Wednesday, May 31, 2023

सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद जज राजनैतिक नियुक्ति स्वीकार न करें

मुंबई के वकीलों की संस्था बॉम्बे लॉयर्स एसोसिएशन का मानना है कि सेवानिवृत्त होने के तुरंत बाद जजों को कोई राजनैतिक नियुक्ति स्वीकार नहीं करनी चाहिए. इसलिए एसोसिएशन ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके मांग की है कि सुप्रीम कोर्ट या हाइकोर्ट के किसी भी जज का सेवानिवृत्ति के बाद दो साल का 'कूलिंग पीरियड' (विराम काल) तय किया जाए. इस काल के बाद ही वे सरकारों के आग्रह पर राज्यपाल, सांसद, किसी ट्रिब्यूनल अथवा आयोग का सदस्य वगैरह सरीखे राजनैतिक पद पर बिराजमान हों.

वकीलों का कहना है कि ऐसा न होने से न्यायपालिका की स्वतंत्रता के बारे में प्रतिकूल धारणा बन रही है. याचिका में शीर्ष अदालत से यह अनुरोध भी किया गया है कि वह इस मामले में कोई फैसला होने तक सेवानिवृत्त जजों से राजनैतिक नियुक्तियां स्वीकार न करने के लिए कहे. जाहिर है, वकीलों की इस मांग में दम है. लेकिन दो साल के कूलिंग पीरियड के बजाय यह अवधि किसी निर्वाचित सरकार की तरह पांच साल रखना ज्यादा तर्कसंगत होगा.

वैसे, उक्त राजनैतिक पदों पर नियुक्त करने में सक्षम नेताओं को ही इस बारे में कुछ सोचना चाहिए था, लेकिन उन्हें शायद इस बात की परवाह ही नहीं लगती कि आम जनता क्या सोचेगी. वे कांग्रेस के जमाने में भी ऐसी नियुक्तियां करते आए हैं और अभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शासनकाल में भी किए जा रहे हैं.

याचिका में सबसे ताजा मामला आंध्र प्रदेश के वर्तमान राज्यपाल सैयद अब्दुल नजीर का गिनाया गया है, जो इस साल 4 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश पद से रिटायर हुए थे और ठीक सवा माह बाद 12 फरवरी को राज्यपाल बना दिए गए. इसके पहले उदाहरण के रूप में जस्टिस रंजन गोगोई का उल्लेख है जिन्हें शीर्ष न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पद से सेवानिवृत्त हुए अभी चार माह ही हुए थे कि राज्यसभा के लिए नामित होकर उन्होंने 19 मार्च 2020 को संसद के उच्च सदन में सदस्यता की शपथ ग्रहण कर ली. इसी तरह, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पद से सेवानिवृत्त हुए चार माह भी नहीं हुए थे कि 5 सितंबर 2014 को पी. सदाशिवम केरल के राज्यपाल के रूप में नियुक्त कर दिए गए थे.

दरअसल, आजादी के बाद से ही अनेक सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को राजनैतिक पदों पर नियुक्त किया गया है. बताते हैं कि 1952 में जस्टिस फ़ज़ल अली को उच्चतम न्यायालय से सेवानिवृत्त होने के तुरंत बाद ओडीशा का राज्यपाल बनाया गया था. 1958 में बॉम्बे हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एम.सी. छागला ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के निमंत्रण पर अमेरिका में भारत का राजदूत बनने के लिए इस्तीफा दे दिया था. अप्रैल 1967 में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश कोका सुब्बा राव ने भी राष्ट्रपति चुनाव लड़ने के लिए पद छोड़ दिया था.

आधुनिकता के आवरण में लिपटी बेगार प्रथा

आश्चर्य है, आज की दुनिया में भी ऐसी प्रथा चल रही है जो सामंती युग में यानी राजा-महाराजाओं के ज़माने में और फिर उपनिवेशी काल में आम हुआ करती थी. हम बात कर रहे हैं, बेगार प्रथा की. हां, आज इसका स्वरूप आधुनिकता के आवरण में लिपटा हुआ है. ज्यादा हैरानी की बात तो यह है कि दुनिया में इस प्रथा के मारे लगभग 5 करोड़ लोगों में से करीब आधे कथित 20 सबसे अमीर देशों में हैं. यानी अब आधुनिक गुलामी भी कॉर्पोरेट पूंजीवादी व्यवस्था का ही अंग बन गई है.

आधुनिक गुलामी पर ध्यान केंद्रित करने वाले और ऑस्ट्रेलिया से चल रहे मानवाधिकार संगठन वॉक फ्री फाउंडेशन ने कुछ दिन पहले जारी अपनी एक रिपोर्ट में दावा किया है कि इन कथित अमीर देशों में आधुनिक गुलामी को बढ़ावा दिया जा रहा है. रिपोर्ट में कहा गया है कि जी-20 समूह देशों के छह सदस्यों में आधुनिक गुलामी की जिंदगी जी रहे सबसे ज्यादा लोग हैं. वे या तो जबरी मजदूरी का शिकार हैं या उनकी शादी जबरन कराई जाती है. ऐसे देशों में सर्वोच्च स्थान भारत का है, जहां 1.1 करोड़ ऐसे लोग हैं. इसके बाद चीन (58 लाख), रूस (19 लाख), इंडोनेशिया (18 लाख), तुर्की (13 लाख) और अमेरिका (11 लाख) आते हैं. 

रिपोर्ट बताती है कि "आधुनिक गुलामी के सबसे कम प्रचलन वाले ज्यादातर देश – स्विट्जरलैंड, नॉर्वे, जर्मनी, नीदरलैंड, स्वीडन, डेनमार्क, बेल्जियम, आयरलैंड, जापान और फिनलैंड - भी जी-20 समूह के सदस्य हैं...मगर इन देशों में आर्थिक विकास, लैंगिक समानता, समाज कल्याण, और राजनैतिक स्थिरता के साथ-साथ मजबूत न्याय प्रणाली के उच्च स्तर के बावजूद हजारों लोगों को जबरी मजदूरी या विवाह के लिए बाध्य किया जाता है.

संयुक्त राष्ट्र संघ एजेंसियों अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन और अंतरराष्ट्रीय प्रवास संगठन के साथ-साथ वॉक फ्री ने गत वर्ष सितंबर में अनुमान लगाया था कि 2021 के अंत तक 5 करोड़ लोगों को "आधुनिक गुलामी" में रहने के लिए मजबूर किया गया है. इनमें 2.8 करोड़ लोग जबरी मजदूरी का शिकार हैं और 2.2 करोड़ लोग जबरन शादी को झेल रहे हैं. यानी 2016 के अंत से लेकर केवल पांच वर्षों में यह एक करोड़ की वृद्धि थी.

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के 1930 में हुए जबरन श्रम सम्मेलन के अनुसार, जबरी मजदूरी या अनिवार्य श्रम में वे सभी काम या सेवाएं आती हैं जो किसी व्यक्ति से दंड की धमकी देकर ली जाती हैं और जिन्हें करने के लिए उस व्यक्ति ने स्वेच्छा न जताई हो.

Monday, May 29, 2023

हिंदुत्ववादी एजेंडा के ऐन अनुकूल

कल राजधानी दिल्ली में भारतीय संसद की नई इमारत का वैदिक विधि विधान से उद्घाटन किए जाने के अवसर पर धोती-कुर्ता पहने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हवन और पूजा कार्यक्रम में शामिल होने से लेकर संसद भवन में सेंगोल स्थापना के बाद 20 पंडितों से आशीर्वाद लेने तक, हिंदू कर्मकांड और सामंती प्रतीकों का जो इस्तेमाल किया, वह भाजपा के हिंदुत्ववादी एजेंडा के ऐन अनुकूल है. यह बात दीगर है कि इस उपक्रम को देश और दुनिया के सामने कुछ कदर संतुलित रूप से पेश करने के लिए उन्होंने सर्व-धर्म प्रार्थना समारोह का आयोजन भी करवाया, जिसमें किस्म-किस्म के धार्मिक नेताओं ने विभिन्न भाषाओं में प्रार्थना की.

दरअसल धर्म को राजनीति से जोड़ने का नजरिया ही गलत है. और देश में ज्यादातर राजनैतिक पार्टियां इसी को अमल में ला रही हैं. आज मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा हिंदुत्व का राजनैतिक नारा देकर यह सब कर रही है तो कांग्रेस समेत दूसरी अनेक पार्टियां सर्वधर्म सम भाव यानी फर्जी धर्मनिरपेक्षता के दृष्टिकोण का पालन करती आ रही हैं.

सबसे बड़ी कांग्रेस पार्टी तो शुरू से ही कथनी में सर्वधर्म सम भाव का नारा देकर, करनी में मुख्य रूप से बहुसंख्यक समुदाय का और कई राज्यों एवं जगहों पर अलग-अलग धर्मों का इस्तेमाल करती आई है. पिछले 75 साल में देश में ज्यादातर कांग्रेस की सरकारें रहीं (21 साल से अधिक की गैर-कांग्रेस सरकारों की अवधि को छोड़कर) और उन्होंने लोगों को अंधविश्वासी ही बनाए रखा और किसी भी क्षेत्र में लोगों का वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित नहीं होने दिया.

यहां तक कि 1947 में सत्ता हस्तांतरण के मौके की शुरुआत से ही देखें तो जवाहरलाल नेहरू की अगुआई में खुद कांग्रेस के तत्कालीन नेता उसे मुख्य रूप से बहुसंख्यक समुदाय का आयोजन बनाने के लिए दिन-रात एक कर रहे थे. उस समय घटित वाकयात का विवरण अमेरिकी लेखक लैरी कॉलिंस और फ्रांसीसी लेखक डोमिनीक लापिएर ने अपनी अंग्रेजी पुस्तक फ्रीडम ऐट मिडनाइट (हिंदी में आजादी आधी रात को) में किया है. उनके अनुसार, दक्षिण भारत के दो ब्राह्मणों ने नेहरू पर "गंगाजल छिड़का, उनके माथे पर भभूति मली, हाथों में राजदंड रखा और पवित्र वस्त्र ओढ़ा दिए...नेहरू ने सहर्ष और विनम्रतापूर्वक आज्ञापालन किया." पुस्तक में इसी तरह के दृश्य का जिक्र उन्होंने संविधान सभा के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद के आवास के बारे में भी किया है.

लेखक द्वय ने पुस्तक में बताया है कि भारतीय स्वतंत्रता की तिथि और समय को लेकर भी किस तरह बहस छिड़ गई थी. कुछ ज्योतिषियों का मानना था कि आकाश में शनि और राहु की स्थिति के चलते 15 अगस्त की सुबह का मुहूर्त शुभ नहीं है. दक्षिण एशिया में शिकागो डेली के उस समय के संवाददाता फिलिप्स टैलबोट ने भी, जो बाद में राजनयिक बन गए थे, अपने एक अमेरिकी दोस्त को तब इसके बारे में लिखा था: "ज्योतिषियों का कहना है कि सत्ता हस्तांतरण के लिए निर्धारित 15 अगस्त का दिन अशुभ है." सत्ता संभालने के लिए शायद इसीलिए कांग्रेस के नेताओं ने रात के 12 बजते ही संविधान सभा का अधिवेशन बुला लिया था.

कुल मिलाकर, धर्म को राजनीति से जोड़ने के नजरिये ने देश में ऐसी राजनैतिक प्रतियोगिता शुरू कर दी है, जिसमें मुख्य रूप से एक तरफ हिंदुत्व का राजनैतिक नारा और दूसरी तरफ सर्वधर्म सम भाव यानी फर्जी धर्मनिरपेक्षता का राजनैतिक दृष्टिकोण अपने-अपने वोट बैंक बनाने के लिए लोगों को सांप्रदायिक आधार पर बांटता चला जा रहा है. एक वक़्त था जब धर्म समाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया करता था. तब राजा-महाराजा और बड़े सामंत ईश्वर के अवतार माने जाते थे और लोग "सर्वशक्तिमान" में आस्था रखते थे और अंधविश्वासी हुआ करते थे. लेकिन पूंजीवादी युग की शुरुआत के बाद दुनिया जब जनता को शक्ति का स्रोत मानने लगी तो तर्क और युक्ति के साथ धर्म का सामंजस्य नहीं बैठ पाया. यही वजह है कि औद्योगिक रूप से विकसित देशों में धर्म लोगों का निजी मामला बन गया और वह राष्ट्र या समाज का आधार नहीं रहा.

आज कॉर्पोरेट पूंजीवाद के दौर में जब जलवायु परिवर्तन के चरम संकट का मुकाबला करने और इंसाफपसंद बराबरी वाला समाज बनाने के लिए लोगों को संगठित होने की सख्त जरूरत है. ऐसे में भाजपा हो या कांग्रेस, धर्म को राजनीति से जोड़ने का उनका नजरिया लोगों की एकता में बाधक बन रहा है. इसलिए इस नजरिये को समझना और उसका विरोध करना बहुत जरूरी है.



Saturday, May 27, 2023

आखिर क्या है सेंगोल?

आजकल सेंगोल को लेकर बड़ी चर्चा है. कल 28 मई के दिन नई दिल्ली में नए संसद भवन का उद्घाटन होगा और उस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तमिलनाडु से आए सेंगोल को स्वीकार करेंगे और लोकसभा अध्यक्ष के आसन के पास इसे स्थापित करेंगे.

इससे, जाहिर है, सवाल पैदा होता है: आखिर सेंगोल है क्या?

किसी इतिहासकार ने इसके बारे में शायद ही कहीं लिखा है, लेकिन आज की तारीख में सरकारी नेता और मीडिया यह "राज" खोल रहे हैं कि राजदंड के रूप में यह एक ऐसा प्रतीक है जिसका इतिहास सदियों पुराना है. कहा जा रहा है कि इसका रिश्ता चोल राजवंश (11वीं-12वीं शताब्दी) से रहा है और उस दौरान राजदंड सेंगोल का इस्तेमाल सत्ता हस्तांतरण के समय किया जाता था. तब राजा बदलता था तो पहला राजा अपने उत्तराधिकारी राजा को सेंगोल सौंपता था. यह भी कहा गया है कि यह शब्द तमिल भाषा से लिया गया और इसके नामकरण का आधार संस्कृत शब्द 'संकु' यानी शंख है.

दावा किया जा रहा है कि यह 'राजदंड' भारत की स्वतंत्रता से जुड़ा महत्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रतीक है. यह भी कि 1947 में अंग्रेजों ने जब भारत की आजादी का ऐलान किया था तो लॉर्ड माउंटबेटन ने सत्ता के हस्तांतरण को लेकर नेहरू से पूछा कि यह प्रक्रिया कैसे पूर्ण की जाए. बताते हैं, तब नेहरू ने सी. राजगोपालचारी से राय ली. उन्होंने नेहरू को सेंगोल के बारे में जानकारी दी. फिर, सेंगोल तमिलनाडु से मंगाया गया, जिसे अंग्रेजों ने राज हस्तांतरण के रूप में 14 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि में पंडित जवाहरलाल नेहरू को सौंपा था और वह सत्ता के हस्तांतरण का प्रतीक बना. लेकिन भारत सरकार ने इसका उपयोग 1947 के बाद से नहीं किया. कल मोदी उसे लोकतंत्र के प्रतीक के स्वरूप में स्थापित करने वाले हैं.

इसमें दो बातें समझने वाली हैं. एक तो यह कि सेंगोल एक राजा से दूसरे को सत्ता के हस्तांतरण के लिए ही विख्यात रहा है और नामी पंडित उसका परिष्करण किया करते थे. राजा और ब्राह्मणवाद दोनों ही भारत के इतिहास में सामंतशाही के स्तंभ रहे हैं. इसलिए ऐसे प्रतीक की प्रासंगिकता किसी राजतंत्र में तो होती है, अन्य व्यवस्था में उसकी कोई जगह नहीं हो सकती. दूसरी बात यह है कि इसका ऐतिहासिक महत्व जरूर है, जिसके चलते इसके बारे में अध्ययन किया ही जाना चाहिए और इसे किसी संग्रहालय में भी रखा जाना चाहिए. लेकिन संसद में इसकी कोई जगह नहीं हो सकती.

अगर जवाहरलाल नेहरू ने भी आजादी के समय अंग्रेजों से सत्ता हस्तांतरण के लिए इस प्रतीक को स्वीकार किया था तो इसका सामंतवादी स्वरूप नहीं बदल जाता. वैसे, अपने जमाने में खुद नेहरू सामंतवादी प्रतीकों के अलमबरदार रहे हैं.



Wednesday, May 24, 2023

जैव विविधता घटने से भाषायी और सांस्कृतिक विविधता भी घट रही

शोधकर्ताओं ने जैव विविधता और भाषायी विविधता के बीच गहरा संबंध पाया है. जैसे-जैसे दुनिया में जैव विविधता कम होती जा रही है, वैसे-वैसे उसमें भाषायी और सांस्कृतिक विविधता भी घटती जा रही है. विभिन्न प्रकार के पशुओं और पेड़-पौधों के बड़े पैमाने पर विलुप्त होते जाने के साथ-साथ भाषाएं भी चिंताजनक दर से मर रही हैं.

जीवविज्ञानियों का आकलन है कि प्रजातियों के विलुप्त होने की सालाना दर पहले के मुकाबले 1,000 गुना या उससे भी अधिक हो सकती है. उधर, कुछ भाषाविद् अनुमान लगा रहे हैं कि दुनिया की 50-90 प्रतिशत भाषाएं इस सदी के अंत तक समाप्त हो जाएंगी.

यह कोई संयोग नहीं है. अध्ययनों से पता चलता है कि दुनिया में जैव विविधता के मामले में अति सक्रिय क्षेत्र -- न्यू गिनी के जंगली इलाकों से लेकर पश्चिमी अफ्रीका में गिनी के जंगलों तक -- आश्चर्यजनक रूप से ज्यादातर ऐसे ही क्षेत्र हैं, जहां अत्यधिक भाषायी और सांस्कृतिक विविधता भी पाई जाती है. यह दोनों प्रक्रियाएं किसी न किसी तरह साथ-साथ चलती हैं.

दरअसल, दुनिया में अभी जीवित 6,000 से अधिक भाषाओं में से कोई 5,000 भाषाएं उन क्षेत्रों में हैं, जिनमें अत्यधिक जैव विविधता है. इनमें ज्यादातर भाषाओं को बोलने वाले कम ही लोग हैं. और किसी भाषा को बोलने वाले जितने कम लोग होते हैं, उसके विलुप्त होने की उतनी ही ज्यादा संभावना होती है.

जैव विविधता के मामले में अति सक्रिय क्षेत्रों की 3,202 भाषाओं में से 1,553 भाषाओं को 10,000 या उससे कम लोग बोलते हैं. कोई 544 भाषाएं वे हैं जिनके बोलने वाले 1,000 या उससे कम हैं. अत्यधिक जैव विविधता वाले जंगली इलाकों की कुल 1,622 भाषाओं में से 1,251 भाषाओं को 10,000 या उससे कम लोग बोलते हैं, और 675 भाषाएं बोलने वाले 1,000 या उससे कम लोग हैं.

इस मामले में जरूरत है कि अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं तत्काल कुछ करें. 




Tuesday, May 23, 2023

दुनिया के वित्तीय ढांचे को बदलने की जरूरत: एंटोनियो गुटेरेस

संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस का निम्नलिखित बयान बहुत महत्वपूर्ण है और गहरे मायने रखता है. जरा गौर फरमाएं: 

गुटेरेस ने कहा कि आज दुनिया के वित्तीय ढांचे को बदलने की जरूरत है, क्योंकि यह ढांचा गला-सड़ा, पुराना पड़ चुका और अन्यायपूर्ण है. उनके अनुसार, दुनिया की आर्थिक एवं वित्तीय प्रणाली व्यवस्थागत और अन्यायपूर्ण तरीके से अमीर देशों के पक्ष में झुकी हुई है, जिससे विकासशील जगत में स्वाभाविक तौर पर भारी निराशा उपज रही है. यह उद्गार उन्होंने जी-7 शिखर सम्मलेन में एक प्रेस वार्ता को संबोधित करते हुए प्रकट किए. 

संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने कहा, “जी-7 नेताओं को मेरा संदेश स्पष्ट और सीधा-सादा है: जब हर जगह आर्थिक तस्वीर अनिश्चित-सी है, अमीर देश इस तथ्य की अनदेखी नहीं कर सकते कि आधी से ज़्यादा दुनिया - यानी देशों की भारी बहुसंख्या – गहरे वित्तीय संकट का सामना कर रही है.”

उन्होंने कहा कि "दूसरे विश्व युद्ध के बाद बनाई गई ब्रेटन वुड्स वित्तीय प्रणाली कोविड-19 महामारी और यूक्रेन में रूसी आक्रमण जैसी स्थितियों में वैश्विक सुरक्षा कवच प्रदान करने की अपनी मूल ज़िम्मेदारी पूरा करने में नाकाम रही है.” उनके अनुसार, ऐसे में "ब्रेटन वुड्स प्रणाली को दुरुस्त करने और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार करने का वक्त आ गया है. यह आज की दुनिया की हकीकतों के मुताबिक शक्ति के पुनःवितरण का सवाल है.”

ब्रेटन वुड्स प्रणाली 1944 में विश्व शक्तियों के बीच हस्ताक्षरित इसी नाम की संधि से अस्तित्व में आई थी, जिसके तहत अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक की स्थापना की गई थी, और इन संस्थानों में निर्णय निर्धारण की प्रक्रिया पश्चिम की औद्योगिक ताकतों के नियंत्रण में थी. 

गुटेरेस ने कहा कि "इस बहुध्रुवीय दुनिया में, भू-राजनैतिक मतभेद जैसे-जैसे बढ़ रहे हैं, कोई भी देश, या देशों का समूह इस स्थिति में मूकदर्शक नहीं बना रह सकता, जब अरबों लोग, भोजन, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और रोज़गार के लिए संघर्ष कर रहे हैं."



ख़राब मौसम से हुई 90% मौतें और 60% आर्थिक नुक्सान विकसित देशों में

मौसम, आबोहवा और जल स्रोतों में बिगड़ती स्थिति के चलते 1970 और 2021 के बीच दुनिया भर में 11,778 भीषण दुर्घटनाएं हो चुकी हैं. उनकी वजह से 20,87,229 मौतें हुईं और 43 खरब अमेरिकी डॉलर (आज के 3,562 खरब रु.) का नुक्सान हुआ. ज्यादातर बहु जोखिम पूर्व चेतावनी प्रणालियों (यानी Multi-hazard Early Warning Systems) के चलते पिछली आधी शताब्दी से हालांकि मृत्यु दर घटती जा रही है, लेकिन आर्थिक नुक्सान में वृद्धि होती जा रही है. इस नुक्सान का अनुमान वैसे इस तरह की 37 प्रतिशत दुर्घटनाओं के लिए ही है, इसलिए वह वास्तविकता से कम हो सकता है. 

दुनिया भर में ख़राब मौसम की वजह से जो मौतें हुईं, उनमें 90 प्रतिशत विकसित देशों में हुईं. यही नहीं, इससे जो आर्थिक नुक्सान हुआ, उसका 60 प्रतिशत भी विकसित देशों में हुआ.

यह आंकड़े वायुमंडलीय विज्ञान, जलवायु विज्ञान, जल विज्ञान और भूभौतिकी को लेकर अंतरराष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से बनाए गए विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने 22 मई को जेनेवा (स्विट्ज़रलैंड) में चार वर्ष में होने वाले अपने सम्मेलन के अवसर पर जारी किए हैं.

संगठन ने बताया है कि उक्त 51 वर्षों में मौसम, आबोहवा और जल स्रोतों में बिगड़ती स्थिति के चलते एशिया में 3,612 भीषण दुर्घटनाएं हुईं, जिनसे 9,84,263 लोगों की मृत्यु और 14 खरब अमेरिकी डॉलर (आज के 1,160 खरब रु.) का आर्थिक नुक्सान हुआ. एशिया में हुई मौतें दुनिया भर में हुई मौतों का 47 प्रतिशत थीं. और आर्थिक नुक्सान दुनिया के मुकाबले 33 प्रतिशत था. जान और माल के इस नुक्सान की बड़ी वजह चक्रवात और तूफ़ान थे. 

उक्त अवधि के दौरान भारत में मौसम, आबोहवा और जल स्रोतों में बिगड़ती स्थिति के चलते 573 भीषण दुर्घटनाओं में कोई 1,38,377 लोगों की मृत्यु हुई और इस लिहाज से भारत एशिया में द्वितीय स्थान पर रहा. पहला स्थान बांग्लादेश का रहा जहां 281 भीषण दुर्घटनाओं में 5,20,758 लोगों की मौत हो गई. 1,38,366 जानों के नुक्सान के साथ अगला स्थान म्यांमार का रहा, जबकि 740 भीषण दुर्घटनाओं में 88,457 मौतों के साथ चीन चौथे स्थान पर था. 

उत्तर अमेरिका, मध्य अमेरिका और कैरिबियन देशों में अति खराब मौसम की 2,107 घटनाओं के चलते 77,454 मौतें हुईं और 20 खरब अमेरिकी डॉलर (आज के 1,657 खरब रु.) का आर्थिक नुक्सान हुआ. यह दुनिया भर में हुए नुक्सान का 46 प्रतिशत था और इनमें ज्यादातर भूमिका तूफानों की रही. 

इसके अलावा, अफ्रीका में 1,839 विपदाओं के दौरान 7,33,585 लोग मरे और 43 अरब अमेरिकी डॉलर का नुक्सान हुआ. इस उपमहाद्वीप में ज्यादातर जानी और माली नुक्सान सूखा पड़ने की वजह से हुआ.

यूरोप में ऐसी त्रासदियों की संख्या 1,784, दक्षिण-पश्चिम प्रशांत क्षेत्र में 1,493 और दक्षिण अमेरिका में 943 रही. इन इलाकों में जान और माल के नुक्सान के आंकड़े क्रमश: 1,66,492 और 562 अरब अमेरिकी डॉलर, 66,951 और 185.8 अरब अमेरिकी डॉलर एवं 58,484 और 115.2 अरब अमेरिकी डॉलर रहे. 



Monday, May 22, 2023

जैव विविधता को बचाए रखना बहुत जरूरी

संयुक्त राष्ट्र संघ ने जैव विविधता (Biodiversity) को लेकर समझ बढ़ाने और इसके बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए 22 मई को अंतरराष्ट्रीय जैव विविधता दिवस घोषित किया है. यह बहुत ही अच्छी बात है.

दरअसल, जैव विविधता हमारी धरती के जीवन यापन का ताना-बाना है. यह मनुष्य की सुख-सुविधा का आधार है और आगे भी रहेगा. इस आधार के तेजी से हो रहे क्षय का जितना खतरा प्रकृति को है, उतना ही मनुष्यों को भी है. प्रकृति और पारिस्थितिकी तंत्र में सभी जीव, पौधे, वनस्पति आदि महत्वपूर्ण हैं और इनके संरक्षण में सबकी अपनी-अपनी भूमिका है. दुनिया भर में जैव विविधता नष्ट होते जाने की बड़ी वजह जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, प्रदूषण और शहरीकरण भी है. 

और इसकी मूल रूप से जिम्मेदारी दुनिया भर की बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियों और उनके पैसे के बलबूते पर बनी सरकारों की है. जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र को लेकर यूनेस्को की 2019 में जारी वैश्विक मूल्यांकन रिपोर्ट के अनुसार, हमारी धरती का 75 प्रतिशत पारिस्थितिकी तंत्र नष्ट हो गया है. 

इसलिए यह समझना जरूरी है कि वक्त तेजी से बीत रहा है. धरती का बुद्धिमान प्राणी होने के नाते मनुष्य की जिम्मेदारी है कि सभी जीवों और वनस्पतियों के अस्तित्व को बनाए रखने में अपना योगदान दे. आइए, हम सभी इस बात को जल्दी से जल्दी समझें. ऐसा न हो कि आगे हमें सोचने का वक्त ही न मिले.





Saturday, May 20, 2023

भारत और बांग्लादेश में पड़ सकती है रिकॉर्डतोड़ गर्मी

मौसम वैज्ञानिकों की एक अंतरराष्ट्रीय टीम ने रिपोर्ट दी है कि इंसानों की वजह से जलवायु में जो बदलाव आया है, उससे भारत और बांग्लादेश में रिकॉर्डतोड़ गर्मी पड़ सकती है. ताजा रिसर्च के अनुसार, ऐसी भयंकर गर्मी हर पांच साल में लौटकर आ सकती है. वर्ल्ड वेदर एट्रीब्यूशन इनिशिएटिव के तहत चार देशों - भारत, बांग्लादेश, थाइलैंड और लाओस - के मौसम पर फोकस किया गया. इन चारों देशों में पिछले महीने रिकॉर्ड तापमान दर्ज हुए और कई लोगों की मौत हुई. 

उधर, वर्ल्ड मीटरोलॉजिकल ऑर्गनाइजेशन ने कहा है कि अगले पांच साल के दौरान दुनिया भर के तापमान में इजाफा होगा. यानी 2023-2027 के बीच के पांच साल दुनिया में अब तक के सबसे गर्म 5 साल साबित होने वाले हैं. ऑर्गनाइजेशन के अनुसार, इन्हीं में से किसी एक साल में सबसे ज्यादा गर्मी का रिकॉर्ड भी टूट जाएगा. उसके अनुसार, दुनिया भर का तापमान ग्रीनहाउस गैसों के चलते बढ़ेगा. 

इसके अलावा, अल नीनो भी गर्मी बढ़ाने में अहम योगदान देगा. आम तौर पर अल नीनो अपने आने के अगले साल में गर्मी पैदा करता है. अगर ऐसा होता है तो 2024 में अल नीनो गर्मी बरपा सकता है. वर्ल्ड मीटरोलॉजिकल ऑर्गनाइजेशन ने कहा कि 2023 से 2027 के बीच एक या ज्‍यादा वर्षों में औसत तापमान के "कुछ समय तक" औद्योगिक युग की शुरुआत के स्‍तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस ज्‍यादा हो जाने की 66 फीसदी संभावना है.




जलवायु परिवर्तन और भारत के किसानों की आत्महत्याओं में कोई संबंध है?

लंदन स्थित इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर एनवायरनमेंट ऐंड डेवलपमेंट (आइआइईडी) ने इसी माह प्रकाशित अपने एक शोधपत्र में किसानों की आत्महत्याओं को लेकर विश्लेषण किया है कि ये उन वर्षों में अधिक होती रहती हैं, जिनमें वर्षा कम होती है. इससे पता लगता है कि जलवायु परिवर्तन और भारत के कृषि मजदूरों की आत्महत्याओं में कोई निश्चित संबंध है. 

जलवायु परिवर्तन ने भारत में बार-बार सूखा पड़ने की घटनाओं में तो वृद्धि की ही है, उसकी लपेट में आने वाले क्षेत्रफल में भी इजाफा किया है. संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण रोकथाम सम्मेलन के अनुसार, 2020-2022 में देश का करीब दो-तिहाई हिस्सा सूखाग्रस्त था. महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य तो इससे बुरी तरह प्रभावित थे और उनकी क्रमशः 62 फीसदी, 44 फीसदी और 76 फीसदी जमीन सूखे की लपेट में आई थी. और उन्हीं में किसानों की आत्महत्याओं की दर ज्यादा थी. 

आइआइईडी शोधकर्त्ताओं द्वारा सबसे अधिक आत्महत्या वाले राज्यों -- छत्तीसगढ़, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और तेलंगाना -- के लिए 2014-15 से 2020-21 के बीच जुटाए आंकड़ों से संकेत मिलता है कि आत्महत्या की दर बारिश की कमी वाले वर्षों में ज्यादा होती रही है. मसलन, जिस साल बारिश सामान्य से 5 फीसदी कम रही, आत्महत्या करने वाले किसानों की औसत संख्या 810 थी. "और बारिश की 25 फीसदी कमी के लिए हमारे रिग्रेशन मॉडलिंग के पूर्वानुमानित मूल्यों पर आधारित होकर देखें तो उस साल आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 1,188 होगी."

आत्महत्या की सबसे अधिक दरों वाले राज्यों में किसान ज्यादातर कपास की खेती करते हैं, जिसके लिए बीजों और कीटनाशकों में खासे निवेश की जरूरत होती है. इसके चलते किसान कई स्रोतों से कर्ज लेने को मजबूर होते हैं. अगर सूखे या अनियमित बारिश से कपास की फसल खराब हो जाती है तो किसान अपना कर्ज नहीं उतार पाते. नकदी फसलों की इसी प्रमुखता के चलते कृषि संकट बढ़ा है. इससे छोटे किसानों में आत्महत्या का जोखिम बढ़ गया है. 

भारत में किसानों को आत्महत्या का सबसे अधिक जोखिम है. राष्‍ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्‍यूरो के अनुसार, 2021 में देश में अंकित कुल आत्महत्याओं में किसानों की आत्महत्या का प्रतिशत 15.08 था. अनुमान है कि दुनिया की 75.5 फीसदी आत्महत्याएं निम्न और मध्य आय वाले देशों में होती हैं, लेकिन अकेले भारत में दुनिया के ऐसे 26.6 फीसदी मामले होते हैं. 

शोधपत्र में स्पष्ट कहा गया है, "जलवायु परिवर्तन खेती को किसानों के लिए बेहद जोखिम भरा, संभावित खतरों से भरपूर और घाटे वाला उद्यम बना रहा है, जिसमें आत्महत्या की आशंका बढ़ गई है." अंत में निष्कर्ष है कि यह तुरंत ध्यान देने योग्य समस्या है, क्योंकि भारत में जब से रिकॉर्ड रखा जाना शुरू हुआ है, उसके बाद आत्महत्या के सबसे ज्यादा मामले 2022 में हुए हैं. 





Friday, May 19, 2023

पिछले 30 साल में दुनिया की बड़ी झीलों में से आधी सिकुड़ीं

शोधकर्त्ताओं के एक अंतरराष्ट्रीय दल ने अपने एक अध्ययन में पाया है कि दुनिया की बड़ी झीलों और जलाशयों में से आधी से ज्यादा पिछले 30 साल में सिकुड़ गई हैं. इसका मुख्य कारण मानवीय खपत तो है ही, ग्लोबल वार्मिंग भी है. इससे खेती, पनबिजली और मानवीय खपत के लिए पानी की आपूर्ति को लेकर चिंताएं बढ़ गई हैं.  

इस अध्ययन के अनुसार, यूरोप और एशिया के बीच स्थित कैस्पियन सागर से लेकर दक्षिण अमेरिका में स्थित टिटीकाका झील तक दुनिया में ताजा पानी के अधिकांश महत्वपूर्ण स्रोतों में से कुछ में गत तीन दशक से हर साल कोई 22 गीगाटन (यानी 22 अरब टन) की संचयी दर से पानी घटता चला आ रहा है. इस तरह इन स्रोतों में इतना पानी घट गया है, जो 2015 के समूचे वर्ष में अमेरिका में इस्तेमाल हुआ था. 

"साइंस" नामक पत्रिका में प्रकाशित हुए इस अध्ययन का नेतृत्व कर रहे, वर्जीनिया विश्वविद्यालय में धरातल जलविज्ञानी फांगफेंग याओ का कहना है कि प्राकृतिक झीलों के पानी में 56 फीसदी कमी ग्लोबल वार्मिंग और मानवीय खपत की वजह से हुई और इसमें भी जलवायु संकट की भूमिका "अधिक रही है." जलवायु विज्ञानी अमूमन मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन के चलते दुनिया के बंजर इलाके ज्यादा बंजर और आर्द्र इलाके ज्यादा नमी वाले होते जाएंगे. लेकिन इस अध्ययन ने पाया कि आर्द्र इलाकों में भी पानी में खासी कमी हुई है.



यूरोप के द्वार पर दस्तक दे रहा आबोहवा का संकट

दो दिन पहले इटली में बारिश से जो कहर बरपा हुआ है, क्या वह संकेत तो नहीं कि आबोहवा का संकट यूरोप के द्वार पर दस्तक दे रहा है. 16-17 मई को इटली के उत्तरी भाग में मात्र 36 घंटे में इतनी बारिश हो गई जो साल भर में वहां की औसत बारिश का करीब आधी थी. 

नतीजा यह हुआ कि बाढ़ के उफान से नदियों के तटबंध टूट गए और खेती की हजारों एकड़ जमीन जलमग्न हो गई. बृहस्पतिवार की शाम तक लगभग 20,000 लोग बेघर हो चुके थे और 13 व्यक्तियों की मृत्यु हो चुकी थी. छह माह पहले भी मूसलाधार बारिश के चलते भूस्खलन हो जाने से उसके एक दक्षिणी द्वीप में 12 लोगों की मौत हो गई थी. पिछले साल सितंबर में उसके मध्य क्षेत्र में अचानक आई बाढ़ से 11 व्यक्ति दम तोड़ गए थे. और पिछले साल जुलाई में गर्मी की लहर के दौरान जब वहां सात दशक बाद बदतरीन किस्म का सूखा पड़ा था, तो इटली के आल्प्स में हिमस्खलन होने से 11 लोग मारे गए थे. 

अभी यह अनुमान लगाया जाना बाकी है कि ग्लोबल वार्मिंग का इस हफ्ते की बाढ़ पर कितना प्रभाव था. लेकिन यूरोप भर में जैसे-जैसे वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड का जमाव बढ़ रहा है, वैसे-वैसे मौसम की खराबी में भी वृद्धि हो रही है. जहां स्पेन और दक्षिणी फ्रांस में कई साल से लगातार सूखे ने किसानों के लिए मुश्किलें पैदा की हैं, वहीं गत वर्ष समूचे यूरोपी महाद्वीप में गर्मी की अभूतपूर्व लहर आई थी. 

इटैलियन सोसाइटी ऑफ एनवायर्नमेंटल ज्योलॉजी के विशेषज्ञ पाओला पाइनो द'अस्तोर का कहना था, "आबोहवा में बदलाव आ चुका है और हम उसका खामियाजा भुगत रहे हैं. इसकी संभावना कोई दूर की बात नहीं, बल्कि यह स्थिति अब आ गई है." विशेषज्ञों का कहना है कि इटली का भूगोल ऐसा है कि यहां आबोहवा का संकट गंभीर रूप ले सकता है. 




कर्नाटक नतीजों के बाद बेमेल-सा दिख रहा मोदी गठबंधन

व्यंग्य चित्र साभार: सी.आर. ससिकुमार (इंडियन एक्सप्रेस)


द ट्रिब्यून समूह के प्रधान संपादक रह चुके जाने-माने पत्रकार, और मनमोहन सिंह के जमाने में पूर्व प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार रहे हरीश खरे का मानना है कि प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी सरकार चलाने के लिए 2014 में जो गठबंधन बनाया था, उसके घटक कर्नाटक के चुनाव नतीजों के बाद आज बेमेल-से दिखने लगे हैं. दिलचस्प है कि "द वायर" न्यूज पोर्टल के अंग्रेजी संस्करण में प्रकाशित अपने लेख में उन्होंने इस बेमेल मोदी गठबंधन के छह घटक बताए हैं.

उनके अनुसार, इनमें प्रथम महत्वपूर्ण घटक को "आधुनिकतावादी" के रूप में चिन्हित किया जा सकता है. इसमें शामिल व्यक्ति लोकतंत्र के विचार को रद्द तो नहीं करते, लेकिन इस तंत्र के कुरूप पक्ष के चलते वे मोदी सरीखे ऐसे "मजबूत" नेता को पसंद करते हैं, जो लोकतांत्रिक शालीनताओं को ताक पर रख दे.

इस गठबंधन के दूसरे खास घटक में वे कॉर्पोरेट कंपनियों के अगुआओं, क्रोनी पूंजीपतियों और उनके चतुर-चालाक किस्म के सहायकों को रखते हैं. उनके मुताबिक, जब तक मोदी सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को कॉर्पोरेट जगत की सेवा में लगाए रखेगी और मजदूर संगठनों वगैरह को बलपूर्वक दबाती रहेगी, कॉर्पोरेट कंपनियां मोदी के पीछे कतारबंद रहेंगी.

खरे ने मोदी गठबंधन का तीसरा तत्व हिंदू घटक को बताया है, जिसका कोई एक रूप नहीं है. इनमें कुछ परंपरावादी, रूढ़िवादी हैं, जो हिंदू पुनर्जागरण से तो उत्साहित हैं, लेकिन हिंदू-मुस्लिम मानस बनने से असहज महसूस करते हैं; फिर, "सांप्रदायिक" हिंदू हैं, जिन्हें मुसलमानों के प्रति हर समय शत्रुता की भावना बनाए रखना उचित लगता है; इसके साथ ही हिंदुत्व की लंपट भीड़ है, जो विभिन्न धूर्त संगठनों, सेनाओं, दलों वगैरह से जुड़ी है और बहुत-सी जगहों में क्षुद्र आपराधिक भीड़ में बदल जाती है. मोदी के नाम पर तथाकथित "लामबंदी" में वे जमीनी सिपाही हैं.

उपरोक्त घटक का एक महत्वपूर्ण उपघटक आरएसएस का प्रतिष्ठान भी बताया गया है. खरे के अनुसार, मोदी राज के 9 वर्षों में इससे जुड़े मध्यम भाग को सहज समृद्धि का स्वाद लग चुका है और वे दंतविहीन शेर बन चुके आरएसएस नेताओं के मुकाबले प्रधानमंत्री को ज्यादा तरजीह देते हैं.

वरिष्ठ पत्रकार महोदय ने सत्तारूढ़ गठबंधन के चौथे घटक को देशभक्ति की भावनाओं से ओतप्रोत बताया है. इसमें शामिल व्यक्ति "राष्ट्रीय सुरक्षा", "राष्ट्रीय सम्मान" अथवा "राष्ट्रीय गौरव" के नाम पर सभी प्रकार के लोकतंत्र विरोधी कदम और तरीके खुशी-खुशी स्वीकार करने को तैयार रहते हैं.

इनके अलावा, उनके मुताबिक, पांचवां घटक जातियों का है. मोदी शासन में सुप्रसिद्ध चाणक्यों की ओर से जातियों, उपजातियों और उप-उपजातियों की पहचान, निष्‍ठा और वैरभाव को लेकर अति विस्तृत योजनाएं तैयार की गई हैं. नए जातिगत नेताओं और समूहों को खड़ा करने के लिए अनंत ऊर्जा और प्रचुर संसाधन खर्च किए गए हैं, जिसके चलते मोदी ने उन सभी को "सशक्तिकरण" का एहसास करवाया है.

और अंत में खरे ने छठा घटक कांग्रेस विरोधियों और गांधी परिवार के विरोधियों का बताया है. इसमें आते हैं: मूलतः जनसंघ के लोग और चाहे कोई प्रधानमंत्री हो, परंपरागत भाजपा मतदाता; शुरू से कांग्रेस विरोधी रहा मतदाता जिसके पास कांग्रेस को नापसंद करने की वजह रही है; और नए मतदाता, जो कांग्रेस में राहुल-प्रियंका के नेतृत्व के चलते पार्टी से कट गए हैं. ये वे "शालीन" लोग हैं, जिन्हें सोनिया गांधी ने देश की राजनीति में आगे किया था लेकिन जो अपने परिवार के प्रति उनके झुकाव के चलते उकताकर मोदी के बाड़े से जुड़ गए.

इन सभी घटकों की परस्पर विरोधी इच्छाएं और अपेक्षाएं हैं, लेकिन मोदी उनमें स्थिरता, व्यवस्था, प्रगति और गौरव का भाव जमाने में अभी तक सफल चले आ रहे थे. लेकिन अब गठबंधन के इन घटकों के सुर बेमेल होने लगे हैं. जाहिर है, मोदी राज के दस साल उन सभी को समान रूप से संतुष्ट रख पाने में नाकाम हो गए हैं.

Thursday, May 18, 2023

78 जिलों में सूखे जैसे हालात

भारतीय मौसम विज्ञान विभाग का मानना है कि देश भर में कम-से-कम 78 जिले शुष्क परिस्थितियों यानी सूखे जैसे हालात का सामना कर रहे हैं. विभाग ने 11-17 मई के लिए जो शुष्कता विसंगति आउटलुक इंडेक्स जारी किया है, उसमें यह बात कही है. इंडेक्स में गिनाए गए लगभग 691 जिलों में से मात्र 116 ऐसे हैं जो सूखे जैसी स्थितियों से मुकाबल नहीं हैं, जबकि 539 जिले विभिन्न मात्रा में सूखे का सामना कर रहे हैं. इनमें कहीं हल्का, कहीं मध्यम और कहीं गंभीर किस्म के सूखे की संभावनाएं हैं. बाकी 36 जिलों के आंकड़े उपलब्ध नहीं थे.



Wednesday, May 17, 2023

मनुष्यों में अगली महामारी क्या बर्ड फ्लू हो सकती है?


पेरू में मृत जलव्याघ्र के सैंपल लेते वैज्ञानिक

पिछले साल नवंबर से लेकर समस्त संसार से चिंताजनक संकेत मिलते आ रहे हैं. उस माह ब्रिटेन के पोल्ट्री फार्मों में पाले जा रहे मुर्गों और अन्य पक्षियों को फार्मों के अंदर बने दड़वों और कमरों के भीतर ही बंद रखने के आदेश जारी किए गए थे. उस समय बर्ड फ्लू फैलने की वजह से इस लॉकडाउन का ऐलान किया गया था. तब इसके वायरस ने दुनिया के ज्यादातर जंगली पक्षियों को अपनी लपेट में ले लिया था. 

यह वायरस आश्चर्यजनक रूप से संक्रामक होता है जिसमें एक पक्षी करीब 100 दूसरे पक्षियों को संक्रमित कर सकता है. और जब जंगली पक्षी एक या दूसरे तरीके से पालतू पक्षियों के संपर्क में आते हैं (जैसे आसमान में उनके ऊपर उड़कर और नीचे उन पर बीठ करते हैं) तो बहुत बड़ी समस्याएं पैदा हो सकती हैं. 

फिर, इस साल जनवरी और फरवरी में भी कई संकेत मिले. पेरू में बर्ड फ्लू के कारण 3,000 से अधिक जलव्याघ्रों की मौत हो गई. अनुमान है कि वहां जंगली पक्षियों की मौतों का आंकड़ा 50,000 तक जा पहुंचा था. रूस में, 700 कैस्पियन सील मरे. यही नहीं, ब्रिटेन और अमेरिका में भी अनेक डॉल्फिन बर्ड फ्लू के वायरस एच5एन1 का शिकार हुए. 

अमूमन, अगर कोई पशु भी किसी पक्षी की वजह से एच5एन1 वायरस से संक्रमित हो जाता है तो वह उसे दूसरे स्तनपायी जीवों में फैला सकता है. उपरोक्त प्रकोपों के दौरान संक्रमण के भारी संख्या में हुए मामलों से पशुओं में संक्रमण की संभावना का संकेत तो मिलता है, लेकिन जेनेटिक सीक्वेंसिंग से इसकी पुष्टि अभी नहीं हुई है. एक और संभावना यह हो सकती है कि इसका प्रकोप उन पशु समूहों में हुआ, जिन्होंने संक्रमित पक्षियों का सेवन किया था. 

लेकिन स्तनधारी पशुओं में इसके फैलने का जोखिम हमेशा रहता है. क्या दुनिया भर के राजनैतिक नेताओं का ध्यान इस तरफ है?

https://www.theguardian.com/commentisfree/2023/may/16/research-bird-flu-humans-prepare-now