह इलाका दुनिया के चंदेक बड़े ज्वलंत मुद्दों में से एक था और अब भी है. इस पर उन्होंने लगभग दो दर्जन लेख लिखे.
उनका मानना था कि दक्षिण एशिया के विकास में सबसे बड़ी रुकावट जम्मू-कश्मीर को लेकर भारत-पाकिस्तान के बीच विवाद है. दूसरी रुकावटें हैं, छोटे देशों के बीच भारत को लेकर आशंकाएं, भारत और हरेक सार्क सदस्य के बीच द्विपक्षीय नाराजगियां, तथा भारत की हेकड़ी वाली ‘बड़े भाई’ जैसी भूमिका, जिसमें वह पहले भी छोटे देशों पर हावी होने की कोशिश करता रहा है. जहां तक जम्मू-कश्मीर समस्या का संबंध है, उन्होंने इसका न्यायोचित, निष्पक्ष और व्यवहार्य समाधान सुझाया जो एक तरफ भारत और पाकिस्तान दोनों के अपने-अपने राष्ट्रीय हितों को जोड़ता है, और दूसरी तरफ जम्मू-कश्मीर राज्य के सभी जातीय समूहों की आकांक्षाअों और चिंताअों को पूरा करता है.
इसके अलावा, उन्होंने उपमहाद्वीप में अल्पसंख्यकों की समस्याअों, मानवाधिकारों, पंजाब, भारत और पाकिस्तान के परमाणु विस्फोट, स्वंयसेवी संस्थाअों की भूमिका, सतत विकास में विज्ञान-टेक्नोलॉजी और इंजीनियरिंग की भूमिका, भारत की शुष्क भूमि और वनों का प्रबंधन वगैरह सरीखे सवालों की भी पड़ताल की. इन सभी और कई दूसरे मामलों को लेकर लेख इस किताब में शामिल हैं.

Tuesday, October 25, 2016

31 अक्तूबर -- सिख विरोधी दंगे

गत शुक्रवार को ‘‘31 अक्तूबर’’ से 10 दिन पहले ही इसी नाम की रिलीज हुई फिल्म मैंने देखी तो नहीं, लेकिन विभिन्न अखबारों में इसकी समीक्षाएं देखकर ही, पढ़कर नहीं, 32 साल पहले का सारा खौफनाक मंजर मेरी आंखों के सामने घूम गया. पंजाब में खालिस्तान आंदोलन और अमृतसर में सिखों के तीर्थस्थल हरमंदर साहब में ऑपरेशन ब्लूस्टार नामक सैनिक कार्रवाई की परिणति भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के दो अंगरक्षकों के हाथों उनकी हत्या में हुई थी.

स्वर्ण मंदिर पर सैनिक कार्रवाई यदि निंदनीय थी तो इंदिरा गांधी की हत्या भी निंदनीय थी. लेकिन उसके बाद जो हुआ वह नाकाबिले माफी है. सिख विरोधी दंगों का सबसे बड़ा नुक्सान यह हुआ कि आम लोग अंदर तक हिल गए. एक राष्ट्र अपने ही नागरिकों को बचाने में नाकाम  रहा. हत्या वाले दिन दिल्ली में छिटपुट वारदातें हुईं, लेकिन अमानुषिकता का यह महज ट्रेलर था. हत्याअों, आगजनी और लूट-पाट का असली दौर तो राजधानी और कई कांग्रेस शासित राज्यों में अगले दिन शुरू होकर तीन दिन तक चला.

उन दिनों मैं दिल्ली में राजनैतिक कार्यकर्ता हुआ करता था और दिल्ली यूनिवर्सिटी में कार्यरत, हिमाचल के अपने युवा तथा अति सौम्य कॉ. सुरजीत सिंह और हरियाणा के अक्खड़, बुजुर्ग राजनैतिक कार्यकर्ता जयनारायण वत्स (अब दिवंगत), जिन्हें प्यार से सब पंडित जी के नाम से बुलाते थे, के साथ यमुनापार के भजनपुरा में रहता था. माअो विचारधारा को त्यागकर हमें प्रॉलेतेरियत पार्टी बनाए कोई पौने दो साल हो चुके थे और आगे इंटनेशनिलस्ट डेमोक्रेटिक पार्टी बनाने में सोच-विचार और बहस-मुबाहिसे की प्रक्रिया में थे. दिल्ली यूनिवर्सिटी में अक्सर जाना होता था, जहां तब हमारे कॉ. नीलांबर पांडे (अब दिवंगत) विश्‍वविद्यालय की सशक्त कर्मचारी यूनियन के जनरल सेक्रेटरी हुआ करते थे.

31 अक्तूबर को पूरा दिन हम यूनिवर्सिटी में अफवाहों के बीच रहे और शाम को घर चले आए. मन में यह आशंका लिए कि अगले दिन कुछ अशुभ हो सकता है. बस्ती में भी लोग डरे-डरे-से थे. 1 नवंबर को सुबह उठते ही हमारी आशंकाएं सच में बदलने लगीं. करीब 8.30-8.45 बजे शोर मच गया कि साथ लगते गामड़ी और उसके आगे घोंडा, मौजपुर वगैरह में सिखों के घरों पर हमले हो रहे हैं. आगे जो होने जा रहा था, उसे नरसंहार की संज्ञा ही दी जा सकती है.

किसी ने कल्पना नहीं की होगी कि दिल्ली में तथाकथित सभ्य लोगों के बीच भी ऐसा हो सकता है. दोपहर बीतते-बीतते साथ सटी मध्यमवर्गीय कॉलोनी यमुना बिहार के अलावा दूरदराज की बस्तियों मसलन नंदनगरी, शाहदरा वगैरह से भी इसी तरह की वारदातें सुनने को मिलीं. गले में जलते टायर डाले आदमी को अपनी आंखों के सामने भीड़ की अोर से जिंदा जलाए जाते देखने और सुनने का एहसास कैसा होता है, पहली बार उस दिन ही जाना.

अब इसके अधिकांश परिस्थितिजन्य सबूतों और गवाहियों से साफ हो चुका है कि कांग्रेस ने सिखों को सबक सिखाने के लिए इसकी बड़े पैमाने पर जो तैयारी 31 अक्तूबर की रात को की थी, उसे अंजाम उसने दूसरे दिन सुबह से देना शुरू कर दिया. यह हिंदू-सिख दंगा नहीं था बल्कि सुनियोजित सिख विरोधी दंगा था, जिसमें कांग्रेसी नेताअों ने बड़े पैमाने पर अपने समर्थकों और लंपट वर्ग को पूरी तरह इस्तेमाल किया. इससे वे यह दिखाना चाहते थे कि उनकी दिवंगत नेता की कितनी जबरदस्त धाक है.

सरकारी और गैर सरकारी मीडिया ने भी इस दंगे के आयोजन का रास्ता सुगम किया. रेडियो-टीवी में सबसे पहले खबर दी गई कि प्रधानमंत्री की हत्या सिख अंगरक्षकों ने की. यही नहीं, शाम को टीवी ने तीनमूर्ति भवन में इंदिरा गांधी की अर्थी के गिर्द जुटी भीड़ को ‘खून का बदला खून से लेंगे’ नारे लगाते दिखाया. इसके लिए अफवाहों का अलग योगदान रहा. कहा गया कि सिखों ने प्रधानमंत्री की हत्या पर मिठाइयां बांटी हैं, पंजाब से हिंदुअों की लाशें भरकर कई ट्रेनें आई हैं, सिखों ने दिल्ली में जलापूर्ति प्रणाली में जहर मिला दिया है, वगैरह. किसी ने इन अफवाहों का खंडन नहीं किया.

कर्फ्यू लगाने और 2 नवंबर को सेना की तैनाती के बावजूद दंगे रुके नहीं. जाहिर है, उस दिन सेना भी कारगर नहीं रही. अगले दिन 3 नवंबर को जाकर जब इंदिरा गांधी का अंतिम संस्कार संपन्न हो गया तो दंगों पर काबू पाया जा सका. कांग्रेस समेत दंगाइयों के अलावा दो और उल्लेखनीय वर्ग थे. एक तथाकथित विरोधी दल थे जो उस दौरान एकदम कन्फयूज हो गए.

यहां तक कि दिल्ली में ही सबसे बड़े विरोधी दल का दम भरने वालों ने एक राजनैतिक दल के तौर पर सामने आकर दंगाइयों को रोकने की कोई कोशिश नहीं की. उनमें से तो कई अंदर से खुश थे कि सिख बहुत सिर पर चढ़ गए थे, अच्छा है उन्हें सजा मिल रही है. बहुत बाद में जाकर उनमें से कई राहत के काम में सक्रिय हुए.


दूसरे, आम लोग और स्वतंत्र किस्म के समूह थे, जिन्होंने अपनी थोड़ी ताकत के बावजूद दंगों के दौरान ही बहुत-सी जगह पीडि़तों को सुरक्षा मुहैया करवाई, उन्हें अपने घरों में छिपा लिया या उनके परिवारों में रहे और कई जगह भीड़ आने से पहले ही उन्हें उनके घरों से निकालकर सुरक्षित ठिकानों पर ले गए. तीन दिन हम भी घर नहीं जा पाए. कई मामलों में तो मुझे याद है कि पीडि़तों को सुरक्षित जगहों पर ले जाते हुए वे भीड़ के हाथों पिटे भी

Monday, October 24, 2016

Collected Works of R.P. Saraf (Volume 2)

You can now open Collected Works of R.P. Saraf (Volume 2) by clicking the following link:
अब आप अंग्रेजी में आर.पी.सराफ की संकलित रचनाएं (खंड 2) को नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके खोल सकते हैं:
श्री आर.पी. सराफ की संकलित रचनाअों के इस दूसरे खंड में जनवरी 1999 से लेकर अक्तूबर 2002 तक की उनकी रचनाएं हैं. यह वह दौर था जब नेचर-ह्यूमन सेंट्रिक विचार आकार ले रहे थे और दिसंबर 2002 में जन्मी नेचर-ह्यूमन सेंट्रिक पीपुल्स मूवमेंट का आधार तैयार हो रहा था.
प्रस्तुत खंड में वह लेख भी शामिल है, जिसमें यह जानने का प्रयास किया गया है कि मानव समाज में बदलाव और विकास कैसे होता है. दरअसल इसे 1947 से पहले के भारतीय इतिहास को माअोवादी नजरिये से प्रस्तुत करती श्री सराफ की 1974 में छपी मोटी किताब ‘द इंडियन सोसायटी’ का परिशिष्ट माना जा सकता है. यह लेख भारतीय इतिहास से संबंधित इस पुरानी किताब को नया नजरिया प्रदान करता है और इसमें श्री सराफ पांच ऐसी नई बातें सामने लाते हैं जो उसे दूसरे नजरियों से भिन्न करती हैं.
पहली बात, मानव समाज में बदलाव और विकास प्रकृति और मनुष्य समुदाय के दो कारकों की वजह से होता है. दूसरी बात, सामा‍जिक बदलाव और विकास एक तरफ प्रकृति तथा मानव समाज के बीच अंतरक्रिया और दूसरी तरफ समाज की विभिन्न मानवीय इकाइयों के बीच अंतरक्रिया से होता है; यह अंतरक्रिया एकता और संघर्ष की दोतरफा गति के रूप में होती है; एकता का नतीजा किसी घटनाक्रम के जुड़ने और संघर्ष का उसके टूटने में निकलता है; गति के दोनों रूप एक समग्र इकाई के दो अंग हैं, जिनमें से एक वक्त में एक प्राथमिक और दूसरा गौण भूमिका में होता है जबकि दूसरे वक्त में उनकी भूमिकाएं पलट जाती हैं. तीसरी बात, मनुष्यजाति या मनुष्य समुदाय की फितरत जैव-सामाजिक है जबकि प्रचलित सभी दृष्टिकोण मानवीय फितरत को या तो जैविक मानते हैं या सामाजिक. चौथी बात, प्रकृति की क्रमिक विकास प्रक्रिया से पैदा होने के कारण मानवजाति इस संसार में सर्वोच्च घटनाक्रम नहीं है; धरती पर दूसरे गैर मानवीय घटनाक्रमों के विकास के अपने नियम हैं; मानवजाति केवल दूसरी गैर मानवीय चीजों के साथ अंतरक्रिया करती है जिसमें वह कभी प्राथमिक और कभी गौण भूमिका में होती है. पांचवीं बात, संसार में कोई चीज परिपूर्ण नहीं होती; हर चीज लगातार बदलाव से गुजर रही है; वह देश-काल (स्थान-समय) विशेष में ही प्रासंगिक है.
प्रस्तुत खंड की अन्य खास बात यह है कि इसकी शुरुआत ही मार्क्सवाद, गांधीवाद, आरएसएस के हिंदुत्व और मंडलवाद पर श्री सराफ के अवलोकनों से होती है. ये चारों वैचारिक किस्में अंतरराष्ट्रीय नजरिये और भारत के विकास को ठीक तरीके से समझने में रुकावट बनती आई हैं. हालांकि उक्त पांचों लेख मूल रूप से सितंबर 1990 और नवंबर 1995 की अवंधि के दौरान प्रकाशित हुए थे, लेकिन सितंबर 2000 में वे कुछ संशोधित रूप में फिर उसी पत्रिका में प्रकाशित किए गए.
श्री सराफ की संकलित रचनाएं परंपरा से हटकर भी हैं. इस मायने में कि किसी व्यक्ति के संकलित लेखों की किताबें कालक्रम के अनुसार प्रकाशित होती हैं यानी पुरानी से शुरू करके नई अवधि तक छापी जाती हैं. लेकिन श्री सराफ की किताबों में इस अनुक्रम का पालन नहीं किया गया है. उनकी रचनाअों के पहले खंड में नवंबर 2002 से जून 2009 तक लेख थे तो दूसरे खंड में जनवरी 1999 से लेकर अक्तूबर 2002 तक हैं.

Collected Works of R.P. Saraf (Volume 1)



You can now open Collected Works of R.P. Saraf (Volume 1) by clicking the following link:
अब आप अंग्रेजी में आर.पी.सराफ की संकलित रचनाएं (खंड 1) को निम्नलिखित लिंक पर क्लिक करके खोल सकते हैं:
श्री आर.पी. सराफ की संकलित रचनाअों का यह पहला खंड है. लोक शख्सियत होने के कारण उन्होंने अपने जीवनकाल में हालांकि बहुत भाषण दिए और लिखा भी बहुत है, लेकिन फिलहाल हमने उनके ऐसे हालिया लेखों को ही चुना है, जो उन्होंने अपनी जिंदगी के आखिरी कोई आठ साल के अरसे में लिखे थे.
22 साल की उम्र में अपना लोक जीवन शुरू करने वाले श्री सराफ अच्छे वक्ता माने जाते थे और जम्मू-कश्मीर विधानसभा में अपनी 10 साल की कार्यावधि में उनके दिए भाषण इसकी गवाही देते हैं. दबे-कुचले लोगों के हिमायती के बतौर 50-55 से अधिक साल पहले उनका सामाजिक नजरिया एक ही वाकया से झलकता है, जो उन्होंने इस खंड के एक लेख में खुद ही बयान किया है. यह जम्मू-कश्मीर विधानसभा में सदरे-रियासत के चुनाव से संबंधित है, जिसके लिए श्री सराफ ने राज्य के सामंती महाराजा के वशंज डॉ. करन सिंह के मुकाबले सदन के एक अनुसूचित जाति सदस्य म्हाशा नाहर सिंह का नाम प्रस्तावित किया था.
पुराने जानकार और उनके राजनैतिक विरोधी तक भी यह कहेंगे कि वे विधानसभा में तथ्यों और आंकड़ों से लैस होकर आते थे. इस बात की पुष्टि उस जमाने की विधानसभा कार्यवाही से की जा सकती है. विधानसभा में अपने भाषणों के अलावा श्री सराफ उर्दू साप्ताहिक जम्मू संदेश के लिए भी लिखते थे, जिसके वे 1958 से लेकर 1967 तक, जब वह बंद हुआ, संपादक रहे. इन सभी लेखों और भाषणों के रिकॉर्ड ढूंढ़ने होंगे.
लेकिन 1973-2009 के दौरान उनके लेखों का रिकॉर्ड है, जिन्हें फिर से छापने के लिए ऐसे कोई 10 से अधिक खंडों की जरूरत है. मौजूदा खंड का प्रकाशन प्रकृति-मानव केंद्रित दृष्टिकोण के उद्देश्य के लिए मददगार होगा, जिसकी वकालत कॉ. सराफ ने अंतत: अपनी जिंदगी में की.
इस खंड के लेख श्री सराफ के स्थापित प्रकृति-मानव केंद्रित सिद्धांत और उसके मॉडल से सरोकार रखते हैं. नवंबर 2002 से लेकर जून 2009 तक रचे गए ये लेख ज्यादातर नेचर-ह्यूमन सेंट्रिक व्यूपॉइंट नामक पत्रिका में प्रकाशित हुए थे, जिसके वे संपादक, मुद्रक और प्रकाशक थे. इस सिद्धांत और मॉडल की उत्पत्ति उनके पहले के उन लेखों में पाई जा सकती है, जो श्री सराफ के ही संपादकत्व में निकलती रही पत्रिका इंटरनेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक व्यूपॉइंट में छप चुके थे.
इस तरह दिसंबर 2002 के अंत में उनके मार्गदर्शन में नेचर-ह्यूमन सेंट्रिक पीपुल्स मूवमेंट (एनएचसीपीएम) का गठन हुआ. इस आंदोलन की स्थापना की पृष्ठभूमि यह है कि श्री सराफ ने ऐडम स्मिथ के और मार्क्सवाद के पेश किए समाजशास्त्रों के सिद्धांत और व्यवहार का मूल्यांकन करके यह बताया कि ग्लोबल वार्मिंग अथवा जलवायु परिवर्तन की एक नई चुनौती पैदा हो रही है और उसके साथ चल रही विश्व कॉर्पोरेट पूंजीवादी व्यवस्था प्राकृतिक संसाधनों को फिजूल में उड़ा रही है तथा मौजूदा मानव समाज में अमानुषिकता को बढ़ा रही है. प्रकृति-मानव केंद्रित सिद्धांत सामाजिक विकास का नया सिद्धांत है, जो राष्ट्र-राज्यों की अंतरनिर्भरता की नई पैदा हो रही सामाजिक प्रक्रिया से दुनिया में नमूदार हुआ, जबकि पूंजीवादी अथवा उदारवादी और मार्क्सवादी सिद्धांत राष्ट्र-राज्यों पर आधारित सामाजिक व्यवस्था के जमाने में मौजूद सामाजिक हालात से पैदा हुए थे.
इससे पहले कॉ. सराफ इंटरनेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक व्यूपॉइंट (अप्रैल 1986-दिसंबर 2002), प्रोलेतेरियन व्यूपॉइंट (जनवरी 1983-मार्च 1986) और ए रेवोल्यूशनरी व्यूपॉइंट (जनवरी 1978-दिसंबर 1982) के दौरों से गुजर चुके थे, जिनसे प्रकृति और मानव समाज के बारे में उनकी उस समय की समझ झलकती थी.

Saturday, October 22, 2016

लेकिन कई सरहदों पर है खुलेआम आवाजाही भी

लेकिन कई सरहदों पर है खुलेआम आवाजाही भी
अपनी पिछली पोस्ट में मैंने कहा था कि काश! ऐसे गांव हर सरहद पर हों, जिनके आर-पार कोई भी आ-जा सकता है. आज की अंतरनिर्भर दुनिया में इसी तरह की सरहदों की जरूरत है ताकि जो पैसा सुरक्षा बलों और हथियारों पर खर्च किया जाता है वह प्रकृति के संरक्षण और मनुष्य की जिंदगी को सुधारने में लगे. लेकिन दुनिया में कॉर्पोरेट पूंजीवादी व्यवस्था को यह रास नहीं आता, जिसके लिए मुनाफा कमाना सबसे महत्वपूर्ण काम है. विकासशील और गरीब देशों को ही इस मामले में समझने की जरूरत है, जहां की लगभग सभी राजनैतिक पार्टियां कॉर्पोरेट पूंजीवादी व्यवस्था के हितों की पूर्ति में लगी हुई हैं. सारी सरहदें और युद्ध यहीं हैं. जरूरत ऐसा समाज बनाने की है जो प्रकृति हितैषी और मनुष्य हितैषी हो.
बहरहाल, मैं यूरोप के ऐसे ही कुछ सरहदी कस्बों / नगरों की फोटुएं पोस्ट कर रहा हूं, जिनके आर-पार आने-जाने में हमें कोई परेशानी नहीं हुई. लगा ही नहीं, हम तीन अलग-अलग देशों में घूम रहे हैं. पहली तीन फोटुएं एवियन नामक फ्रांसीसी कस्बे की हैं. यह हॉलिडे रेसॉर्ट स्विटजरलैंड और फ्रांस के बीच सीमा का काम देती लेक जेनेवा के पार स्थित है. यहां हम स्विटजरलैंड के चौथे सबसे बड़े शहर और इंटरनेशनल अोलंपिक कमेटी के मुख्यालय लॉवज़ैन से छोटे-से जहाज में बैठकर गए थे. पहली फोटो एवियन में बने युद्ध स्मारक (वॉर मेमोरियल) की है, तो दूसरी में हम एक बड़े बैंक के बाहर बैठे हैं और तीसरी पानी के उस स्रोत की है, जिसके लिए एवियन मशहूर है. पूरे यूरोप में इसी नाम से यह बोतलबंद पानी बिकता है.
चौथी फोटो स्विटजरलैंड के पार सीमा से 25-30 किमी इटली में स्थित महानगर मिलान की है, जिसे फैशन और डिजाइन के मामले में दुनिया का केंद्र माना जाता है. रेलगाड़ी में लॉवज़ैन से कोई 600 किमी दूर इटली में ही स्थित नहरों और पुलों से जुड़े 117 छोटे-छोटे द्वीपों मे पसरे वेनिस की ओर जाते हुए यह बीच का पड़ाव है.
पांचवीं फोटो लेक जेनेवा पार करके मोटरबोट से फ्रांस के ही 14वीं सदी के छोटे-से प्राचीन कस्बे यवोआ की ओर जाते समय की है. और छठी फोटो में हम जेनेवा और एवियन के बीच बसे यवोआ के टूरिस्ट ऑफिस के बाहर बैठे हैं.




काश! ऐसे गांव हर सरहद पर हों



काश! ऐसे गांव हर सरहद पर हों
सरहद का नाम आते ही भारतीयों को पाकिस्तान और चीन याद आते हैं और एक सरहद यह है, जहां लोगों को परवाह ही नहीं है कि वे किस देश के नागरिक हैं. लगभग सभी लोगों का नाम दोनों देशों की जनगणना में शामिल है. दुनिया में जितने भी बॉर्डर हैं, उनमें यह सबसे यूनिक है.
भारत-नेपाल की सरहद पर बसे ‘परसा’ नाम के इस गांव के बीचोबीच से होकर निकलती है सीमा रेखा. किसी के आंगन से होकर, तो किसी के खलिहान से होकर. मजा तो तब आता है, जब एक ही खूंटे से बंधे दो बैलों में से एक भारत में खड़ा होता है तो दूसरा नेपाल में. गांव के कई लोग तो इसी कन्फ्यूजन में रहते हैं कि उनका घर भारत में है या नेपाल में. ये ऐसा बॉर्डर है, जहां न तो कोई गेट है और न ही किसी तरह के तार लगे हैं. दोनों ही तरफ रोटी-बेटी के संबंध हैं.
यूरोप में भी ज्यादातर ऐसा ही दिखता है. कोई कहीं भी आ-जा सकता है. विडंबना है कि विश्व की कॉर्पोरेट पूंजीवादी व्यवस्था के तहत विकसित देशों में तो उन्होंने सीमा चारों तरफ से खुली रखी है, लेकिन विकासशील देशों को सीमाअों में बांधने का पूरा बंदोबस्त कर रखा है. इन देशों में वे लोगों को बांटने के सारे नुस्खों पर अमल करते आ रहे हैं. नतीजा यह है कि इन देशों को खरबों रु. हथियार खरीदने पर खर्च करने पड़ते हैं और कॉर्पोरेट पूंजीपतियों का मुनाफा इसी में से निकलता है.

Friday, October 21, 2016

एवियन इन्फ्लूएंजा (एच5एन1) यानी बर्ड फ्लू

हमारी सरकारें कैसे काम करती हैं, यह इसका सटीक उदाहरण हैं. अभी एक महीने से थोड़े दिन ही पहले यानी 14 सितंबर की बात है. उस दिन भारत सरकार के कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय ने जोर-शोर से घोषणा की थी कि 5 सितंबर, 2016 से भारत को एवियन इन्फ्लूएंजा (एच5एन1) यानी बर्ड फ्लू से मुक्त घोषित कर दिया गया है. यही नहीं, मंत्रालय ने इसकी सूचना दुनिया भर के 180 देशों में पशु स्वास्थ्य को सुधारने का काम कर रही अंतर-सरकारी संस्था वर्ल्ड आर्गेनाइजेशन ऑफ एनिमल हेल्थ (ओआइई) को भी दे दी.

लेकिन माह भर ही बीता था, खबर आ गई कि चिकनगुनिया और डेंगू के कहर से त्रस्त दिल्ली में बर्ड फ्लू ने दस्तक दे दी है. पक्षियों का इन्फ्लूएंजा नाम की यह बीमारी पक्षियों से ही एक-दूसरे में फैलती है और उनसे इंसानों या स्तनधारियों में होने वाला यह संक्रमण घातक होता है. 1997 में इंसानों में इसका पहला मामला पता चलने के बाद इसके संक्रमण का शिकार हो चुके 60 फीसदी लोग मर चुके हैं. यह बीमारी पाए जाने के बाद दिल्ली का चिड़ियाघर और फिर डियर पार्क भी बंद कर दिया गया है. लेकिन ओखला पक्षी विहार, यमुना बायोडायवर्सिटी पार्क, नजफगढ़ ड्रेन और गाजीपुर स्थित मुर्गा मंडी में इसका खतरा बना हुआ है.

यह एक घटना बताती है कि हमारे यहां कार्पोरेट पूंजीवादी व्यवस्था में लापरवाही किस कदर कूट-कूटकर भरी हुई है. इस व्यवस्था में न सिर्फ केंद्र बल्कि राज्य सरकारें भी आती हैं. और उन पर काबिज राजनैतिक पार्टियों और उनके नेताअों को न तो प्रकृति को बचाने से मतलब है और न इंसान को. उन्हें कार्पोरेट पूंजीपतियों के हित साधने से ही फुर्सत नहीं मिलती. इसकी वजह भी है क्योंकि चुनावों में पैसा उन्हीं से मिलता है. एक तरफ राजनैतिक पार्टियां और उनके नेता तथा दूसरी तरफ कार्पोरेट पूंजीपति एक-दूसरे के हितों की रक्षा करते हैं और इस कथन पर खरे उतरते हैं कि तुम मेरी पीठ खुजाअो, मैं तुम्हारी खुजाऊंगा.

गौरतलब है कि कृषि मंत्री के पद पर इस समय बिहार से पांचवीं बार लोकसभा में चुनकर आए भाजपा के राधा मोहन सिंह सरीखे सज्जन बिराजमान हैं. ये वही राधा मोहन हैं, जिन्होंने पिछले साल देश में 1,400 किसानों की आत्महत्याअों को लेकर एकदम संवेदनाहीन बयान दिया था. उनका कहना था कि ये आत्महत्याएं प्रेम संबंधों और नपुंसकता के चलते हुई हैं. 



Sunday, October 16, 2016

जुआन मैनुएल सांतोस को नोबेल शांति पुरस्कार


करीब 52 साल से युद्ध लड़ रहे एक देश में शांति कायम करना निश्चय ही आसान काम नहीं था. लेकिन जुआन मैनुएल सांतोस ने दिखा दिया है कि ऐसी मुश्किलों को पार किया जा सकता है. इसीलिए साल 2016 के लिए नोबेल शांति पुरस्कार उन्हें दिया गया है.
उनके प्रयासों के चलते कोलंबिया में अमन की घोषणा होने ही वाली है. और उनका सीखा सबक बाकी दुनिया के लिए एक मिसाल है. सांतोस का कहना था, ‘‘बहुत कुछ गंवाने के बाद हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि युद्ध से महज बर्बादी होती है. लिहाजा इस दुनिया में किसी तरह का युद्ध नहीं होना चाहिए.’’
छह साल पहले जब वे कोलंबिया के राष्ट्रपति निर्वाचित हुए थे, उन्होंने ठान लिया था कि वे हर हाल में गृहयुद्ध समाप्त करवा के रहेंगे, जिसमें करीब 2.5 लाख लोग मारे गए, 69 लाख विस्थापित हुए और 45 हजार लापता हो गए. कोलंबिया सरकार और विद्रोही संगठन रिवॉल्यूशनरी आर्म्ड फोर्सेस ऑफ कोलंबिया (फार्क) के बीच चलते आ रहे खूनी संघर्ष से देश के माहौल में जहर घुल गया था.
लोगों में फार्क और उसके समर्थकों को लेकर जबर्दस्त गुस्सा था. कोलंबियाई सेना और विद्रोहियों के बीच घोर नफरत थी. जब भी सरकार और विद्रोहियों में बातचीत होती, दोनों तरफ की हठधर्मी के चलते वह सिरे नहीं चढ़ पाती. मानवीय त्रासदी की तरफ किसी का ध्यान नहीं था, दोनों पक्ष अपने को ही सही ठहराने पर अड़े रहते.
लेकिन सांतोस को संतोष नहीं था. किसी तरह वे देश को इस मानवीय त्रासदी से निकालना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने सबसे पहले सेना को अपनी बात समझाई, जो शुरू से विद्रोहियों से संघर्ष करती आ रही थी. उसी को इस संघर्ष में सबसे ज्यादा जानी और माली नुक्सान पहुंच रहा था. उनका कहना था कि युद्ध से देश को कुछ हासिल नहीं होगा. दोनों तरफ से लोग ऐसे ही मारे जाते रहेंगे.
उन्होंने विद्रोहियों को भी राजनैतिक प्रक्रिया में शामिल करने की बात कही और तर्क दिया कि वे अपने हथियारों से लोगों को मारते रहें, इससे अच्छा है कि उन्हें भी इस प्रक्रिया में शामिल होने का मौका दिया जाए. साथ ही उन्होंने विद्रोहियों से हथियार डालने की भी अपील की.
उनके प्रयास रंग लाए और गत माह फार्क और सरकार के बीच समझौता हुआ जिससे कोलंबिया में लंबे अरसे से चला आया गृहयुद्ध समाप्त हो गया. अब सिर्फ एक अन्य छोटे-से विद्रोही गुट से भी उनकी बात सिरे चढ़ने वाली है और इस तरह यह शांति प्रक्रिया मुकम्मल होने को है.
सांतोस का कहना है, ‘‘जब हम हिंसा में शामिल होते हैं, तो हमारा दयाभाव खत्म हो जाता है. हम दूसरों का दर्द महसूस करना भूल जाते हैं. इसलिए दुनिया के किसी कोने में हिंसा को मंजूरी नहीं मिलनी चाहिए.’’ काश! बाकी दुनिया भी कोलंबिया के अनुभव से कुछ सीख पाए.
https://www.nobelprize.org/…/lau…/2016/santos-interview.html
Pix credit: Noticias de Colombia

भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध के मंडराते बादल

(यह पेपर जम्मू-कश्मीर के साम्बा में 16 अक्तूबर 2016 को एनएचसीपीएम के हो रहे एक सेमिनार में प्रस्तुति के लिए है;
इसकी मूल प्रस्थापनाएं नेचर-ह्यूमन सेंटरिक पीपुल्स मूवमेंट के संस्थापक कॉ. रामप्यारा सराफ के लेखों से हैं.)

भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध के मंडराते बादल
दोनों देश सीमा पर स्थिति शांत करें और कश्मीर समेत सभी समस्याओं को बातचीत से सुलझाएं
œम प्रकाश सराफ
पिछले एक माह से भारत-पाकिस्तान सीमा पर जबर्दस्त तनाव है. आशंका है, यह तनाव कभी भी युद्ध की शक्ल अख्तियार कर सकता है. 18 सितंबर को ऊड़ी में हिंदोस्तानी फौज के एक कैंप पर कुछ दहशतगर्दों के हमले से शुरू हुआ यह तनाव 28 सितंबर को एकदम शिखर पर जा पहुंचा जब नियंत्रण रेखा के पार जाकर भारतीय फौज के सर्जिकल स्ट्राइक्स से माहौल गरम होने लगा और सार्क शिखर सम्मेलन को रद्द करना पड़ा.
इससे दोनों देशों में जंगबाजों को शह मिली और वे युद्ध के अलाव धधकाने में लग गए. दोनों तरफ अंधराष्ट्रवाद के गोले दागे जा रहे हैं. कहा जा रहा है कि इस तनाव को दूर करने का एक ही रास्ता है और वह है हथियारबंद लड़ाई. यहां तक कि युद्ध में परमाणु हथियार इस्तेमाल करने तक की धमकियां भी दी जा रही हैं.
सीमावर्ती इलाकों में तो युद्ध जैसा माहौल दिखने भी लगा और अफरातफरी फैला दी गई है. गांव के गांव खाली कराने के आदेश चाहे बाद में कई जगह लागू नहीं किए गए, लेकिन नतीजे में भारत में ही कोई पांच लाख लोग अपने घर-बार-खेत-खलिहान छोड़कर दूसरी जगहों पर कूच करने को मजबूर हुए. युद्ध की तैयारियां शुरू हो गई हैं.
यह फसल का समय है और ऐसे में किसानों की मुश्किलों का अंदाजा लगाया जा सकता है. बारूदी सुरंगें बिछाई जाने लगी हैं. सीमा पर रहने वाले किसानों का अपनी जमीनों पर जाना मुहाल होने लगा है और कई बार तो इन बारूदी सुरंगों की वजह से उनकी जान भी चली जाती है. बदकिस्मती यह है कि न तो उनकी कोई खबर बनती है, न राजनैतिक नेता उनकी मौत पर अफसोस जाहिर करते हैं और न ही उन्हें शहीद का दर्जा दिया जाता है. राजनैतिक पार्टियों को इंसान की बर्बादी नहीं दिखाई देती. उनका काम सिर्फ जुनून फैलाना है, जिसका शिकार आम आदमी होता है.
हालांकि दोनों पड़ोसियों की सेनाएं सीमा पर एकदम आमने-सामने नहीं पहुंची हैं, फिर भी इसकी संभावना है, इस बात से पूरी तरह इनकार नहीं किया जा सकता. लेकिन अगर यह संभावना हकीकत में बदल गई तो नतीजा दोनों तरफ सिर्फ मौत और बर्बादी के रूप में ही निकलेगा. यही नहीं, दोनों देश परमाणु हथियारों से लैस हैं और अगर यह लड़ाई परमाणु युद्ध में तब्दील हो गई तो कुल मिलाकर प्रकृति और मनुष्य के लिए बहुत ही नुक्सानदेह साबित होगी. इनमें न सिर्फ फौजी मारे जाते हैं और उनके परिवार तबाह होते हैं, बल्कि आम आदमी को भी लंबे समय तक खामियाजा भुगतना पड़ता है. इसलिए दोनों पड़ोसियों का युद्ध में उतरना कतई उचित नहीं है.
अंदाजा है कि अगर भारत-पाकिस्तान में परमाणु युद्ध हुआ और दोनों ने अगर कुल मिलाकर अपने परमाणु भंडार के आधे यानी करीब 100 बम1 भी (हरेक बम हिरोशिमा पर चले 15 किलोटन के बराबर हो तो) चला दिए तो उससे एक हफ्ते के अंदर दोनों देशों की 2.1 करोड़ इंसानी जानें चली जाएंगी.2 जो लोग बच जाएंगे, वे कई तरह की बीमारियों का शिकार होंगे. यही नहीं, दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी कोई दो अरब लोगों के भुखमरी की कगार पर पहुंच जाने का खतरा3 पैदा हो जाएगा.
प्रकृति के लिहाज से देखें तो इससे आसमान पर हमें सूरज की अल्ट्रावॉयलेट किरणों की वजह से जलने से बचाए रखने वाली ज़ोन गैस की करीब आधी परत तबाह हो जाएगी. नतीजा यह होगा कि दुनिया भर में मानसून का भट्ठा बैठ जाएगा और खेती का तो मूलत: नाश हो जाएगा.4 जंगलों के जंगल तबाह हो जाएंगे. इसके साथ ही करोड़ों पशु-पक्षी फौरन झुलस जाएंगे. और जो बचे रह जाएंगे, उनके लिए न कोई चारा मिलेगा, न ही पानी.
मान लें कि अगर परंपरागत युद्ध भी होता है तो उसके खर्च के बोझ से भारत और पाकिस्तान दोनों की कमर दोहरी हो जाएगी. पिछले पैमाने से देखें तो 1999 में सिर्फ पहाड़ों तक सीमित रहे करगिल के युद्ध पर ही भारत का दो हफ्ते में लगभग 10,000 करोड़ रु. और हफ्‍ते भर में 5,000 करोड़ रु. खर्च आया था.5 लेकिन आज वैसा युद्ध लड़ने पर अंदाजा है कि एक दिन में ही 5,000 करोड़ रु. लग जाएंगे. अगर युद्ध 20 दिन भी चला तो यह खर्चा एक लाख करोड़ रु. (यानी 100 अरब रु.) से ज्यादा बैठेगा. जिस विदेशी पूंजी को लाने के लिए हमारे राजनैतिक नेता बड़ी ताकतों के तलुवे चाटने में दिन-रात एक किए रहते हैं, युद्ध की वजह से उसमें भारी कटौती आ जाएगी. नतीजा यह होगा कि एक अमेरिकी डॉलर की कीमत जो आज 66-67 रु. है, करीब 100 रु. हो जाएगी.
पहले के युद्ध भी कभी लोगों के हित में नहीं रहे हैं. हम 1962 के बाद ही देखते हैं. तब चीन से युद्ध हुआ था. उसके बाद भारत की अर्थव्यवस्था महज दो फीसदी6 की रफ्तार से घिसटने लग गई थी. फिर 1965 में पाकिस्तान से युद्ध हुआ और उसका नतीजा यह निकला कि हमारी विकास की दर नेगेटिव चली गई. तब बढ़ोतरी की रफ्तार न सिर्फ थम गई ‍बल्कि 3.7 फीसदी घाटे में चली गई. 1971 के युद्ध के बाद भारत भले ही पाकिस्तान के दो टुकड़े करने में कामयाब हुआ, पर हमारी विकास दर फिसलते-फिसलते 0.9 फीसदी रह गई. 1999 में करगिल की लड़ाई में अरबों रु. बर्बाद हो गए.
2001 में भारत की संसद पर आतंकवादी हमला हुआ तो तब भी युद्ध के बादल गड़गड़ाए थे. उस समय एनडीए की सरकार ने सात लाख भारतीय सेना को नौ माह तक सीमा पर बैठाए रखा था. पाकिस्तान ने भी ऐसा ही किया था. दुनिया के मामलों पर काम करने वाले भारत के ही एक थिंक टैंक स्ट्रैटेजिक फोरसाइट ग्रुपके एक अध्ययन के अनुसार, भारत ने दिसंबर 2001 से जनवरी 2002 के बीच महज एक माह में इस सारे सिलसिले पर 40 अरब रु. खर्च किए थे, तो पाकिस्तान ने 42 अरब रु. खर्च किए. 7
यह सारा पैसा जनता से ही वसूल किया जाता है. करगिल की लड़ाई की ही मिसाल लें. उसके बाद भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए लगातार दो साल तक सभी टैक्सों पर पांच फीसदी सेक्युरिटी सरचार्ज लगा दिया था. पाकिस्तान को भी इसी तरह के इंतजाम करने पड़े. उसने अपने बंदरगाहों का इस्तेमाल करने वाले जहाजियों और बीमा कंपनियों से बड़े पैमाने पर वॉर रिस्क सरचार्जकी उगाही की.
दोनों देशों की विकास दर गिर गई और उन्हें फौज पर भी खासा खर्च बढ़ाना पड़ा. पाकिस्तान ने अपनी कुल जीडीपी का 24 फीसदी तक हिस्सा फौज के तामझाम जुटाने पर खर्च किया, तो भारत ने 15 फीसदी. फिर भी जंगबाज इसे नाकाफी बताते रहते हैं. न तो उनकी और न ही राजनैतिक नेताओं की नजर लोगों की खस्ताहाल जिंदगी पर पड़ती है. उन्हें यह नहीं दिखता कि अभी भी भारत की 15 फीसदी और पाकिस्तान की 22 फीसदी जनता को भरपेट खाना तक नहीं नसीब होता.8 करीब 25 लाख बच्चे हर साल कुपोषण की वजह से जान गंवा देते हैं.9 कितने लोग दवा के बिना सिसकते हुए मर जाते हैं. देश में हर 11,000 लोगों पर एक डॉक्टर उपलब्ध है.10 कितने बच्चों और नौजवानों को पढ़ाई के मौके मयस्सर नहीं होते. 2011 के जनगणना के अनुसार, भारत में 18 साल से कम उम्र के 44.4 करोड़ बच्चों में से 10 करोड़ स्कूल नहीं जा पाते और 2014-15 के आंकड़े बताते हैं कि हर 100 में से 32 बच्चे ही अपनी स्कूली शिक्षा ठीक उम्र में पूरी कर पाते हैं.11 भारत के 56 करोड़ लोग यानी 44 फीसदी आबादी खुले में शौच करने को मजबूर हैं.12
मानव विकास से संबंधित यह आंकड़े तो युद्ध से पहले के हैं. अगर युद्ध होता है तो मानव विकास सूचकांक यानी एचडीआइ के हिसाब से भारत और पाकिस्तान दोनों की हालत और पतली होगी. 2015 के आखिर में 188 देशों में भारत की हैसियत 130वें नंबर पर थीजबकि पाकिस्तान 142वें नंबर पर था.13 एचडीआइ किसी देश की बुनियादी इंसानी तरक्की में उपलब्धियों का औसत माप है. यानी यह बताता है कि वहां लोगों की जिंदगी कितनी लंबी और कितनी सेहतमंद होती है, उनमें शिक्षा का स्तर क्या है और उनके रहन-सहन का क्या स्तर है. विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, भारत की 12.4 फीसदी आबादी14 अभी भी गरीबी रेखा के नीचे रहती है, और पाकिस्तान तो और भी पीछे है. उसकी लगभग 29.5 फीसदी आबादी15 गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करती है. 
ऐसे में युद्ध की बात जागरूक लोगों को हमेशा परेशान करती है. ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में भी जब इंसान के ‍विभिन्न समूहों में सीधे आपसी विचार-विमर्श के साथ आपसी मेलजोल में बेमिसाल इजाफा होने के चलते पूरी दुनिया मानसिक और भौतिक तौर एक इकाई बन गई है और देशों में एक-दूसरे पर अंतरनिर्भरता बढ़ गई है, युद्ध की बात ठीक नहीं लगती. आज युद्ध सिर्फ़ दो देशों की फौजी ताकत का टकराव ही नहीं रहा है. एक युद्ध के पीछे अनेक ताकतें सरगर्म होती हैं. आज भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध से एक बड़ा खतरनाक सिलसिला जन्म ले सकता है जो दक्षिण एशिया और पश्चिम एशिया ही नहीं, चीन और अमेरिका तक को अपनी लपेट में ले सकता है. ऐसी दुनिया में हर समस्या का हल बातचीत से निकलना चाहिए, युद्ध से नहीं.
लिहाजा देश के जागरूक शहरी होने के कारण हम अपनी आने वाली पीढि़यों को परमाणु सर्वनाश की तरफ नहीं धकेल सकते. न ही युद्ध का रास्ता चुनकर हम अपनी अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचा सकते हैं? युद्ध इंसानियत के लिए हमेशा खतरनाक साबित हुए हैं. उनसे कोई मसले हल नहीं होते. वे आम आदमी के लिए हमेशा तबाही और मुसीबत लाते हैं. ये जिम्मेदारी दोनों देशों के नेताओं की है कि वे बैठकर बातचीत से मसले को सुलझाएं.
उधर, दुनिया के हालात को देखें तो सुपर पॉवर्स के बीच भी तनातनी बढ़ रही है. बहुध्रुवीय दुनिया के बाद एकध्रुवीय दुनिया का दौर लगता है अब बीत गया. दुनिया फिर से दो ध्रुवों में बंट गई लगती है. इसमें ताकतों के नए पैदा हो रहे संतुलन को देखें. स्थिति यह है कि हर लिहाज से अव्वल सुपर पॉवर माना जाता अमेरिका आज दूसरे नंबर की आर्थिक सुपर पॉवर बने चीन को संसार में कोई कारगर राजनैतिक भूमिका निभाने से रोकने की हर संभव कोशिश कर रहा है. लेकिन चीन अकेला नहीं है. उसके साथ बड़ी परमाणु ताकत के रूप में रूस भी खड़ा है, जो सीरिया में अमेरिका समर्थित सेनां से सीधा उलझा हुआ है. दूसरी तरफ, अमेरिका के साथ उसके परंपरागत मित्र –- ब्रिटेन, फ्रांस वगैरह हैं. दुनिया में आज ये दो खेमे बन गए हैं. आर्थिक तौर पर देखें तो दोनों की हालत खस्ता होती जा रही है. दोनों ही दुनिया भर के बाजारों, कच्चे माल और सस्ती मेहनत को अपने नियंत्रण में लाने के लिए होड़ कर रहे हैं ताकि अपनी-अपनी गिरती हुई अर्थव्यवस्था को संभाल सकें.
 दोनों के पास जबर्दस्त हथियार हैं -- परमाणु बम, हाइड्रोजन बम और न जाने क्या-क्या. इसके बावजूद खुद दोनों खेमे सीधा सैनिक जोखिम उठाने की हिम्मत शायद ही करें. उन्हें पता है, उन हथियारों के इस्तेमाल से उनका अपना वजूद भी खत्म हो सकता है. और यही नहीं. आज की दुनिया में चूंकि व्यापार, पूंजी निवेश र टेक्नोलॉजी लेने-देने संबंधी कार्पोरेट पूंजीवादी प्रक्रियाओं की फितरत विश्व स्तर की हो गई है और इसकी वजह से दोनों खेमों ने एक-दूसरे की अर्थव्यवस्था में बहुत ज्यादा निवेश कर रखा है, इसलिए वे उसे खतरे में नहीं डालेंगी. लेकिन दुनिया के हर इलाके में जहां-जहां भी तनाव है, वो अपने-अपने दोस्तों के जरिए सीमित ही सही, परोक्ष युद्ध (Proxy War) तो कर ही सकती हैं.
दक्षिण एशिया में भी दोनों खेमों के बीच तेज हो़ड़ चल रही है. चीन को घेरने की अपनी नीति के तहत अमेरिका यहां अनेक फौजी और कूटनीतिक चालें चलता आ रहा है. उसकी काट के लिए चीन अपनी गोटियां बिछाता आ रहा है. भारत और पाकिस्तान के बीच यहां कश्मीर मसले पर अरसे से विवाद चले आने की वजह से दोनों खेमे टकराव को बढ़ावा देने में लगे हैं. सब जानते हैं कि नई दिल्ली में सरकार के बदल जाने के बाद से भारत अमेरिकी खेमे के ज्यादा निकट हो गया है. बहुत पहले शुरू हुई यह प्रक्रिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हाल ही की अमेरिका यात्रा के बाद तो चरम पर पहुंच गई है. अपनी जवाबी चालों के तहत नेपाल पर चीन का शिकंजा कस रहा है और पाकिस्तान आज उसकी अधिक मुट्ठी में है. कुछ समय से रूस भी पाकिस्तान के साथ सहयोग करने को तत्पर दिखा है. बांग्लादेश और श्रीलंका पर चीन का दबदबा कायम है.
दुनिया में ऐसी स्थिति को देखते हुए भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत का होना और भी जरूरी है. आप सब जानते हैं कि जब भी भारत-पाकिस्तान में युद्ध हुआ है, आखिर में क्या होता आया है. 1948 में जम्मू-कश्मीर पर कबायली हमले और पाकिस्तान के फौजी दखल के बाद दोनों को यूएन के प्रस्ताव के बाद युद्धविराम का ऐलान करना पड़ा. 1965 में युद्ध के बाद ताशकंद समझौता हुआ, 1971 में युद्ध हुआ तो उसका अंजाम भी शिमला समझौते में निकला. और अब भी अगर युद्ध हुआ तो आखिरकार समझौते की मेज पर ही बैठना पड़ेगा. वैसे, अभी भी दोनों देशों के डीजीएमओ में बातचीत का सिलसिला तो जारी है. जरूरत इसे उच्चतर स्तर पर करने की है.  
लेकिन आखिर भारत-पाकिस्तान के बीच क्या मसला है जो 70 साल में भी नहीं सुलझ पाया. जाहिर है, यह जम्मू-कश्मीर का तितरफा मसला है. भारत जम्मू-कश्मीर को अपना अटूट अंग मानता है, जबकि पाकिस्तान उसे अपनी शाह रग मानता है. उधर, कश्मीर के लोगों की कई साल से आहत हो रही भावनाएं आज उफान पर पहुंच गई हैं. तीन माह से कश्मीर में लोग अपनी लड़ाई सुरक्षा बलों के साथ गलियों-सड़कों पर लड़ रहे हैं. 100 से अधिक जानें जा चुकी हैं और 10,000 से कुछ कम लोग जख्मी हो चुके हैं. यह इंसानियत के कत्ल से कम नहीं है. फिर भी भारत और पाकिस्तान ने यूएनकी जनरल असेंबली में एक-दूसरे को डराने-धमकाने के लिए इस मसले को राजनैतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया.
और फिर अचानक ऊड़ी में फौज के एक कैंप पर हुए हमले ने कश्मीर में चल रही जद्दोजेहद से ध्यान मोड़कर युद्ध की तरफ कर दिया. ऊड़ी में जो 24 जानें गईं, वो भी इंसान थे और उन पर भी पूरी इंसानियत को शोक मनाना चाहिए. वहां हुआ हमला भी निंदायोग्य है. लेकिन हिंसा और नफरत का जो कल्चर बन गया है, आखिर उसकी जिम्मेदारी किसकी है?
यह तो जानी-मानी हकीकत है कि घाटी में विभाजन के वक्त से ही अलगाव की भावना चली आ रही है और वह दिन-ब-दिन बढ़ रही है. इसके लिए भारत की राजनैतिक व्यवस्था, पाकिस्तान की राजनैतिक  व्यवस्था और कश्मीर के आजादी समर्थक सभी गुट कमोबेश जिम्मेदार रहे हैं जिन्होंने अपने सिद्धांत और व्यवहार से लोगों के विभिन्न संप्रदायों को एक-दूसरे के खिलाफ भड़काया और कश्मीरी लोगों के उचित संघर्ष को या तो कुचला या सही दिशा में नहीं जाने दिया.
तो अलगाव की इस भावना का क्या हल कैसे निकाला जाएगा? क्या यह सेना के जरिए लोगों को दबाकर किया जाएगा? कश्मीरी कह रहे हैं, वो आज़ादी चाहते हैं. यह तो सीधा-सादा राजनैतिक मामला है. और इतिहास गवाह है कि राजनैतिक मामले बिना बातचीत के हल नहीं होते? भारत सरकार भी इसे 70 साल से सुरक्षा बलों के जरिये हल करने की कोशिश करती चली आ रही है. नहीं हल कर पाई.
बीच-बीच में सरकार में बैठे लोग कहते भी रहते हैं कि वे बातचीत करना चाहते हैं, पर करते नहीं. इससे भारत में चाहे किसी पार्टी की सरकार रही हो, उसकी नीयत पर ही शक होता है. दरअसल, उन सभी पार्टियों का यह खेल है. कश्मीर में और कश्मीर को लेकर जितना तनाव रहेगा, देश में उतना ही सांप्रदा‍यिक ध्रुवीकरण होता रहता है. इससे कांग्रेस तथा सेक्यूलर पार्टियां भी राजनैतिक फायदा उठाती रहीं और भाजपा तथा फिरकापरस्त पार्टियां भी. पहले किस्म की पार्टियां मुसलमानों में खौफ पैदा करके और दूसरी पार्टियां मुसलमानों का खौफ बनाकर.
तो यह तितरफा मसला बना कश्मीर ही इस उपमहाद्वीप में तनाव की वजह है. यहां स्थायी शांति के लिए बेहतर यह है कि दोनों देश युद्ध का रास्ता छोड़ दें और कश्मीरी लोगों को साथ लेकर बातचीत के रास्ते पर आगे बढ़ें. लिहाजा जरूरी है कि दोनों देश अपनी सरहदों पर हालात को शांत करने के लिए फौरन कदम उठाएं, और विभाजन के बाद से दोनों देशों को सताती आ रही जम्मू-कश्मीर समस्या को शांतिपूर्ण तरीके से हल करने के लिए आपस में तय करके दोतरफा या तितरफा बातचीत शुरू करने की तरफ आगे बढ़ें.
हम अपनी तरफ से कुछ ऐसे फॉर्मूले सुझा रहे हैं जिन पर जम्मू-कश्मीर मसला हल करने के लिए भारत, पाकिस्तान और जम्मू-कश्मीर के लोग सहमत हो सकते हैं. ये सूत्र हैं: किसी तरह के फौजी हल की हिमायत न करना तथा शांतिपूर्ण समाधान का रास्ता चुनना; भारत-पाकिस्तान के बीच ‘‘युद्ध न करने’’ का समझौता करना; हर देश की एकता और अखंडता की गारंटी देना; जम्मू-कश्मीर को भारत का ‘‘अटूट अंग’’ मानने या उसे पाकिस्तान की ‘‘शाह रग’’ समझने सरीखे पहले से ही सोचे विचारों पर जोर न देना; जम्मू-कश्मीर में हिंसा में कमी लाना, अपमान की घटनाओं तथा मानवाधिकारों के उल्लंघन पर रोक लगाना; जम्मू-कश्मीर को लेकर सभी सांप्रदायिक समाधान खारिज करना; और, जम्मू-कश्मीर समस्या को संबंधित सभी पक्षों के हितों में तालमेल से सुलझाना और उनका साझा भविष्य तलाश करना.
हमारा यह भी मानना है कि 70 वर्ष से चली आ रही जम्मू-कश्मीर की जटिल समस्या तीन पक्षों के बीच की समस्या है और इसका माकूल, काबिलेअमल और समझदारीभरा हल निकालने के लिए निम्नलिखित सात कदम उठाए जा सकते हैं:
1.       भारत और पाकिस्तान की राष्ट्रीय आकांक्षाओं और हितों को पूरा करने के लिए भारत-पाक कंडोमिनियम नाम का संवैधानिक निकाय बनाकर उसे जम्मू-कश्मीर से संबं‍धित रक्षा, विदेशी मामलों और मुद्रा के तीन सबसे अहम विषयों का संयुक्त जिम्मा सौंपा जाए.
2.       भारतीय प्रशासन के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर में रहने वाले लोगों की क्षेत्रीय आकांक्षाओं और हितों को पूरा करने के लिए इस इलाके को एक स्वतंत्र संघीय राज्य बना दिया जाए जो रक्षा, विदेशी मामलों और मुद्रा को छोड़कर बाकी सभी मामलों का कामकाज देखे. इसके अंतर्गत लद्दाख, कारगिल, कश्मीर घाटी, जम्मू क्षेत्र, पुंछ-राजौरी, और चिनाब घाटी के लिए स्वशासित छह क्षेत्रीय-आंचलिक विधानसभाएं होनी चाहिए.
3.       पाकिस्तानी प्रशासन के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर में रहने वाले लोगों की क्षेत्रीय आकांक्षाओं और हितों को पूरा करने के लिए उसे भी एक स्वतंत्र संघीय राज्य बना दिया जाए. इसके अंतर्गत पुंछ, भिम्बर, मीरपुर वगैरह के पठवारी बोलने वाले इलाके, और बल्तिस्तान तथा गिलगित के उत्तरी इलाके के लिए स्वशासित दो क्षेत्रीय-आंचलिक विधानसभाएं होनी चाहिए.
4.       जम्मू-कश्मीर के विभिन्न क्षेत्रीय-अंचलों की जातीय, भाषायी तथा सांस्कृतिक आकांक्षाओं और राजनैतिक-आर्थिक हितों की रक्षा के लिए उन्हें पूरी तरह स्वशासित बनाना चाहिए और अपनी-अपनी क्षेत्रीय विधानसभा प्रदान की जानी चाहिए.
5.       भारत और पाकिस्तान दोनों को वचन देना चाहिए कि वे 10 साल के अंदर जम्मू-कश्मीर के मौजूदा वि‍भाजित दो हिस्सों को भारत-पाक कंडोमिनियम के तहत एक कर देंगे.
6.       कश्मीरी मूल के पंडित समुदाय को कश्मीर घाटी में बसाया जाना चाहिए और बसाने की पूरी योजना मंजूरी के लिए उनके सामने रखी जानी चाहिए.
7.       सन् 1947 में पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों की 70 साल से चली आई मांग उन्हें जम्मू क्षेत्र के स्थायी निवासी के रूप में मान्यता देकर पूरी की जानी चाहिए.
हमें उम्मीद है कि यह कदम उठाकर भारत-पाकिस्तान के बीच सीमा पर बने तनाव को खत्म किया जा सकता है और जम्मू-कश्मीर के मसले को तितरफा बातचीत के जरिए हल करके दक्षिण एशिया में स्थायी शांति कायम की जा सकती है. यह फॉर्मूला पहले तो दुनिया के एक सबसे खतरनाक संभावना वाले इलाके में अमन कायम करके विश्व समुदाय के हितों की पूर्ति करेगा; दूसरे, इससे दक्षिण एशियाई साझा बाजार के विकास की राह में अभी बनी बाधाएं दूर हो जाने से यहां के लोगों को लाभ मिलेगा; और तीसरे, इससे भारत, पाकिस्तान और जम्मू-कश्मीर के लोगों को आर्थिक विकास में बराबर की भागीदार मिलने से उनके हित सधेंगे.
फुटनोट:
6.     अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज को उद्धृत करते हुए दैनिक हिन्दुस्तान में संपादकीय, 09.10.2016
7.     दैनिक हिन्दुस्तान, संपादकीय, 09.10.2016
9.     ज्योतिरादित्य सिंधिया, दैनिक हिन्दुस्तान, 27.09.2016