(यह पेपर जम्मू-कश्मीर
के साम्बा में 16 अक्तूबर 2016 को एनएचसीपीएम के हो रहे एक सेमिनार में प्रस्तुति
के लिए है;
इसकी मूल प्रस्थापनाएं
नेचर-ह्यूमन सेंटरिक पीपुल्स मूवमेंट के संस्थापक कॉ. रामप्यारा सराफ के लेखों से
हैं.)
भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध
के मंडराते बादल
दोनों देश सीमा पर स्थिति शांत करें और कश्मीर समेत
सभी समस्याओं को बातचीत से सुलझाएं
ओम प्रकाश सराफ
पिछले एक माह से भारत-पाकिस्तान सीमा पर
जबर्दस्त तनाव है. आशंका है, यह तनाव कभी भी युद्ध की शक्ल अख्तियार कर सकता है. 18
सितंबर को ऊड़ी में हिंदोस्तानी फौज के एक कैंप पर कुछ दहशतगर्दों के हमले से शुरू
हुआ यह तनाव 28 सितंबर को एकदम शिखर पर जा पहुंचा जब नियंत्रण रेखा के पार जाकर भारतीय
फौज के सर्जिकल स्ट्राइक्स से माहौल गरम होने लगा और सार्क शिखर सम्मेलन को रद्द
करना पड़ा.
इससे दोनों देशों में
जंगबाजों को शह मिली और वे युद्ध के अलाव धधकाने में लग गए. दोनों तरफ
अंधराष्ट्रवाद के गोले दागे जा रहे हैं. कहा जा रहा है कि इस तनाव को दूर करने का
एक ही रास्ता है और वह है हथियारबंद लड़ाई. यहां तक कि युद्ध में परमाणु हथियार
इस्तेमाल करने तक की धमकियां भी दी जा रही हैं.
सीमावर्ती इलाकों में तो युद्ध जैसा माहौल दिखने
भी लगा और अफरातफरी फैला दी गई है. गांव के गांव खाली कराने के आदेश चाहे बाद में कई
जगह लागू नहीं किए गए, लेकिन नतीजे में भारत में ही कोई पांच लाख लोग अपने
घर-बार-खेत-खलिहान छोड़कर दूसरी जगहों पर कूच करने को मजबूर हुए. युद्ध की
तैयारियां शुरू हो गई हैं.
यह फसल का समय है और ऐसे में किसानों की
मुश्किलों का अंदाजा लगाया जा सकता है. बारूदी सुरंगें बिछाई जाने लगी हैं. सीमा पर
रहने वाले किसानों का अपनी जमीनों पर जाना मुहाल होने लगा है और कई बार तो इन
बारूदी सुरंगों की वजह से उनकी जान भी चली जाती है. बदकिस्मती यह है कि न तो उनकी कोई
खबर बनती है, न राजनैतिक नेता उनकी मौत पर अफसोस जाहिर करते हैं और न ही उन्हें
शहीद का दर्जा दिया जाता है. राजनैतिक पार्टियों को इंसान की बर्बादी नहीं दिखाई
देती. उनका काम सिर्फ जुनून फैलाना है, जिसका शिकार आम आदमी होता है.
हालांकि दोनों पड़ोसियों की सेनाएं सीमा पर एकदम
आमने-सामने नहीं पहुंची हैं, फिर भी इसकी संभावना है,
इस बात से पूरी तरह इनकार नहीं किया जा सकता. लेकिन अगर यह संभावना हकीकत में बदल गई तो नतीजा दोनों तरफ सिर्फ मौत और बर्बादी के रूप में ही
निकलेगा. यही नहीं, दोनों देश
परमाणु हथियारों
से लैस हैं और अगर यह लड़ाई परमाणु युद्ध में तब्दील हो गई तो
कुल मिलाकर प्रकृति और मनुष्य के लिए बहुत ही नुक्सानदेह साबित होगी. इनमें न सिर्फ फौजी मारे जाते हैं और
उनके परिवार तबाह होते हैं, बल्कि आम आदमी को भी लंबे समय तक खामियाजा भुगतना पड़ता है. इसलिए दोनों पड़ोसियों का युद्ध में उतरना कतई उचित नहीं है.
अंदाजा है कि अगर भारत-पाकिस्तान में परमाणु युद्ध हुआ और दोनों ने अगर कुल
मिलाकर अपने परमाणु भंडार के आधे यानी करीब 100 बम1 भी (हरेक बम
हिरोशिमा पर चले 15 किलोटन के बराबर हो तो) चला दिए तो उससे एक हफ्ते के अंदर
दोनों देशों की 2.1 करोड़ इंसानी जानें चली जाएंगी.2 जो लोग बच जाएंगे,
वे कई तरह की बीमारियों का शिकार होंगे. यही नहीं, दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी
कोई दो अरब लोगों के भुखमरी की कगार पर पहुंच जाने का खतरा3 पैदा हो
जाएगा.
प्रकृति के लिहाज से देखें तो इससे आसमान पर हमें सूरज की अल्ट्रावॉयलेट
किरणों की वजह से जलने से बचाए रखने वाली ओज़ोन गैस की करीब आधी परत तबाह हो जाएगी. नतीजा यह होगा कि दुनिया भर में
मानसून का भट्ठा बैठ जाएगा और खेती का तो मूलत: नाश हो जाएगा.4 जंगलों
के जंगल तबाह हो जाएंगे. इसके साथ ही करोड़ों पशु-पक्षी फौरन झुलस जाएंगे. और जो
बचे रह जाएंगे, उनके लिए न कोई चारा मिलेगा, न ही पानी.
मान लें कि अगर परंपरागत युद्ध
भी होता है तो उसके खर्च के बोझ से भारत और पाकिस्तान दोनों की कमर दोहरी हो
जाएगी. पिछले पैमाने से देखें तो 1999 में सिर्फ पहाड़ों तक सीमित रहे करगिल के युद्ध
पर ही भारत का दो हफ्ते में लगभग 10,000 करोड़ रु. और हफ्ते भर में 5,000 करोड़
रु. खर्च आया था.5 लेकिन आज वैसा युद्ध लड़ने पर अंदाजा है कि एक दिन में ही 5,000 करोड़ रु. लग जाएंगे.
अगर युद्ध 20 दिन भी चला तो यह खर्चा एक लाख करोड़ रु. (यानी 100 अरब रु.) से
ज्यादा बैठेगा. जिस विदेशी पूंजी को लाने के लिए हमारे राजनैतिक नेता बड़ी ताकतों
के तलुवे चाटने में दिन-रात एक किए रहते हैं, युद्ध की वजह से उसमें भारी कटौती आ
जाएगी. नतीजा यह होगा कि एक अमेरिकी डॉलर की कीमत जो आज 66-67 रु. है, करीब 100
रु. हो जाएगी.
पहले के युद्ध भी कभी लोगों के हित में नहीं रहे हैं. हम 1962 के बाद ही देखते
हैं. तब चीन से युद्ध हुआ था.
उसके बाद भारत की अर्थव्यवस्था महज दो फीसदी6 की रफ्तार से घिसटने लग गई थी. फिर 1965 में पाकिस्तान से युद्ध हुआ और उसका नतीजा यह निकला कि हमारी विकास की दर नेगेटिव चली गई. तब बढ़ोतरी की रफ्तार न
सिर्फ थम गई बल्कि 3.7 फीसदी घाटे में चली गई. 1971 के युद्ध के बाद भारत भले ही पाकिस्तान के दो टुकड़े
करने में कामयाब हुआ, पर हमारी विकास दर फिसलते-फिसलते 0.9 फीसदी रह गई. 1999 में करगिल की लड़ाई में
अरबों रु. बर्बाद हो गए.
2001 में भारत की संसद पर आतंकवादी हमला हुआ तो तब भी युद्ध के बादल गड़गड़ाए
थे. उस समय एनडीए की सरकार ने सात लाख भारतीय सेना को नौ माह
तक सीमा पर बैठाए रखा था. पाकिस्तान ने भी ऐसा ही
किया था. दुनिया के मामलों पर काम
करने वाले भारत के ही एक थिंक टैंक ‘स्ट्रैटेजिक फोरसाइट
ग्रुप’ के एक अध्ययन के अनुसार, भारत ने दिसंबर 2001 से जनवरी 2002 के बीच महज एक माह में इस सारे सिलसिले पर 40 अरब रु. खर्च किए थे, तो पाकिस्तान ने 42 अरब रु. खर्च किए. 7
यह सारा पैसा जनता से ही वसूल किया जाता है. करगिल की लड़ाई की ही मिसाल
लें. उसके बाद भारत ने अपनी
अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए लगातार दो साल तक सभी टैक्सों पर पांच फीसदी सेक्युरिटी
सरचार्ज लगा दिया था. पाकिस्तान को भी इसी तरह के इंतजाम करने पड़े. उसने अपने
बंदरगाहों का इस्तेमाल करने वाले जहाजियों और बीमा कंपनियों से बड़े पैमाने पर ‘वॉर रिस्क सरचार्ज’ की उगाही की.
दोनों देशों की विकास दर गिर गई और उन्हें फौज पर भी खासा खर्च बढ़ाना पड़ा.
पाकिस्तान ने अपनी कुल जीडीपी का 24 फीसदी तक हिस्सा फौज के तामझाम जुटाने पर खर्च किया, तो भारत ने 15 फीसदी. फिर भी जंगबाज इसे नाकाफी
बताते रहते हैं. न तो उनकी और न ही राजनैतिक नेताओं की नजर लोगों की खस्ताहाल जिंदगी पर पड़ती है. उन्हें यह
नहीं दिखता कि अभी भी भारत की 15 फीसदी और पाकिस्तान की 22 फीसदी जनता को भरपेट खाना तक नहीं नसीब होता.8
करीब 25 लाख बच्चे हर साल कुपोषण की वजह से जान गंवा देते हैं.9 कितने
लोग दवा के बिना सिसकते हुए मर जाते हैं. देश में हर 11,000 लोगों पर एक डॉक्टर उपलब्ध
है.10 कितने बच्चों और नौजवानों को पढ़ाई के मौके मयस्सर नहीं होते. 2011
के जनगणना के अनुसार, भारत में 18 साल
से कम उम्र के 44.4 करोड़ बच्चों में से 10 करोड़ स्कूल नहीं जा पाते और 2014-15
के आंकड़े बताते हैं कि हर 100 में से 32 बच्चे ही अपनी स्कूली शिक्षा ठीक उम्र
में पूरी कर पाते हैं.11 भारत
के 56 करोड़ लोग यानी 44 फीसदी आबादी खुले में शौच करने को मजबूर हैं.12
मानव विकास से संबंधित यह
आंकड़े तो युद्ध से पहले के हैं. अगर युद्ध होता है तो मानव विकास सूचकांक यानी
एचडीआइ के हिसाब से भारत और पाकिस्तान दोनों की हालत और पतली होगी. 2015 के आखिर में 188 देशों में भारत की
हैसियत 130वें नंबर पर थी, जबकि पाकिस्तान 142वें नंबर पर था.13 एचडीआइ किसी
देश की बुनियादी इंसानी तरक्की में उपलब्धियों का औसत माप है. यानी यह बताता है कि
वहां लोगों की जिंदगी कितनी लंबी और कितनी सेहतमंद होती है, उनमें शिक्षा का स्तर क्या
है और उनके रहन-सहन का क्या स्तर है. विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार,
भारत की 12.4
फीसदी आबादी14 अभी
भी गरीबी रेखा के नीचे रहती है, और पाकिस्तान तो और भी पीछे है. उसकी लगभग 29.5 फीसदी आबादी15
गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करती है.
ऐसे में युद्ध की
बात जागरूक लोगों को हमेशा परेशान करती है. ग्लोबलाइजेशन
के इस दौर में भी जब इंसान के विभिन्न समूहों में सीधे आपसी विचार-विमर्श के साथ
आपसी मेलजोल में बेमिसाल इजाफा होने के चलते पूरी दुनिया मानसिक और भौतिक तौर एक
इकाई बन गई है और देशों में एक-दूसरे पर अंतरनिर्भरता बढ़ गई है, युद्ध की बात ठीक
नहीं लगती. आज युद्ध सिर्फ़ दो देशों की फौजी ताकत का टकराव ही नहीं रहा
है. एक युद्ध के पीछे अनेक ताकतें सरगर्म होती हैं. आज भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध
से एक बड़ा खतरनाक सिलसिला जन्म ले सकता है जो दक्षिण एशिया और पश्चिम एशिया ही
नहीं, चीन और अमेरिका तक को अपनी लपेट में ले सकता है. ऐसी दुनिया में हर समस्या का हल बातचीत से निकलना
चाहिए, युद्ध से नहीं.
लिहाजा देश के
जागरूक शहरी होने के कारण हम अपनी आने वाली पीढि़यों को परमाणु सर्वनाश की तरफ
नहीं धकेल सकते. न ही युद्ध का रास्ता चुनकर हम अपनी
अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचा सकते हैं? युद्ध
इंसानियत के लिए हमेशा खतरनाक साबित हुए हैं.
उनसे कोई मसले हल नहीं होते. वे आम आदमी के लिए हमेशा तबाही और मुसीबत लाते
हैं. ये जिम्मेदारी दोनों देशों के नेताओं की
है कि वे बैठकर बातचीत से मसले को सुलझाएं.
उधर, दुनिया के
हालात को देखें तो सुपर पॉवर्स के बीच भी तनातनी बढ़ रही है. बहुध्रुवीय दुनिया के बाद एकध्रुवीय दुनिया
का दौर लगता है अब बीत गया. दुनिया फिर से दो ध्रुवों में बंट गई लगती है. इसमें
ताकतों के नए पैदा हो रहे संतुलन को देखें. स्थिति यह है कि हर लिहाज से अव्वल सुपर
पॉवर माना जाता अमेरिका आज दूसरे नंबर की आर्थिक सुपर पॉवर बने चीन को संसार में कोई
कारगर राजनैतिक भूमिका निभाने से रोकने की हर संभव कोशिश कर रहा है. लेकिन चीन अकेला
नहीं है. उसके साथ बड़ी परमाणु ताकत के रूप में रूस भी खड़ा है, जो सीरिया में
अमेरिका समर्थित सेनाओं से सीधा उलझा हुआ है. दूसरी
तरफ, अमेरिका के साथ उसके परंपरागत मित्र –- ब्रिटेन, फ्रांस वगैरह हैं. दुनिया
में आज ये दो खेमे बन गए हैं. आर्थिक तौर पर देखें तो दोनों की हालत खस्ता होती जा
रही है. दोनों ही दुनिया भर के बाजारों, कच्चे माल और सस्ती मेहनत को अपने नियंत्रण
में लाने के लिए होड़ कर रहे हैं ताकि अपनी-अपनी गिरती हुई अर्थव्यवस्था को संभाल
सकें.
दोनों के पास जबर्दस्त हथियार हैं -- परमाणु
बम, हाइड्रोजन बम और न जाने क्या-क्या. इसके बावजूद खुद दोनों खेमे सीधा सैनिक जोखिम
उठाने की हिम्मत शायद ही करें. उन्हें पता है, उन हथियारों के इस्तेमाल से उनका
अपना वजूद भी खत्म हो सकता है. और यही नहीं. आज की दुनिया में चूंकि व्यापार,
पूंजी निवेश और टेक्नोलॉजी लेने-देने संबंधी
कार्पोरेट पूंजीवादी प्रक्रियाओं की फितरत विश्व स्तर की हो गई है और इसकी वजह से दोनों खेमों ने एक-दूसरे की अर्थव्यवस्था
में बहुत ज्यादा निवेश कर रखा है, इसलिए वे उसे खतरे में नहीं डालेंगी. लेकिन दुनिया
के हर इलाके में जहां-जहां भी तनाव है, वो अपने-अपने दोस्तों के जरिए सीमित ही
सही, परोक्ष युद्ध (Proxy War) तो कर ही सकती हैं.
दक्षिण एशिया
में भी दोनों खेमों के बीच तेज हो़ड़ चल रही है. चीन को घेरने की अपनी नीति के तहत
अमेरिका यहां अनेक फौजी और कूटनीतिक चालें चलता आ रहा है. उसकी काट के लिए चीन
अपनी गोटियां बिछाता आ रहा है. भारत और पाकिस्तान के बीच यहां कश्मीर मसले पर अरसे
से विवाद चले आने की वजह से दोनों खेमे टकराव को बढ़ावा देने में लगे हैं. सब
जानते हैं कि नई दिल्ली में सरकार के बदल जाने के बाद से भारत अमेरिकी खेमे के
ज्यादा निकट हो गया है. बहुत पहले शुरू हुई यह प्रक्रिया प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी की हाल ही की अमेरिका यात्रा के बाद तो चरम पर पहुंच गई है. अपनी जवाबी चालों
के तहत नेपाल पर चीन का शिकंजा कस रहा है और पाकिस्तान आज उसकी अधिक मुट्ठी में
है. कुछ समय से रूस भी पाकिस्तान के साथ सहयोग करने को तत्पर दिखा है. बांग्लादेश
और श्रीलंका पर चीन का दबदबा कायम है.
दुनिया में ऐसी स्थिति
को देखते हुए भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत का होना और भी जरूरी है. आप सब
जानते हैं कि जब भी भारत-पाकिस्तान में युद्ध हुआ है, आखिर में क्या होता आया है.
1948 में जम्मू-कश्मीर पर कबायली हमले और पाकिस्तान के फौजी दखल के बाद दोनों को यूएनओ के प्रस्ताव के बाद युद्धविराम का ऐलान करना
पड़ा. 1965 में युद्ध के बाद ताशकंद समझौता हुआ, 1971 में युद्ध हुआ तो उसका अंजाम
भी शिमला समझौते में निकला. और अब भी अगर युद्ध हुआ तो आखिरकार समझौते की मेज पर ही
बैठना पड़ेगा. वैसे, अभी भी दोनों देशों के डीजीएमओ
में बातचीत का सिलसिला तो जारी है. जरूरत इसे उच्चतर स्तर पर करने की है.
लेकिन आखिर भारत-पाकिस्तान के बीच क्या मसला है
जो 70 साल में भी नहीं सुलझ पाया. जाहिर है, यह जम्मू-कश्मीर का तितरफा मसला है. भारत जम्मू-कश्मीर को अपना अटूट
अंग मानता है, जबकि पाकिस्तान उसे अपनी शाह रग मानता है. उधर, कश्मीर के लोगों की कई साल से आहत हो रही भावनाएं आज उफान पर पहुंच
गई हैं.
तीन माह से कश्मीर में लोग अपनी लड़ाई सुरक्षा बलों के साथ गलियों-सड़कों पर लड़ रहे हैं. 100 से अधिक जानें जा चुकी
हैं और 10,000 से कुछ कम लोग जख्मी हो चुके हैं. यह इंसानियत के कत्ल से कम नहीं
है. फिर भी भारत और पाकिस्तान ने यूएनओ की
जनरल असेंबली में एक-दूसरे को डराने-धमकाने के लिए इस मसले को राजनैतिक हथियार के
तौर पर इस्तेमाल किया.
और फिर अचानक ऊड़ी में फौज के एक कैंप पर हुए
हमले ने कश्मीर में चल रही जद्दोजेहद से ध्यान मोड़कर युद्ध की तरफ कर दिया. ऊड़ी
में जो 24 जानें गईं, वो भी इंसान थे और उन पर भी पूरी इंसानियत को शोक मनाना
चाहिए. वहां हुआ हमला भी निंदायोग्य है. लेकिन हिंसा और नफरत का जो कल्चर बन गया है,
आखिर उसकी जिम्मेदारी किसकी है?
यह तो जानी-मानी हकीकत है कि घाटी में विभाजन के वक्त से ही अलगाव की भावना चली
आ रही है और वह दिन-ब-दिन बढ़ रही है. इसके लिए भारत की राजनैतिक व्यवस्था, पाकिस्तान की राजनैतिक व्यवस्था और कश्मीर के आजादी समर्थक सभी गुट कमोबेश जिम्मेदार रहे हैं
जिन्होंने अपने सिद्धांत और व्यवहार से लोगों के विभिन्न संप्रदायों को एक-दूसरे
के खिलाफ भड़काया और कश्मीरी लोगों के उचित संघर्ष को या तो कुचला या सही दिशा में नहीं जाने दिया.
तो अलगाव की इस भावना का क्या हल कैसे निकाला जाएगा? क्या यह सेना
के जरिए लोगों को दबाकर किया जाएगा? कश्मीरी कह रहे हैं, वो आज़ादी चाहते हैं. यह तो सीधा-सादा राजनैतिक मामला है. और इतिहास गवाह है कि राजनैतिक
मामले बिना बातचीत के हल नहीं होते? भारत सरकार भी इसे 70 साल से सुरक्षा बलों
के जरिये हल करने की कोशिश करती चली आ रही है. नहीं हल कर पाई.
बीच-बीच में सरकार में बैठे लोग कहते भी रहते हैं कि वे बातचीत करना चाहते हैं, पर करते
नहीं. इससे भारत में चाहे किसी पार्टी
की सरकार रही हो, उसकी नीयत पर ही शक होता है. दरअसल, उन सभी पार्टियों का यह खेल
है. कश्मीर में और कश्मीर को लेकर जितना तनाव रहेगा, देश में उतना ही सांप्रदायिक
ध्रुवीकरण होता रहता है. इससे कांग्रेस तथा सेक्यूलर पार्टियां भी राजनैतिक फायदा
उठाती रहीं और भाजपा तथा फिरकापरस्त पार्टियां भी. पहले किस्म की पार्टियां
मुसलमानों में खौफ पैदा करके और दूसरी पार्टियां मुसलमानों का खौफ बनाकर.
तो यह तितरफा मसला बना कश्मीर ही इस उपमहाद्वीप में तनाव की वजह है. यहां स्थायी
शांति के लिए बेहतर यह है कि दोनों देश युद्ध का रास्ता छोड़ दें और कश्मीरी लोगों
को साथ लेकर बातचीत के रास्ते पर आगे बढ़ें. लिहाजा जरूरी है कि दोनों देश अपनी सरहदों
पर हालात को शांत करने के लिए फौरन कदम उठाएं, और विभाजन के बाद से दोनों देशों को
सताती आ रही जम्मू-कश्मीर समस्या को शांतिपूर्ण तरीके से हल करने के लिए आपस में
तय करके दोतरफा या तितरफा बातचीत शुरू करने की तरफ आगे बढ़ें.
हम अपनी तरफ से कुछ ऐसे फॉर्मूले
सुझा रहे हैं जिन पर जम्मू-कश्मीर मसला हल करने के लिए भारत, पाकिस्तान और
जम्मू-कश्मीर के लोग सहमत हो सकते हैं. ये सूत्र हैं: किसी तरह के फौजी हल की
हिमायत न करना तथा शांतिपूर्ण समाधान का रास्ता
चुनना; भारत-पाकिस्तान के बीच ‘‘युद्ध न करने’’ का समझौता करना; हर देश की एकता और
अखंडता की गारंटी देना; जम्मू-कश्मीर को भारत का ‘‘अटूट अंग’’ मानने या उसे
पाकिस्तान की ‘‘शाह रग’’ समझने सरीखे पहले से ही सोचे विचारों पर जोर न देना;
जम्मू-कश्मीर में हिंसा में कमी लाना, अपमान की घटनाओं तथा मानवाधिकारों के
उल्लंघन पर रोक लगाना; जम्मू-कश्मीर को लेकर सभी सांप्रदायिक समाधान खारिज करना;
और, जम्मू-कश्मीर समस्या को संबंधित सभी पक्षों के हितों में तालमेल से सुलझाना और
उनका साझा भविष्य तलाश करना.
हमारा यह भी मानना है कि 70 वर्ष से चली आ
रही जम्मू-कश्मीर की जटिल समस्या तीन पक्षों के बीच की समस्या है और इसका माकूल,
काबिलेअमल और समझदारीभरा हल निकालने के लिए निम्नलिखित सात कदम उठाए जा सकते हैं:
1.
भारत और पाकिस्तान की राष्ट्रीय आकांक्षाओं और हितों को पूरा करने के लिए भारत-पाक
कंडोमिनियम नाम का संवैधानिक निकाय बनाकर उसे जम्मू-कश्मीर से संबंधित रक्षा,
विदेशी मामलों और मुद्रा के तीन सबसे अहम विषयों का संयुक्त जिम्मा सौंपा जाए.
2.
भारतीय प्रशासन के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर में रहने वाले लोगों की क्षेत्रीय
आकांक्षाओं और हितों को पूरा करने के लिए इस इलाके को एक स्वतंत्र संघीय राज्य बना दिया
जाए जो रक्षा, विदेशी मामलों और मुद्रा को छोड़कर बाकी सभी मामलों का कामकाज देखे.
इसके अंतर्गत लद्दाख, कारगिल, कश्मीर घाटी, जम्मू क्षेत्र, पुंछ-राजौरी, और चिनाब
घाटी के लिए स्वशासित छह क्षेत्रीय-आंचलिक विधानसभाएं होनी चाहिए.
3.
पाकिस्तानी प्रशासन के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर में रहने वाले लोगों की क्षेत्रीय
आकांक्षाओं और हितों को पूरा करने के लिए उसे भी एक स्वतंत्र संघीय राज्य बना दिया जाए.
इसके अंतर्गत पुंछ, भिम्बर, मीरपुर वगैरह के पठवारी बोलने वाले इलाके, और
बल्तिस्तान तथा गिलगित के उत्तरी इलाके के लिए स्वशासित दो क्षेत्रीय-आंचलिक
विधानसभाएं होनी चाहिए.
4.
जम्मू-कश्मीर के विभिन्न क्षेत्रीय-अंचलों की जातीय, भाषायी तथा सांस्कृतिक आकांक्षाओं और राजनैतिक-आर्थिक हितों की रक्षा के लिए
उन्हें पूरी तरह स्वशासित बनाना चाहिए और अपनी-अपनी क्षेत्रीय विधानसभा प्रदान की
जानी चाहिए.
5.
भारत और पाकिस्तान दोनों को वचन देना चाहिए कि वे 10 साल के अंदर जम्मू-कश्मीर
के मौजूदा विभाजित दो हिस्सों को भारत-पाक कंडोमिनियम के तहत एक कर देंगे.
6.
कश्मीरी मूल के पंडित समुदाय को कश्मीर घाटी में बसाया जाना चाहिए और बसाने की
पूरी योजना मंजूरी के लिए उनके सामने रखी जानी चाहिए.
7.
सन् 1947 में पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों की 70 साल से चली आई मांग
उन्हें जम्मू क्षेत्र के स्थायी निवासी के रूप में मान्यता देकर पूरी की जानी
चाहिए.
हमें उम्मीद है कि यह कदम
उठाकर भारत-पाकिस्तान के बीच सीमा पर बने तनाव को खत्म
किया जा सकता है और जम्मू-कश्मीर के मसले को तितरफा बातचीत के जरिए हल करके दक्षिण
एशिया में स्थायी शांति कायम की जा सकती है. यह
फॉर्मूला पहले तो दुनिया के एक सबसे खतरनाक संभावना वाले इलाके में अमन कायम करके
विश्व समुदाय के हितों की पूर्ति करेगा; दूसरे, इससे दक्षिण एशियाई साझा बाजार के
विकास की राह में अभी बनी बाधाएं दूर हो जाने से यहां के लोगों को लाभ मिलेगा; और
तीसरे, इससे भारत, पाकिस्तान और जम्मू-कश्मीर के लोगों को आर्थिक विकास में बराबर
की भागीदार मिलने से उनके हित सधेंगे.
फुटनोट:
6. अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज
को उद्धृत करते हुए दैनिक हिन्दुस्तान में संपादकीय, 09.10.2016
7. दैनिक हिन्दुस्तान, संपादकीय, 09.10.2016
9. ज्योतिरादित्य सिंधिया, दैनिक हिन्दुस्तान, 27.09.2016