Saturday, August 30, 2014


हिंदी शब्दों के कुछ प्रयोगों पर 

अच्छे खासे अनुभवी लोगों को कई ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करते देखता हूं, जो दरअसल मुझे लगता है, गलत हैं. 

इनमें एक शब्द विदेश है. इसके बहुवचन के रूप में हिंदीजन 'विदेशों' शब्द का धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं. जैसे विदेशों में रहने वाले भारतीय. क्या महज विदेश कहने से काम नहीं चलता. जैसे 'देश' का बहुवचन कई जगह 'देशों' के रूप में प्रयुक्त होता है, उसी तरह ये लोग 'विदेशों' शब्द का इस्तेमाल करते हैं. विदेश का अपने आप में मतलब है अपने देश से बाहर का यानी स्वदेश से भिन्न दूसरे कोई देश. उसका कोई बहुबचन नहीं है.

इसी तरह एक शब्द 'अनेक' हैं, जो मेरी समझ से अपने आप में बहुवचन विशेषण है. लेकिन फिर भी कई लोग उसके बहुवचन के रूप में 'अनेकों' शब्द का इस्तेमाल करते हैं. जैसे--मैंने उसे अनेकों बार यह समझाया है या मैं अनेकों बार कश्मीर जा चुका हूं. उनके लिए अनेक शायद एकवचन है, इसलिए वे बहुवचन के रूप में 'अनेकों' का प्रयोग करते हैं. लेकिन स्पष्ट हो कि अनेक का शाब्दिक अर्थ ही है: एक से अधिक, कई, बहुत. इसलिए उसका बहुवचन के रूप में ही इस्तेमाल उचित होगा.

वैसे ही विशेषणों में मूलावस्था के 'अच्छा' की उत्तरावस्था 'बेहतर' और उसकी उत्तमावस्था 'बेहतरीन' है. लेकिन कुछ सज्जन 'बेहतरीन' की जगह 'सबसे बेहतर' शब्दों का प्रयोग करते देखे जा सकते हैं. उदाहरण के लिए, देश के हिंदी अखबारों में दैनिक हिंदुस्तान सबसे बेहतर अखबार है या रहने के लिए दिल्ली सबसे बेहतर शहर है. सबसे बेहतर से उनका अभिप्राय शायद सर्वोत्तम है, जिसे अंग्रेजी में best कहते हैं, और उसके लिए अपने पास 'सबसे बेहतर' नहीं, 'बेहतरीन' उपयुक्त शब्द है. हां, सबसे अच्छा भी चल सकता है, पर सबसे बेहतर कतई नहीं.

इधर हिंदी में 'फिर से बहाल' शब्दों का प्रचलन भी बढ़ा है. बहाल का शुद्ध हिंदी में अर्थ है पुनर्नियुक्त. लेकिन कई लोग इस शब्द से पहले 'फिर से' जोड़कर पुनर्नियुक्त पर शायद अधिक बल देना चाहते हैं. वे वाक्य कुछ इस तरह लिखते हैं: कर्मचारियों को फिर से बहाल किया जाए या हम अपने नेता के फिर से बहाल किए जाने तक अपना आंदोलन जारी रखेंगे. यह गलत है. बहाल का अपने आप में मतलब है फिर से नियुक्त होना या किया जाना, जो अंग्रेजी के reinstated, rehabilitated or restored शब्दों का समानार्थी है.

3 मई और 8 जून 2014 

Thursday, August 28, 2014

महात्मा गांधी जैसी महान शख्सियत को नमन 

गांधी की महानता का राज उनके अपने अंदर मौजूद बेहिसाब गुणों में निहित था. वे न सिर्फ अपने उद्देश्य के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित थे बल्कि साध्य और साधनों के तालमेल में उनका अटूट विश्वास था. और उनके अंदर त्याग की भावना तो अनुकरणीय थी ही. जो राजनैतिक सत्ता और भरपूर प्रतिष्ठा उन्हें हासिल थी, उसे उन्होंने कभी अपने निजी हित के लिए इस्तेमाल नहीं किया. उनमें कभी किसी पद की लालसा नहीं थी. गलतियों को वे खुले मन से स्वीकार करते थे. नम्रता उनमें कूट-कूटकर भरी थी. वे खुद को कष्ट देने के साथ बलिदान के लिए भी तत्पर रहते थे. इस तरह इंसान के रूप में उनमें अनेक गुण थे.

लेकिन हृदय परिवर्तन को लेकर गाँधीवादी दृष्टिकोण--सत्याग्रह या अहिंसा के जरिए बुरे को अच्छे में बदलने का सिद्धांत--परिस्थितियों पर निर्भर करता है. जब तक बुरे को पैदा करने वाली और अच्छे के रास्ते में रुकावट बनाने वाली परिस्थितियों को बदला नहीं जाता, न तो अच्छा आगे बढ़ पाता है और न ही बुरा खत्म हो सकता है. वैसे, त्याग, बलिदान, विनम्रता, सादगी, सहनशीलता वगैरह और सबसे बढ़कर साध्य और साधनों के तालमेल के गांधीवादी सिद्धांत न्यायसंगत समाज के निर्माण में बहुत फायदेमंद हो सकते हैं. यही नहीं, सर्वोदय, विकेंद्रीकरण और स्वराज की उसकी अवधारणाओं में आवश्यक बदलाव किये जाएं तो उन्हें जनता को सत्ता के हस्तांतरण में इस्तेमाल किया जा सकता है.


30 जनवरी 2014 

Cases against Yeddyurappa

Modi claimed that there was only one minor case against Yeddyurappa however former CM's own affidavit filed as reported by ADR tells a different story: 9 criminal cases and multiple charges of Cheating (IPC Sec 420), Forgery (Sec 468) and breach of trust (Sec 406). Is it decriminalization of politics a la BJP??

http://myneta.info/ls2014/candidate.php?candidate_id=399

16 April 2014

दोनों दलों का काला धन

कुछ लोग मानते हैं कि पूरा चुनाव काले धन पर टिका है और इस मामले में सर्वदलीय सहमति है. लेकिन उन्हें दिक्कत है कि कथित बुद्धिजीवी तबके को सिर्फ एक ही पार्टी का काला धन दिख रहा है. फिर भी अगर हमें दोनों दलों का काला धन दिख रहा है तो हम क्या करें? उन दोनों में से किसी एक के पीछे लगें?

24 अप्रैल 2014 

शब्दों का इस्तेमाल

अच्छे खासे अनुभवी लोगों को कई ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करते देखता हूं, जो दरअसल मुझे लगता है, गलत हैं. इनमें एक शब्द विदेश है. लेकिन कई लोग उसे बहुबचन के रूप में इस्तेमाल करते हैं. जैसे विदेशों में रहने वाले भारतीय. क्या महज विदेश कहने से काम नहीं चलता. जैसे 'देश' का बहुवचन कई जगह 'देशों' के रूप में प्रयुक्त होता है, उसी तरह ये लोग 'विदेशों' शब्द का इस्तेमाल करते हैं. विदेश का अपने आप में मतलब है अपने देश से बाहर का यानी स्वदेश से भिन्न दूसरे कोई देश. विद्वान लोग इस मामले में कोई मार्गदर्शन करेंगे?

3 मई 2014 

ज्यादा लोगों के मानने से कोई चीज या बात सही नहीं हो जाती. 

ऐसे सोलहवीं सदी में गैलेलियो और कॉपरनिक्स अगर चर्च की, जिसकी पूरी क्रिश्चियन दुनिया में तूती बोलती थी, बात ही मानते रहते तो यह सिद्धांत प्रतिपादित नहीं कर सकते थे कि जमीन सूर्य कि इर्दगिर्द घूमती है. आज इसी सिद्धांत को सारी दुनिया स्वीकार करती है. इसलिए बहुमत का जनादेश सही भी हो, ज़रूरी नहीं है.

18 मई 2014 

डॉ. श्यामा प्रसाद मुकर्जी ने संविधान सभा में धारा 370 पर क्या रुख अपनाया था?

क्या कोई बता सकता है कि भाजपा की पितृ पार्टी भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुकर्जी ने संविधान सभा में धारा 370 पर क्या रुख अपनाया था? उन्होंने इसका विरोध किया था या समर्थन? और अंततः जब भारतीय संविधान पारित हुआ और उन्होंने उस पर दस्तखत किए तो क्या उसमें धारा 370 पर अपनी राय सुरक्षित रखी थी? अगर तब उन्होंने भारतीय संविधान पर बिना किसी शर्त दस्तखत किए थे तो क्यों किए थे?

30 मई 2014 

नेताओं के नाम पर उनके अनुयायियों को उनकी औलाद करार देना ठीक नहीं

कल उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में भारतीय जनता युवा मोर्चा के कार्यकर्ताओं की ओऱ से किए गए आंदोलन और उस पर पुलिस के बर्बर लाठीचार्ज के संदर्भ में लखनऊ में प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी का यह कहना कि हम गांधी की नहीं..शहीद भगत सिंह, चंद्रशेखर जैसे क्रांतिकारियों की संतान हैं, बहुत अज़ीब है. नेताओं के नाम पर उनके अनुयायियों को उनकी औलाद करार देना ठीक नहीं है. वैसे तो भाजपाई और मूलतः संघी न तो गांधी के और न ही भगत सिंह-चंद्रशेखर के अनुयायी हैं, वे दरअसल सावरकर और गोलवलकर के अनुयायी हैं, लेकिन मुझे याद है कि कोई 35 साल पहले जब मेरे एक साथी ने अपने एक संघी दोस्त को सावरकर और गोलवलकर की औलादें कहकर संबोधित किया था तो उसे बहुत चिढ़ हुई थी और उसने जोरदार विरोध किया था. लिहाजा लक्ष्मीकांत वाजपेयी का वरिष्ठ नेताओँ के साथ पिता का संबंध जोङना अनुचित है.

1 जुलाई 2014 

समान नागरिक संहिता सचमुच समान नागरिक संहिता होनी चाहिए 

भाजपा का मानना है कि देश में समान नागरिक संहिता बनाई जानी चाहिए जो हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई सभी नागरिकों पर लागू हो. समान नागरिक संहिता अच्छी बात है, लेकिन मुझे लगता है कि कुछ कानून ऐसे हैँ जो नागरिकों को तो छोड़िए, सारे हिंदुओं पर भी लागू नहीं होते. यानी हिंदुओं की आधी आबादी उनसे एकदम वंचित है. 

मसलन, हिंदू उत्तराधिकार क़ानून, 1956 के अनुसार, वसीयत किए बिना मृत्यु को प्राप्त होने वाली किसी हिंदू महिला की जायदाद के निबटारे का तरीका किसी हिंदू पुरुष के मुकाबले अलग है. ऐसी महिला का पति अथवा कोई बच्चा वारिस न होने क़ी स्थिति मेँ उसके पति के वारिस उसकी संपत्ति को विरासत में हासिल करते हैं. मृतक महिला के साथ ससुराल में भले ही दुर्व्यवहार किया जाता रहा हो, लेकिन उसकी संपत्ति उसकी अपनी मां या पिता को मिलने के बजाए पति की मां या पिता को मिलती है.

दूसरे, अपराध कानून (संशोधन) संहिता, 2013 के अनुसार, 18 साल से कम आयु की किसी कन्या के साथ यौनकर्म को बलात्कार माना जाता है, लेकिन किसी हिंदू पुरुष का अपनी नाबालिग़ पत्नी के साथ (बशर्ते उसकी उम्र 15 साल से कम न हो) यौनकर्म को अपराध नहीं माना जाता. अजीब बात यह है कि बाल विवाह निषेध कानून, 2006 बाल विवाह की तो इजाजत नहीं देता, लेकिन ऐसा विवाह संपन्न हो जाने पर उसे गैर कानूनी भी करार नहीं देता.

तीसरे, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के अनुसार, बहुपत्नी प्रथा अवैध है, लेकिन पुर्तगाली नागरिक संहिता, 1867 पर आधारित गोवा नागरिक संहिता किसी "ग़ैर ईसाई (gentile) हिंदू" पुरुष की पहली पत्नी अगर 25 साल की उम्र से पहले कोई बच्चा नहीं जनती अथवा 30 साल की उम्र तक कोई लड़का पैदा नहीं करती तो उस पुरुष को दूसरे विवाह की अनुमति देती है.

ऐसे में क्या यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि अभी तो हिंदुओं के लिए ही कोई समान संहिता बनाने की जरूरत है.

बच्चियों से राखी बंधवाकर आखिर क्या संदेश देना चाहते हैं? 

नेता लोग बच्चियों से राखी बंधवाकर आखिर क्या संदेश देना चाहते हैं? यही कि वे जनता में किस कदर मक़बूल हैं. आज अखबारों में नरेंद्र मोदी और राजनाथ सिंह के अलावा कई नेताओं के ऐसे चित्र छपे हैं जिनमें वे किसी बच्ची से राखी बंधवाकर प्रफुल्लित मुद्रा में दिख रहे हैं और उनकी कलाइयों पर राखियों का ढेर जमा हो गया है. लेकिन इसमें नई बात क्या है? अखबार भी ऐसे चित्र क्यों छापते हैं? पता नहीं?

इन नेताओं से बेहतर मिसाल तो आम लोग पेश करते हैं. कई जगहों पर आम लोग राखी को लेकर कई साल से अद्भुत मिसालें पेश करते आ रहे हैं. इससे पर्यावरण के अलावा लोगों को अपनी जीविका के साधन सुरक्षित रखने में भी प्रेरणा मिलती है. हमें प्राणवायु देने वाले पेड़-पौधे आज जब हमसे रक्षा की गुहार लगा रहे हैं तो रक्षासूत्र बांधकर उनकी रक्षा का प्रण लेना अनुकरणीय है.

अभी कल ही रक्षा बंधन के दिन उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में रक्षाबंधन अनोखे अंदाज़ में मनाया गया. यहां इंसानों ने प्रकृति के साथ रिश्ता मजबूत करने के लिए पेड़-पौधों को अटूट बंधन बांधे और ज़िंदगी भर पेड़ों की रक्षा की कसमें खाईं. राज्य के उद्यान विभाग, वन विभाग और सामाजिक संगठनों के साझा तय कार्यक्रम के अनुसार, अलीगढ जिले के सभी ब्लाकों के गांव-गांव में 20 हज़ार पेड़-पौधे रोपने के लिए पहुंचाए गए थे. गांवों में लोगों ने पौधे लगाते समय उनकी सिंचाई और देखरेख करने का संकल्प लिया.

छत्तीसगढ़ के भिलाई में एक स्कूल के बच्चों ने अपने संस्थान की 45 साल से चली आ रही परंपरा के अंतर्गत स्कूल परिसर में मौजूद पेड़-पौधों को राखी बांधी. पौधों को रक्षासूत्र बांधने के बाद बच्चों के मन में यह भावना आती है कि पौधे उनके दोस्त और भाई-बहन के समान हैं. वे राखी बांधने के बाद उनकी और ज्यादा देखभाल करने लगते हैं, जैसे उन्हें पानी देना, फूल-पत्ते न तोड़ना आदि और उनका ख्याल भी रखते हैं. भिलाई में सेक्टर-4 के सरस्वती शिशु मंदिर नामक इस स्कूल की स्थापना 1969 में हुई थी और पौधों को रक्षासूत्र बांधने का सिलसिला तब से चला आ रहा है.

मध्य प्रदेश में महान वन क्षेत्र के ग्रामीणों ने जंगल में महुआ पेड़ को राखी बांधकर अपने जंगल के साथ रिश्ते को नया आयाम दिया. दिल्ली, बंगलुरू, मुंबई सहित 10 शहरों से भेजी गई करीब 9,000 राखियों को महुआ पेड़ में बांधकर ग्रामीणों ने महान वन क्षेत्र में प्रस्तावित कोयला खदान से अपने जंगल को बचाने का संकल्प लिया. महान का प्राचीन जंगल करीब एक हजार हेक्टेयर में फैला है, जिसमें लगभग 50 हजार से अधिक गांव वालों की जीविका निर्भर है. इस जंगल पर महान कोल लि. (एस्सार व हिंडाल्को का संयुक्त उपक्रम) के प्रस्तावित कोयला खदान से इन गांववालों की जीविका खतरे में पड़ गई है. करीब दो दर्जन गांवों के एक हजार से अधिक ग्रामीणों ने पेड़ को राखी बांधी, इनमें भारी संख्या में महिलाएं भी थीं.

राजस्थान में भी राजसमंद के नजदीक निर्मल ग्राम पंचायत ने पिपलांत्री में पर्यावरण संरक्षण एवं संवर्धन की दिशा में बरसों से चल रही अनूठी पहल के तहत रविवार को रक्षाबंधन पर्व पर गांव की बेटियों की ओर से पेड़ों को रक्षासूत्र बांधकर सामाजिक उत्तरदायित्व की विशिष्ट परंपरा का निर्वहन किया. समूचे पंचायत क्षेत्र से पहुंची सैकड़ों बालिकाएं पेड़ों को राखी बांधते समय इस तरह उत्साहित दिख रही थीं, मानो वे अपने सगे भाई को राखी बांध रही हों. बालिकाओं ने इन पेड़ों की सार-संभाल और सुरक्षा करने का संकल्प भी लिया.


11 अगस्त 2014 



मार्क्सवाद को भी विज्ञान की कसौटी पर परखना चाहिए

किसी प्रक्रिया के इतिहास को और वह प्रक्रिया कैसे चलती है, इसे बेहतर तरीके से जानने-समझने के लिए इंसान जो सतत प्रयास करता है, उसे ही विज्ञान कहते हैं. और वैज्ञानिक प्रक्रियाएं स्थिर नहीं होतीं, वह निरंतर विकासशील होती हैं. 

मार्क्सवाद को भी इसी कसौटी पर परखना चाहिए. उन्नीसवीं सदी के महान विचारक मार्क्स ने मानवीय चिंतन में अनेक नई खोजें की और उसमें उपयोगी योगदान किए. मसलन -- दुनिया में कोई चीज़ निरपेक्ष और शाश्वत नहीं है; हर चीज़ लगातार परिवर्तन में से गुजर रही है; इस संसार और उसकी विभिन्न प्रक्रियाओं को जाना जा सकता है; किसी चीज़ में अंतरविरोध ही उसमें परिवर्तन लाते हैं; अर्थतंत्र सामाजिक विकास में महत्वपूर्ण कारक है; मानवीय संसाधन (या श्रम) ही पूंजी को पैदा करते हैं; मानव स्वभाव से सामाजिक प्राणी है; वगैरह-वगैरह. 

लेकिन सोचने की बात है कि पूंजीवाद से संबंधित मार्क्सवादी सिद्धांत पूंजीवादी देशों मेँ बिल्कुल कामयाब नहीं हो पाया. हां, टेक्नोलॉजिकल रूप से कम विकसित कुछ देशों में इसे जरूर कामयाबी मिली. लेकिन वहां भी जनता को प्रेरित करने में इसकी बजाए उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रवाद और पुराने किस्म के समतावादी सिद्धांत की भूमिका ज्यादा थी. उन देशों में भी क्रांति के बाद जो व्यवस्थाएं बनी, कुछ समय बाद वापस पूंजीवाद के आगोश में समा गईं. 


मार्क्सवाद के पॉज़िटिव और नेगेटिव दोनों पहलुओं का मूल्यांकन किया जाना चाहिए. तभी सामाजिक विज्ञान को आगे बढ़ने में मदद मिल सकती है.

The BJP should see clear writing on the wall too



The BJP led Union government need not rejoice much over the India Today - Hansa Mood of the Nation poll. It should see clear writing on the wall too.

The poll reveals, among other things, that the people do not look forward to Modi government to run its affairs along communal basis but expect it to uphold development and free themselves from poverty, corruption and price rise.

According to the survey conducted on a total of 12,430 people across the country, 70% of the respondents hold that Modi government won elections solely on the development plank. Only 21% of the respondents think that BJP’s landslide victory was a result of communal polarisation. 

About 63% respondents maintained that Modi government should concentrate its efforts on containing poverty, corruption and price rise. Among them 23% chose poverty, 22% corruption and 18% price rise as the main targets of the government.
22 August 2014


भाजपा को दीवार पर लिखी साफ़ इबारत भी देख लेनी चाहिए

भाजपा नीत केंद्र सरकार को इंडिया टुडे-हंसा मूड ऑफ द नेशन सर्वेक्षण से कोई ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है. उसे दीवार पर लिखी साफ़ इबारत भी देख लेनी चाहिए. 

इस सर्वेक्षण से अन्य बातों के अलावा एक बात तो निश्चय ही जाहिर होती है कि जनता केंद्रकी मोदी सरकार से देश को सांप्रदायिक आधार पर चलाने की अपेक्षा नहीं रखती बल्कि चाहती है कि सरकार विकास को बढ़ावा दे और गरीबी, भ्रष्टाचार तथा महंगाई से निजात दिलाए. 

12,430 उत्तरदाताओं पर किए गए इस सर्वे के अनुसार, 70 प्रतिशत उत्तरदाताओं का मानना है कि मोदी सरकार को वोट ही विकास की खातिर मिला है. सिर्फ 21 प्रतिशत उत्तरदाताओं की राय है कि भाजपा को ऐसा विशाल जनादेश सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के चलते मिला. 


करीब 63 प्रतिशत उत्तरदाताओं का कहना था कि मोदी सरकार को गरीबी, भ्रष्टाचार तथा महंगाई ख़त्म करने की ओर ध्यान देना चाहिए. इनमें से 23 प्रतिशत ने गरीबी, 22 प्रतिशत ने भ्रष्टाचार और 18 प्रतिशत ने महंगाई पर मुख्य निशाना साधने की बात कही.

सुप्रसिद्ध कन्नड़ लेखक यू. आर. अनंतमूर्ति के निधन पर भगवा परिवार का अजीब रवैया है. इन्सान की मौत का जश्न मनाने वाले इन्सान तो नहीं ही हो सकते. हां, वे बन्दर और रीछ जरूर हो सकते हैं, जिन्होंने कथित रामायण काल में प्रकांड पंडित माने जाते लंकाधिपति रावण की मौत पर हर्षोउल्लास व्यक्त किया था. लेकिन राम ने उस विद्वान से मरते समय शिक्षा ग्रहण करने के लिए छोटे भ्राता लक्ष्मण को उसके पास भेजा था.

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भले ही माफ़ी मांग ली है, लेकिन उनके निर्भया कांड को छोटी-सी घटना करार देने और मुलायम सिंह यादव के यह कहने में कि लड़कों से छोटी-मोटी गलतियां हो जाया करती हैं, क्या अंतर है? संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है यह. शर्मनाक!

23 अगस्त 2014 

कोयले की दलाली में किस किस का मुंह काला? 

आज सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि 1993 के बाद सभी कोल ब्लॉक गैर कानूनी तरीके से आवंटित किए गए. 

मतलब यह कि इस दौरान ज्यादातर कांग्रेस की सरकार तो रही ही, बीच में मार्च 1998 से लेकर मई 2004 तक भाजपा की सरकार भी रही है, जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे. उस दौरान भी कोल ब्लॉक गैर कानूनी तरीके से आवंटित हुए. 


भले ही इनमें ज्यादार कॉल ब्लॉक कांफ्रेस की सरकारों ने आवंटित किए, लेकिन भ्रष्टाचार संख्या से थोड़ा तय 

होता है. अगर कोई इसकी आड़ में अपना आवंटन उचित बताता है तो इसका यही मतलब हुआ कि मेरी 

कमीज तो उससे उजली है.

देश की बड़ी राजनैतिक पार्टियों की ईमानदारी की परतें उघड़ना जारी है.

25 अगस्त 2014 

बहस के नियम-कायदे 

बहस के दौरान कुछ तो नियम-कायदों पर अमल करें. जो लोग बहस में गाली-गलौज पर उतर आते हैं, उनके साथ बात आगे बढ़ाने की मुझे कोई तुक नजर नहीं आती. 

भाई, तर्क को आप तर्क से काटिए. कुतर्क आपकी अपनी बात को गलत साबित करेंगे. तथ्यों के मुकाबले आप अपने तथ्य रखिए. लेकिन तथ्य के नाम पर मिथ्या न परोसें. तथ्यों से कोई खिलवाड़ न करें. 

गाली देने का मतलब है कि आप अपनी शिकस्त कबूल कर रहे हैं. 


بحس کے دوران کچھ تو نیم قایدوں پرعمل کریں- جو لوگ بحس میں غالی گفتار پر اتر آتے ہیں، انکے ساتھ بات آگے بڑھانے کی مجھے کوئی تک نظر نہیں آتی- 

بھائی، منطق کو منطق سے کاٹیے-  غیر منطق آپکی اپنی بات کو غلط صابت کریگا- حقائق کے مکابلے حقائق رکھئے- لیکن حقائق کے نام پر جھوٹھ نہ پروسیں- حقائق سے کوئی کھلواڑ نہ کریں-

غالی دینے کا مطلب ہے، آپ اپنی شکست قبول کر رھے ہیں-

आडवाणी, जोशी की छुट्टी; भाजपा पर मोदी गुट पूरी तरह हावी 


भाजपा संसदीय बोर्ड से लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और अटल बिहारी वाजपेयी की छुट्टी कर दिए जाने के बाद अंदरूनी सत्ता संघर्ष में अब नरेंद्र मोदी की अगुआई वाला गुट पार्टी पर पूरी तरह हावी हो गया है. उसने आडवाणी की अगुआई वाले गुट के साथ ही अन्य सभी गुटों को इतना बौना बना दिया है कि वे उसके सामने नतमस्तक होने को मजबूर हैं. हां, दिखावे के लिए तीनों को पार्टी के मार्गदर्शक मंडल का सदस्य जरूर बना दिया गया है, लेकिन उनमें वाजपेयी तो एकदम निष्क्रिय हैं और मोदी और राजनाथ सिंह के धड़ों को उनके एकदम सामने ला बिठाया गया है.

क्या वजह है कि आडवाणी जो कभी देश की अर्थव्यवस्था पर कुंडली जमाए कार्पोरेट पूंजीपतियों के एक धड़े के इस कदर लाडले थे कि वह प्रधानमंत्री की दौड़ में उनके दावे पर दांव लगाने को तैयार था, आज उन्हें राजनीति की दौड़ में भी नहीं बचा पा रहा? स्पष्ट है, कार्पोरेट पूंजीपति यह देखते हैं कि आज की स्थिति में उनके हित कौन पूरे कर पाता है.

जब कांग्रेस पार्टी चुनाव जीतने लायक बनकर उनके हित पूरे करने में सक्षम थी तो कार्पोरेट पूंजीपतियों का बड़ा हिस्सा उसके साथ था. जब उन्होंने देखा कि कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार भ्रष्टाचार के चलते जनता में बहुत बदनाम होने के कारण चुनाव शायद ही जीत पाए तो उन्होंने अपना पूरा दांव मोदी की अगुआई वाले धड़े पर लगा दिया. जनता में कांग्रेस का समर्थन बहुत घट जाने के चलते मोदी कार्पोरेट पूंजीपतियों के दुलारे हो गए और उनको चुनाव में लगभग समूचे कार्पोरेट जगत का समर्थन मिला और उनकी सरकार बनी.

बहरहाल, बात आडवाणी की चल रही है और उनका पतन कोई एक-दो दिन में नहीं हुआ है. इसकी लंबी प्रक्रिया रही है. वाजपेयी तो अस्वस्थ होने की वजह से 2004 के आम चुनाव से ही राजनीति में एक तरह से निष्क्रिय हो गए थे. भाजपा में आडवाणी का जलवा चुनावों में हार के बाद से कम होना शुरू हो गया. वे न सिर्फ पार्टी की अगुआई वाले एनडीए को यूपीए से आगे निकालने में असफल रहे बल्कि कई सहयोगी पार्टियों के समर्थन से भी हाथ धो बैठे थे. पार्टी के भीतर भी उनको बग़ावत झेलनी पड़ी. न सिर्फ उनके अपने दो निकट सहयोगियों उमा भारती और मदनलाल खुराना ने बल्कि अरसे से प्रतिद्वंद्वी रहे मुरली मनोहर जोशी ने भी उनके खिलाफ सार्वजानिक बयानबाजी की.

आरएसएस भी उनकी जड़ें काटने में लगा रहा. वह भूला नहीं था कि भाजपा की अगुआई में केंद्रीय सरकार चलाने के दौरान संघ की अनदेखी करने में आडवाणी ने प्रधानमंत्री वाजपेयी का पूरा साथ दिया था. सरसंघचालक के.एस. सुदर्शन ने 2005 की शुरुआत में बयान दे मारा कि वाजपेयी और आडवाणी को पार्टी की अगुआई छोड़कर नई पीढ़ी के लिए रास्ता खुला छोड़ देना चाहिए.

लेकिन आडवाणी तब संघ के दिशानिर्देशों पर अमल करने को तैयार नहीं थे. अपनी पितृ संस्था को मुंह चिढ़ाते हुए जून 2005 में वे पाकिस्तान के अपने दौरे में मुस्लिम लीग के दिवंगत नेता मुहम्मद अली जिन्ना की मजार पर भी जा पहुंचे. यह मजार आडवाणी के जन्म स्थल कराची में स्थित है. यही नहीं, उन्होंने वहां यह तक कह दिया कि जिन्ना 'धर्मनिरपेक्ष' नेता थे.

संघ यह बर्दाश्त नहीं कर सकता था कि उसका कोई बच्चा-संगठन उसे चुनौती दे. लिहाजा, आडवाणी पर दबाव बनाकर भाजपा अध्यक्ष पद से उनका इस्तीफ़ा ले लिया गया. लेकिन पार्टी में दूसरे गुटों के नेता अभी संगठन के बंटवारे का जोखिम लेने को तैयार नहीं थे, इसलिए कुछ दिन बाद आडवाणी ने इस्तीफ़ा वापस ले लिया. लेकिन संघ पार्टी के भीतर कई महत्वाकांक्षी नेताओं के गुटों पर निरंतर दबाव बनाए हुए था, जिन्होंने 2005 के अंत में मुंबई में आयोजित पार्टी अधिवेशन में आडवाणी को पार्टी अध्यक्ष पद खाली करने पर बाध्य कर दिया और राजनाथ सिंह इस पर चुने गए. लेकिन भाजपा संसदीय दल पर आडवाणी का कब्जा बरकरार रहा.

इस रस्साकशी के चलते 2009 के आम चुनाव आ गए, जो उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके लड़े गए. पार्टी में तो आडवाणी की हैसियत कमजोर हो ही गई थी, जनता की नब्ज पर भी उनकी पकड़ नहीं रही थी. लिहाजा चुनाव में हार का नतीजा यह हुआ कि आडवाणी की भूमिका और सीमित कर दी गई. विपक्ष के नेता पद पर हालांकि उन्होंने अपनी समर्थक सुषमा स्वराज को बैठा दिया और खुद संसदीय दल के चेयरमैन बन गए, लेकिन पार्टी में उनका कद बौना होता गया.

इस बीच कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार व्यापक भ्रष्टाचार के चलते इस कदर बदनाम हो गई कि उसके समर्थक कार्पोरेट पूंजीपतियों के एक बड़े हिस्से को उसकी हार का डर सताने लगा. आडवाणी सोच नहीं पाए कि जनता में यूपीए शासन के भ्रष्टाचार को लेकर बढ़ते गुस्से का कैसे फायदा उठाएं. देश की जनता को सांप्रदायिक आधार पर बांटने वाली रथयात्रा के दिनों में आडवाणी के दूत रहे मोदी चूंकि इसका खूब अनुभव कमा चुके थे और पार्टी यह समझने लगी थी, इसलिए उसके ज्यादातर गुट मोदी के पीछे आ जुटे और आडवाणी अलग-थलग पड़ गए. बाकी सारा इतिहास है.




सक्रिय राजनीति करने की उम्र क्या है?

भाजपा के भीतर चल रहे संघर्ष को सत्ता संघर्ष न मानने वाले उस दोस्त की यह भी सलाह थी कि "80 वर्ष (दरअसल इससे भी कम 75 वर्ष) की उम्र पार कर चुके लोगों को सक्रिय राजनीति में नहीं रहना चाहिए." उस दोस्त का मानना है कि बढ़ती उम्र के साथ किसी व्यक्ति की योग्यता / क्षमता / सामर्थ्य भी कम होता जाता है और यही वजह है कि लोग रिटायर होते हैं.

इसके लिए मुझे लगता है, पहले यह जानने की जरूरत है: सक्रिय राजनीति करना क्या है?

मेरी समझ में इसका मूलतः मतलब है राजनैतिक प्रक्रिया के बारे में समझ को विकसित करना और उसके अनुरूप व्यवहार करना. इसके लिए जरूरी नहीं है कि पार्टी या सरकार में पद प्राप्त किए जाएं. ऐसे में इसका उम्र से क्या लेना-देना है? और किसी लोकतंत्र में लोगों को फैसला करना है कि पद पर कौन बैठे, वह चाहे पार्टी हो या सरकार?

आप किसी निश्चित उम्र के व्यक्ति पर बंदिश नहीं लगा सकते कि वह सक्रिय राजनीति न करे. रिटायरमेंट की उम्र सरकारी नौकरियों में तो है, निजी क्षेत्र की नौकरियों में भी है, लेकिन निजी क्षेत्र में संचालन के लिए तो कोई आयु सीमा मुकर्रर नहीं की गई है. इसी तरह, राजनीति में यह बंदिश लगाना गलत है कि निश्चित उम्र का कोई व्यक्ति अपने राजनैतिक विवेक के अनुसार न सोचे और न काम करे.




भाजपा में यह सत्ता संघर्ष ही तो है

भाजपा में चल रहे आंतरिक संघर्ष को मैं उस पार्टी के भीतर चल रहा सत्ता संघर्ष मानता हूं. इस मामले में एक दोस्त ने टिप्पणी की है कि "इसमें सत्ता संघर्ष कहां है? पिछले छह माह के दौरान उनके पास सत्ता कहां थी?"

सच बात तो यह है कि ऐसे दोस्त एक महत्वपूर्ण चीज़ को भूल जाते हैं. और वह यह कि सत्ता संघर्ष हमेशा सरकार से जुड़ा हुआ नहीं होता है. सभी राजनैतिक संघर्षों को गौर से देखें तो वे मूलतः सत्ता संघर्ष ही होते हैं. किसी समय विशेष में कोई संघर्ष आंतरिक पार्टी संघर्ष या अंतर-पार्टी संघर्ष का रूप भी ले सकता है. यहां पार्टी से अभिप्राय राजनैतिक पार्टी है.

लेकिन मैं अकेले संघर्ष को किसी प्रक्रिया में सर्वोच्च नियम नहीं मानता हूं. जिस तरह प्रकृति और समाज में आंतरिक और अंतर संघर्ष तथा एकता दोनों ही प्रक्रियाएं साथ-साथ चलती हैं, जिसमें किसी समय विशेष में संघर्ष और दूसरे समय विशेष में एकता मूल भूमिका में होती है, उसी तरह किसी समाज की वैचारिक इकाइयों में (जिनमें राजनैतिक पार्टियां भी शामिल हैं) भी आंतरिक और अंतर संघर्ष तथा एकता दोनों ही प्रक्रियाएं साथ-साथ चलती हैं. राजनैतिक पार्टियों में भी किसी समय विशेष में संघर्ष और दूसरे समय विशेष में एकता मूल भूमिका निभाती है.

भाजपा भी आंतरिक और अंतर संघर्ष तथा एकता की सामाजिक प्रक्रिया के मामले में अपवाद नहीं है. यह पार्टी कांग्रेस (और दूसरी पार्टियों) के साथ अंतर संघर्ष और एकता की निरंतर प्रक्रिया में कभी आगे बढ़ी और कभी पीछे हटी. एकता का मतलब है कि कई मामलों में उसने कांग्रेस (और दूसरी पार्टियों) का साथ भी दिया, जिसकी सबसे बड़ी मिसाल भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान देखने को मिलती है.

लेकिन कांग्रेस (और दूसरी पार्टियों) के साथ अंतर संघर्ष और एकता के साथ-साथ उसके भीतर भी एकता और संघर्ष चलते रहे हैं. उसके भीतर एकता तो सब जानते हैं, मगर संघर्ष के रूप में दो स्पष्ट मिसालें भी हैं. एक तो बलराज मधोक के समय भाजपा (तत्कालीन जनसंघ) के भीतर सत्ता संघर्ष और दूसरे अटल बिहारी वाजपेयी के समय संघ परिवार (और अनिवार्यतः भाजपा) में वाजपेयी और परोक्ष रूप में के.एस. सुदर्शन के बीच संघर्ष.

लेकिन जब हम आज भाजपा में आंतरिक संघर्ष की बात करते हैं उसका यह मतलब नहीं है कि उस पार्टी के अंदर केवल संघर्ष ही है. उसमें अपनी वैचारिक एकता भी है. लालकृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी में अनेक बातों और मुद्दों को लेकर विचारों की एकता है. इससे आडवाणी ने भारतीय समाज में जो प्रतिगामी भूमिका निभाई है, उससे वे बरी नहीं हो जाते.